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हिंदी-भाव सहित ( सुख कहां है)।
अर्थः-दुःख संसारमें वहीं है कि जहां पराधीनता है और जहां कि स्वाधीनता है वहीं सुख है । अथवा पराधीनता, यही दुःख है और स्वाधीनता, यही सुख है। इंद्रियजनित जितने सुख हैं वे सव पराधीन हैं-विषयाधीन हैं इसलिये उन्हें, दुःख ही समझना चाहिये; क्योंकि, जब विषयको जोडना पडता है तब भी दुःख होता है और जब मिला हुआ विषय समाप्त हो जाता है तब भी दुःख होता है, बीच बीचमें भी बाधा आते रहनेसे सुखका भंग होता रहता है । दूसरी बात यह है कि विषयजन्य उतना सुख नहीं होपाता कि जितना चिंताजन्य दुःख सदा ही रहता है, और सुख तो कभी कभी होता है । इसीलिये जहां स्वाधीनतामें कायक्लेशादिरूप थोडासा दुःख भी दीखता हो तो भी वह दुःख स्वाधीनतारूप सुखके सामने कुछ नहीं है । एवं पराधीनतारूप महा दुःखके साथ थोडासा सुख भी यदि होता दीखता हो तो भी वह सुख उस पराधीनतारूप कष्टके सामने धूल है । यदि ऐसा न होता तो तपस्वी-जनोंको ही सुखी ऐसा नाम क्यों मिलता ? सुखी यह नाम तपस्वियोंका रूढी है, दूसरे किसीको जो सुखी कहा जाता है वह केवल विशेषण या उपचारकी अपेक्षासे कहा जाता है । तपस्वीके अतिरिक्त 'सुखी' ऐसा नाम शब्दशास्त्रों में किसीका भी नहीं है।
दो श्लोकोंसे परिचर्यार्थ साधुओंके गुण कहते हैं:यदेतत् स्वच्छन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं, सहायः संवासः श्रुतमुपशमैकश्रमफलम् । मनो मन्दस्यन्दं बहिरपि चिरायातिविमृशन् , न जाने कस्येयं परिणतिरुदारस्य तपसः ॥६७॥
अर्थः-मुनियोंकी महिमाका वर्णन करना अशक्य है । जिनका विहार सदा स्वच्छन्द और विषय कामनारहित है । संसारी जितने जीव हैं वे सब इंद्रियोंके पराधीन हैं, कभी गमन भी करते हैं तो केवल विषयसिद्धिके प्रयोजनके वश । साधुओंका भोजन दीनतारहित होता है।