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आत्मानुशासन.
विषयसामग्री मिलनेपर भी सुखका अभाव दिखाते हैं:लब्धेन्धनो ज्वलत्यग्निः प्रशाम्यति निरन्धनः । ज्वलत्युभयथाप्युच्चैरहो माहाग्निरुत्कट : ||५६ || अर्थ :- मोहके वश जीवोंका शरीर सूख जाता है, मरण भी हो जाता है, और निरंतर मनमें रागद्वेषरूप दाह जाज्वल्यमान बना ही रहता है | इसलिये मोहको विवेकी साधुओंने एक तरहका अग्नि कहा है। परंतु यह अभिसे भी बढकर है । अग्नि तो ईंधनका संबंध जबतक रहता 1 है तभीतक जलता है - प्रदीप्त रहता है; ईंधन नहीं रहा कि बुझ जाता है, परंतु मोहामि तथा परिग्रह, विषयरूप ईंधन रहनेपर भी जाज्वल्यमान होता रहता है तथा वह ईंधन न रहते हुए भी अधिकाधिक प्रज्वलित होता है । जब कुछ थोडासा विषयभोग मिल जाता है तो फिर उससे अधिक की चाह होती है। उतना भी मिल जाता है तब उससे भी अधिक की तृष्णा बढती है | यहांतक कि चक्रवर्तीकी संपत्ति मिल जानेपर भी विषयासक्त कितने ही मनुष्योंको संतोष नहीं होता । वे चाहते हैं कि इससे भी अधिक जो कि जीवमात्रको असंभव हैं उनकी प्राप्ति हमें हो। ऐसे तीव्र विषयी जीव उसी आसक्तिमें मरतक जाते हैं । जिनके पास कि विषयभोग हैं ही नहीं उनकी दुःखित स्थिति तो जग जाहिर है। दूसरी बात यों भी हैं कि जो धनवान् हैं वे धनके रक्षण में निरंतर दुःखी बने रहते हैं; उन्हें सदा धनकी सब तरहसे रक्षा करनेमें ही दिनरात बिताना पडता है। चोर, डाकू, ईत, भीत, राजा, भागीदार बंधु, अग्नि, अडोसी पडोसी आदि सभी धनके भक्षकोंसे उन्हें रक्षा करनी पडती है । जो कि निर्धन हैं वे धन नया कमाने में सदा व्य
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बने रहते हैं; उन्हें पेट भरने तक की चिन्ता सल्यकी तरह सदा चुभा करती है | किसीने ठीक कहा है " धन हि विना निर्धन दुखी तृष्णावश धनवान् । कोई सुखी न जगतमें सब जग देखा छान " ।
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