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आत्मानुशासन.
धारण करके विषयवासनाको और भी अधिक कम करते हैं परंतु तो भी क्या साधुओंके पदको पासकते हैं ? कभी नहीं। तपश्चरणादि कायक्लेश सहकर कष्ट क्यों भोगें ? धर्मके साधनभूत शरीरकी तो रक्षा करना ही उचित है । इसका उत्तरः
उपायकोटिदरक्ष्ये स्वतस्तत इतोन्यतः।। सर्वतः पतनपाये काये कोयं तवाग्रहः ॥ ६९॥
अर्थ:-अरे जीव, यह शरीर क्या रह सकता है ? कोटि यत्न इसकी रक्षाकेलिये किये जाय तो भी यह शरीर इधर उधरसे विशीर्ण ही होता रहता है, एक दिन संपूर्ण ही नष्ट हो जाता है। तू इसकी खयं रक्षा कर या दूसरोंसे करा, परंतु यह कभी नहीं रहेगा। जो उत्पन्न हुआ है वह अवश्य कभी न कभी नष्ट होगा ही यह न्याय तुझे क्या मालूम नहीं है ? फिर क्यों तेरा यह आग्रह है कि इसे मैं संभालकर रकरवू, कभी भी नष्ट न होने दूं ?
तो फिर क्या करनाःअवश्यं नश्वरैरेभिरायुःकायादिभिर्यदि।। शाश्वतं पदमायाति मुधाऽऽयातमवेहि ते ॥ ७० ॥
अर्थः-अरे, बुद्धिमानी तो तेरी इस बातमें है कि आयु-कायादिक जब कि अवश्य नष्ट होनेवाले हैं तो जबतक वे तुझै छोडने न पावै तभी तक तू उनसे प्रीति हटाकर शाश्वत पदको प्राप्त करले । क्योंकि तू उनसे विरक्त हो या मत हो परंतु वे तो एक दिन तुझै अवश्य ही छोडेंगे । हाँ, तू उन्हें यदि पहलेसे स्वतः छोडदेगा तो राग-द्वेषजन्य कर्मबंध न होकर अविनाशी पद तुझै मिल जायगा और यदि वे तुझे पहलेसे छोड जायगे तो रागद्वेषजन्य तीव्र पापका बंध होनेसे तुझै संसारके दुःखदायक भवोंमे रुलना पडेगा । पर जो शरीरादिक तुझै अभी मिले हैं वे शाश्वत रहने बाले कभी नहीं है यह तू निश्चय समझ; क्योंकि आजतक किसी दूसरे मनुष्यके शरीरादिक भी शाश्वत रहे हैं, जो कि तेरे भी शाश्वत