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आत्मानुशासन.
व्यापारः समयं प्रति प्रकृतिभिगोडं स्वयं बन्धनम् । निद्राविश्रमणं मृतेः प्रतिभयं शश्वन्मृतिश्च ध्रवं, जन्मिन् जन्मानि ते तथापि रमसे तत्रैव चित्रं महत् ॥५८॥
अर्थः-शरीर जो कि सर्व दुःखोंका निदान है, उसके साथ तेरा अनादिकालसे लेकर नियत संबंध हो रहा है । एक छूटता है तो दूसरा आजुडता है, दूसरा छूटता है तो तीसरा आबँधता है । उससे आजतक तेरा कभी भी छुटकारा नहीं हुआ । उस शरीर के रहनेसे ही अशुभ जो पापकर्म हैं उनके परिपाकका फल तुझे सदा भोगना पडता है । यदि शरीर न हो तो सुख दुःखका अनुभव कौन करै ? असाता वेदनीयका उदय होनेपर जो अनेक तरह की आधि-व्याधियां आती हैं वे सब शरीर के होनेसे ही आती जान पडती हैं । शरीर न हो तो कांटा कहां चुभै ? फोडे, सीतला, ज्वर, खासी आदि रोग कहां हों ? कारागृह आदि के बंधन किसको हो ? वातपित्तके विकारसे उत्पन्न हुए क्षुधातृषादि रोग किसको हो? क्या ये सब दुःख शरीरके विना अमूर्त आत्माको हो सकते हैं? कभी नहीं, इसलिये सर्व दुःखोंके भोगनेका निदान शरीर है । शरीर के होनेसे मूर्तिमान् होजानेवाले जीवके प्रदेशोंमें निरंतर सर्व कर्मोंका गाढ बंधन होता है। यही यहां उद्योग है और वह निरंतर ही चलता रहता है। जबतक जीवके साथ शरीरका संबंध हैं तबतक कर्मबंधन कभी बँधनेसे रुकने बाला नहीं है । अत्यंत श्रम करके जब थकावट आजाती है तब विश्रामके लिये निद्रा लेकर अचेत पड जाता है , मरनेसे सदा डरता है तो भी मरण अवश्य आता ही है । अरे जीव तेरे जीवनमें ये सब व्यथाएं लग ही रही हैं परंतु तू तो भी उन शरीरादिकोंसे ही प्रीति करता है। विषयोंकों सुखसाधक समझकर निःशंक होकर उनमें रमता है । इनको दुःखके कारण समझता हुआ भी इनमें लीन होता है, यह बड़ा आश्चर्य है !