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आत्मानुशासन.
वे कभी भोजनकी याचना नहीं करते। किसी श्रद्धालु गृहस्थने भक्तिपुरस्सर प्रार्थना करके दिया तो लेते हैं। नहीं तो भोजनके विना भी अपने चित्तमें खेद नहीं करते। पहलेकी तरह ही उनका परिणाम भोजन न मिलनेपर भी प्रसन्न तथा संतुष्ट रहता है । परंतु संसारी जीवोंकी यह बात नहीं है । इनका भोजन एक तो पराधीन है इसलिये दीनता धारण किये विना नहीं मिलता दूसरे, संतोष-रहित है। निर्धनको तो पराया आसरा भोजनकेलिये सदा ही करना पडता है, याचना भी करनी पड़ती है, जितना मिलता है उससे संतोष नहीं होता है। जो कि धनिक हैं उन्हें भी पूर्ण भोग-सामग्री न रहनेसे दुःख ही बना रहता है। सामग्रीका पूर्ण इच्छित मिलना किसीको भी संभव नहीं होता, यह बात सभीके अनुभवगोचर है। मुनियोंको सहवास सदा उत्कृष्ट श्रावक अथवा मुनि ऐसे आर्यपुरुषोंका ही रहता है जो कि संसारी जीवोंको मिलना बहुतेक दुस्साध्य है । संसारी जनोंका व्यसन अनेक खोटे कामोंमें लगा रहता है किंतु मुनियोंका व्यसन जिनशासनका अभ्यास करना ही है, जिससे कि उनको परमशांत दशा प्रगट होती है । संसारी जीव यदि शास्त्रका भी अभ्यास करें तो उस अभ्याससे अहंकार बढता है, शांत दशा प्रगट नहीं होती । साधुओंके मनका वेग अत्यंत मंद हो जाता है जहां कि संसारियोंका मन चंचल बना रहता है । अध्यात्म विचार करते करते साधुओंका मन यदि बाह्य विषयों में भी कदाचित् आता है तो वह भी उत्तम कामोंमें आकर लगता है, नकि निकृष्ट कामोंमें । संसारी जनोंका मन अध्यात्म चितवनमें तो लगता ही नहीं है किंतु बाहिर भी लगता है वह खोटे विचारोंमें ही सदा आसक्त रहता है । हम नहीं कह सकते हैं कि मुनि-जनोंकी उत्कृष्ट लोकोत्तर परिणति होना, यह किस तपश्चर्याका फल है ? अथवा ऐसे कौन साधु होंगे कि जिनको उत्कृष्ट तपका यह फल प्रगट हुआ