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आत्मानुशासन. अर्थः आयुष्य तो निरन्तर थोडा थोडा होकर क्षीण होता ही है परंतु यह दुष्ट शरीर भी आयुके साथ ही साथ क्षीण होता जाता है। इस प्रकार कुछ समय बीतने पर ये दोनो ही सर्वथा नष्ट होजाने बाले हैं । जिन इन दोनो आयुकायका ही यह हाल है जो कि जीवनेके खास आधार हैं तो प्रत्यक्ष जुदे दीखने बाले स्त्रीपुत्रादिकी क्या बात है? अर्थात् जब कि जीवके साथ घनिष्ट संबंध रखने वाले ये दोनो ही स्थिर नहीं हैं तो स्त्रीपुत्रादि जो जीवसे प्रत्यक्ष जुदे दीख रहे हैं वे कैसे चिरकालतक स्थिर रह सकते हैं ? उनकी स्थिति पूर्ण होनेपर बे भी अवश्य तुझसे जुद होंगे । ऐसी अवस्थामें तेरी यह समझ कि मैं कभी न मरूंगा, ठीक उसीके समान है कि जो मूर्ख चलती हुई नौकामें बैठा हुआ भ्रमसे अपनेको यह समझ रहा हो कि मैं स्थिर बैठा हुआ हूं । यद्यपि उसे नौकामें बैठे हुए चाहें यह भान प्रत्यक्षसे न हो कि मैं चल रहा हूं, तो भी उसका चलना अवश्य सिद्ध हैं । उसी प्रकार उत्पन्न हुए जीवका मरना भी अवश्य सिद्ध है।
इसके समझनेके लिये बहुत ही सुगम अनुमान है । देखो, जिस कुएका पानी अरहट यंत्रके द्वारा थोडा थोडा बाहिर निकलता रहेगा वह क्यों न कम होगा? इसी प्रकार श्वासोच्छ्रास द्वारा जिसका आयुष्य निरंतर बाहिर चला जाता है उसका आयुष्य क्यों न घटेगा? अवश्य घटेगा ही । एवं जिसमें हानि निरंतर होते हुए भी कुछ बढवारी न हो तो उसका कभी न कभी सर्वथा निश्शेष होना भी संभव ही है । कुएका जल जब बढनेसे रुक जाता है तब जरूर नष्ट भी हो जाता है। आयु भी जो जन्मसे पहले निश्चित हो जाता है उसमें बढवारी कुछ होनेवाली नहीं है । फिर जो आयु निरंतर श्वासोच्च्छास द्वारा घट हा है वह कभी क्यों न नष्ट होगा ? अथवा नौकामें बैठा हुआ मनुष्य चाहे स्वयं गमन नहीं करता तो भी उसकी आश्रयभूत नौका जब कि विना रोक टोक चली जा