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आत्मानुशासन. कोई प्रवृत्ति निरंतर होती ही रहती है । इसलिये यदि जीव सावधान होकर अपनी प्रवृत्तियों को अनुकूल प्रवर्तानेका प्रयत्न रक्खै तो जीवको निरंतर सहज ही धर्म संचित हो सकता है। ऐसे खाधीन और सर्वदा सहज ही संचित होसकनेवाले धर्मको कोन बुद्धिमान संचित करना न चाहेंगा ? भावार्थ--पुण्यपापका संचय अपनी प्रवृत्ती के अधीन होनेसे भोग भोगते हुए भी हम सावधान रहैं, तो धर्मका साधन करसकते हैं।
और इसीलिये धर्मका रक्षण तथा उपार्जन करते हुए भी भोग भोगना कठिन नहीं है । इस प्रकार धर्म तथा विषयसेवन ये दोनो एक साथ भी होसकते हैं।
धर्मवासनाका फल:धर्मो वसेन्मनसि यावदलं सतावद्धन्ता न हन्तुरपि पश्य गतेथ तस्मिन् । दृष्टा परस्परहतिर्जनकात्मजानां रक्षा ततोस्य जगतः खलु
धर्म एव ॥ २६॥ अर्थ:-जबतक जीवोंके हृदयमें धर्मवासनाका पूरा वास रहता है तबतक वे जीव अपने घातक (सर्पादि ) का भी प्रतिघात करना अनुचित समझते हैं । परंतु देखो, जब हृदयसे धर्मवासना निकल जाती है; अथवा होती ही नहीं तो, पिता पुत्रोंमें भी परस्पर एक दूसरेका घात करडालते हैं। इसलिये यह निश्चय करना चाहिये कि जीवोंकी रक्षा एकमात्र धर्मके ही रहनेसे होसकती है । धर्मके अतिरिक्त प्राणीका कोई भी रक्षक नहीं है । इसलिये धर्मका संचय सभीको करना अवश्य है। विषयसेवन पापका कारण है तो भी उसके साथ साथ
धर्म संचित करनेका मार्ग दिखाते हैं:न सुखानुभवात् पापं पापं तद्धेतुघातकारम्भात् । नाजीण मिष्टान्नान्ननु तन्मात्राद्यतिक्रमणात् ॥ २७॥
अर्थः-पूर्व पुण्योदयसे मिले हुए विषयसुख भोगने मात्रसे पापबंध नहीं होता । तो? पुण्यबंधके कारण जो मंद कषाय, संतोष तथा