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आत्मानुशासन.
चाहिये, न कि धर्मका ध्वंस करके । जैसे किसानको जो धान्य मिलता है वह बीज बोनेसे मिलता है इसलिये वह बीजको आगेके लिये भी संभालकर रखता है, [ जिससे कि एकवार उत्पन्न हुआ धान्य भोगलेनेपर भी आगे धान्यकी उपज होती रहै ] । कल्पवृक्ष तथा चिंतामणि रत्नसे भी धर्मकी अधिक उत्कृष्टताः
मंकल्प्यं कल्पवृक्षस्य चिन्यं चिन्तामणेरपि । .. असंकल्प्यमसंचिन्त्यं फलं धर्मादवाप्यते ॥ २२ ॥
अर्थः--कल्पवृक्षसे फलकी प्राप्ति, प्रार्थना [ संकल्प ] करनेसे होती है, और वह भी, जितनी शब्दद्वारा कही जासकती है उतनी ही होती है। चिंतामणि रत्नके द्वारा भी जो फल प्राप्त होता है वह मानसिक चितवन करनेपर ही होता है, और वह भी, मनके विचार करनेसे अधिक नहीं । परंतु धर्मके द्वारा विना याचना किये, विना चिंतवन किये ही फल प्राप्त होता है, और वह भी ऐसा कि जिसका प्रमाण वचनके तथा चितवनके अगोचर हो । अर्थात् वह इतना बडा फल मिलता है कि जिसे हम वचनसे कह नहीं सकते हैं और मनसे जिसका अंदाज करना भी कठिन है।
. ऐसे धर्मका उत्पत्ति किससे होसकती है? परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः ।
तस्मात पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः ॥ २३ ॥ · अर्यः -- सुपरीक्षक लोग पुण्य पापका कारण परिणामको ही मानते हैं । जब कि पुण्यका या पापका संचय करना अथवा न करना यह हमारे परिणामके आधीन है तो हमारे ही आश्रित है। और जब कि ऐसा है तो सुखसाधनभूत पुण्यका संचय, पुण्यकी वृद्धि तथा पापबंधका निरोध, पूर्वसंचित पापका हास अवश्य करना चाहिये; क्योंकि अपने आधीन होनेसे ऐसा करलेना बहुत ही सुगम है ।