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.आत्मानुशासन. तथा अपने आत्माको समझ और आत्मध्यान करके सच्चा सुखी हो,
और आत्मीय सुख भोगता हुआ श्रेष्ठ शुद्ध आचरण द्वारा कर्म-मलका सर्वथा नाश करके इस संसारके दुःखसे छूटकर निर्वृत हो । जबतक तू इन बाह्य विषयोंसे उपरत न होगा तुझै कभी सुख शांति प्राप्त नहीं होगी, यह तू निश्चय समझ ।
धन सुखका साधन नहीं है । देखोःअर्थिनो धनमप्राप्य धनिनोप्यवितृप्तितः । कष्टं सर्वेपि सीदन्ति परमेको मुनिः सुखी ॥६५॥
अर्थः-जगके जो जीव निर्धन हैं वे तो धन न होनेसे दुःखी हैं और जो धनिक हैं वे तृष्णावश दुःखी हैं । धन न होनेपर गृहका गुजारा न चलनेसे जीव कष्ट पाते हैं-अपनेको महादुःखी सम. झते हैं । यदि धन हो तो उसको और भी अधिक बढानेकी फिकरमें तथा उसकी साल सँभालकी फिकरमें सदा मग्न रहते हैं। खाना पीना भी समयपर नहीं करते। इसलिये धनिक लोग भी दुःखसे बचे नहीं हैं। इस प्रकार देखनेपर संसारमें सभी दुःखी हो रहे हैं, विचारे सभी जीव दिनरात खेद पारहे हैं । यदि कोई यथार्थ सुखी है तो वह अकेला मुनि ही है, जिसका कि नाम भी सुखी ऐसा शास्त्ररूढ है । इसका कारण यही है कि सुखकी प्राप्तिका समर्थ कारण धन नहीं है किंतु रागद्वेषका अभाव है । इसीलिये जबतक धनादिकके साथ रागद्वेष बडी तीव्रतासे लगरहा है तबतक न धनी ही सुखी होता है, न निर्धन ही । जब कि रागद्वेष हटगया हो तो रंचमात्र भी धन या दूसरा सुखसाधन न रखनेपर भी साधुजन असीम सुखी कहे जाते हैं, और संभव भी ऐसा ही है। इसका कारण:
परायत्तात् सुखाद् दुःखं स्वायत्तं केवलं वरम् ।
अन्यथा सुखिनामानः कथमासंस्तपस्विनः ॥६६।। १ ‘परमेकः सुखी सुखी ' यह पाठ भी है । ' सुखी' ऐसा नाम संन्यासीका है।