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हिंदी-भाव सहित ( विषयोंमें सुख नहीं )। ३३ निकालना चाहता हूं । अथवा विष खाकर चिरकाल जीवित रहना चाहता हूं। तू यह नहीं समझता है कि आशारूप पिशाचके निग्रह करनेपर ही पुण्यबंधके होनेसे मुझै सुख शांति मिल सकेगी । धर्मकी प्राप्तिका एकमात्र उपाय, उत्कट तृष्णाको त्याग कर संतोष धारण करना ही है । इससे धर्म तो होता ही है, किंतु सुखका अनुभव साक्षात् ही होता दीखता है । इसलिये सुख यदि होगा तो साक्षात् तथा परंपरया संतोषसे ही होगा।
आशाहुताशनग्रस्तवस्तूच्चैवंशजां जनाः । हा किलत्य सुखच्छायां दुःखधर्मापनोदिनः ॥ ४३ ॥
अर्थः-जैसे कोई मनुष्य सूर्यके संतापसे दुःखी होकर जलते हुए वांसोंकी छायामें जाकर यदि बैठे तो वह कभी सुखी नहीं होगा, उलटा पीडित ही होगा; क्योंकि, एक तो कांसकी छाया बहुत ही कम, दूसरें, आपसमें घिसनेसे वे स्वयं जलने लगते हैं । इसीलिये संताप दूर होना तो दूर ही रहा, उलटा उससे अधिक संताप होगा । सुखाभिलाषाके वश यदि वह मनुष्य तो भी बहुत समय तक वहां बैठा ही रहा तो कदाचित् खुद जलकर भी मर जायगा। इसी प्रकार आशा तो अमिके समान है, उस आशामिसे व्यापे हुए उसके विषयभूत जो भोग-साधक पदार्थ हैं वे वांसोंके तुल्य हैं, दुःख सूर्यसंतापके तुल्य है । एवं छायाके भी दो अर्थ होते हैं, एक तो प्रकाशके रुकनेसे जो पडछांही पडती है वह, और दूसरा अर्थ अल्प या लेशमात्र । इसलिये दृष्टांतसे मिला-जुला यह अर्थ हुआ कि, देखो, दुःखरूप संतापसे पीडित हुए मनुष्य, आशारूप अमिसे व्यापे हुए भोगसंबंधी जो पदार्थरूप ऊंचे वांस, उनसे उत्पन्न हुई जो छाया अर्थात् अल्पसुख, उसमें जाकर बैठना चाहते हैं और उससे विषय -वांछारूप दुःखको दूर करना चाहते हैं! यह कितना बड़ा अज्ञान है ? एक तो तीनो लोककी वस्तु इकट्ठी होकर भी आशाकी पूर्ति के लिये वस नहीं होंगी। दूसरी बात यह कि, वस्तुओंके भोगनेसे आशा और भी अ