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हिंदी -भाव सहित ( विषयोंग सुख नहीं )
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अंतमें तुझे उसीमें नष्ट होना पडता है । ये सब दुःख, शरीर के होने से ही भोगने पडते हैं । यदि शरीर न हो तो जन्म किसका और मरण किसका हो ? आत्मा तो अजर अमर है, केवल शरीरकर्मके उदयसे शरीर धारण करनेके लिये जो इधर उधर दौडना पडता है यही तो जन्ममरण है । जब कि शरीरकर्म ही न हो तो शरीर धारण करनेका कष्ट तथा शरीर मिलने पर बीच बीचके भूख, प्यास आदि अनेक कष्ट क्यों भोगने पडें ? तब तो यह आत्मा एक स्थानपर शांत होकर रहने लगे न ? इसलिये दुःखों का जो बीज है वह शरीर ही है । यह शरीर तबतक अवश्य मिलता ही रहेगा जबतक कि विद्यमान शरीरसे ममत्व नहीं छूटेगा । क्योंकि, ममत्व करनेसे नवीन कर्मबंध होता है और उस कर्मका यथासमय उदय होनेपर नवीन नवीन शरीरकी प्राप्ति होती रहती है । इसलिये उपदेश तेरे लिये यह है कि तू इस शरीर को अपना हित साधक मत समझ; इसको अहितकारी समझकर इससे प्रीति छोड जिससे. कि नवीन पापकर्मोंका बंध होना रुक जानेपर क्रमसे शरीरका संबंध छूट जाय ।
नेत्रादीश्वरचोदितः सकलुषो रूपादिविश्वाय किं, प्रेष्यः सीदसि कुत्सितव्यतिकरैरंहांस्यलं वृंहयन् नीत्वा तानि भुजिष्यतामकलुषो विश्वं विसृज्यात्पखा नात्मानं धिनु सत्सुखी धुतरजाः सद्वृत्तिभिनिः ॥
अर्थ :- अरे, तू नेत्रादि इंद्रियोंका तथा मनका दाख बन ग है । ये अपने अपने समस्त विषयोंके लिये जैसे तुझे प्रेरित करती हैं वैसे ही तू कलुषित होकर उन विषयोंको तलास करता हुआ भटकता है और खिन्न होता है । उन्हीं इंद्रियोंके वश होकर अनेक तरहके खोटे काम करके पापका संचय भी खूब करता है । परंतु फिर समय पाकर उसके फल तू ही जब भोगता है तब अपनेको दुःखी मानता है। इससे तू इन इंद्रियोंको वश कर । राग-द्वेषको दूर करके सर्व विषयों को छोड,