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आत्मानुशासन. ऊपर इधर उधरसे ढुलने बाली चौरियोंके वायुवेगसे कंपित होकर ही क्या वह लक्ष्मी मनुष्यों के देखते देखते दीप-शिखाके समान विलीन होगई । जब कि ऐसे यत्नसे रखते हुए राजाओंकी लक्ष्मी भी ठहर नं सकी तो छोटे-मोठे लोगोंके पास उसके रहजानेका क्या भरोसा है ?
राजाओंके दरवारमें जो प्रधान योद्धा होते हैं उनके शिरपर एक उत्तम बहुमूल्य वस्त्र बँधाया जाता है उसका अर्थ यही समझा जाता है कि अमुक पट्टधारी मनुष्य राजाके दरवारमें महापराक्रमी है, सेनाका नायक है, राज दरवारमें इसकी वीरताकी बडी प्रतिष्ठा है । पट्टबंधकी क्रियापरसे कविने कल्पना की है कि वह पट्ट राजलक्ष्मीको स्थिर राखनेकेलिये बंधाया जाता है । भावार्थ इतना ही है, कि बडे बडे पट्टधारी योद्धा जिसकी रक्षा करते हैं वह भी लक्ष्मी ठहरती नहीं है, कभी न कभी निकल ही जाती है । खजानोंमें इकट्ठी हुई लक्ष्मीको पहरेदार योद्धा संभालकर रखते ही हैं, दिनरात तलवारें लिये उसका पहरा देते ही रहते हैं, वह लक्ष्मी उनके हाथोंकी तलवारोंके कठोर पीजडोंमें रोक कर रकरवी जाती है तो भी चिरकालतक ठहरती नहीं है । जो कि पहले राजालोग होगये उनमेंसे किसीकी भी लक्ष्मी आजतक ठहरी नहीं दीखती । जिस शरीरमें राजलक्ष्मीका पट्ट बांधा जाता है वह शरीर कैसा है:
दीप्तोभयाग्रवातारिदारूदरगकीटवत् । जन्ममृत्युसमाश्लिष्टे शरीरे वत सीदास ॥ ६३ ॥
अर्थः-दोनो छोकोंपर जिसमें आग लग गई हो ऐसी पोली लकडीके बीचमें बैठा हुआ कीडा जिस तरह तल मल करता हुआ उसी जलकर मर जाता है, वहांसे निकल भी नहीं सकता है और कुछ बचनेका उपाय भी नहीं कर सकता है । अरे, उसी प्रकार तू भी जिस शरीरके प्रथम और पीछे जन्म-मरणरूप दुर्निवार आग लग रही है, अवश्य ही उस शरीरमें वेदना सहता है, जन्ममरणके कष्ट भोगता है और अनेक तरहके कष्ट बीचमें आनेपर भी वार वार तल-मल करता है ।