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आत्मानुशासन. है । अनादि कालसे लेकर आजतक तेरा इससे कभी क्षणभरके लिये भी छुटकारा नहीं हुआ। तो भी तूं इसके बंधनसे डरता नहीं है, यह आश्चर्यकी बात है । अथवा इससे जान पडता है कि तू पूरा अज्ञानी है, तुझे कुछ भी हिताहितकी समझ नहीं है। शरीरके समान ही घर कुटुंबादिक भी दुःखदायक हैं । देख:
शरणमशरणं वो बन्धवो बन्धमूलं, चिरपरिचितदारा द्वारमापद्गृहाणाम् । विपरिमृशत पुत्राः शत्रवः सर्वमेतत् , त्यजत भजत धर्म निर्मलं शर्मकामाः ॥ ६० ॥
अर्थः-शरण नाम घरका है परंतु वह तेरा असली शरण नहीं हो सकता, क्योंकि घरके भीतरसे भी जीवको मृत्यु छोडता नहीं है । बंधुजन भी सर्व पापकर्मका बंधन होनेके लिये कारण हैं, क्योंकि, बंधुजनोंके प्रेमवश होकर जीव अनेक कुकर्म करता है । जिसका चिरकालसे परिचय हो रहा है ऐसी अपनी स्त्रीको तू सुखका साधन समझता होगा परंतु उसे भी तू विपत्तियोंमें प्रवेश करानेका द्वार ही समझ । पुत्रोंको तू अपना सहायक समझता होगा परंतु वे जन्मसे ही माताका यौवन नष्ट करदेते हैं, बाल्यावस्थामें मातापिताको अनेक कष्ट देते हैं। उनके लालनकेलिये अनेक कुकर्म करके भी धन कमाया जाता है जिसे कि वे यों ही खोदेते हैं । दुष्ट होनेपर आगे वे मातापिताकी कीर्तिको मलिन करते हैं। बहुतसे कुपुत्र जीतेजी भी मातापिताको अनेक कष्ट देते हैं । इसलिये ये साक्षात् शत्रु हैं । इनसे बड़ा शत्रु और कौन होगा? इस प्रकार विचार करनेपर ये सभी चीजें दुःखके ही कारण जान पडती हैं । इसलिये जिन्हें सुखी बनना हो उन्हें चाहिये कि वे इन सभीका संबंध तोडकर एक निर्मल धर्मसे प्रीति करें ।
तत्कृत्यं किमिहेन्धनैरिव धनैराशाग्निसंधुक्षणैः, संबन्धेन किमङ्ग शश्वदशुभैः संबन्धिभिर्बन्धुभिः ।