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हिंदी -भाव सहित ( धर्मसंग्रहकी सुगमता ) । १९
अहिंसादि परिणाम, उनको नष्ट कर तीव्र कषाय, प्राप्त विषयोंमें असंतोष, अप्राप्त विषयों के प्राप्त होनेके लिये अत्यंत तृष्णा तथा असीम अन्यायादिरूप प्रयत्न आरंभ करना तथा जीवघात करना, इत्यादि कारणोंसे पापकर्मका बंध अवश्य होता है। जैसे मिठाई खालेने मात्र से अजीर्ण नहीं होजाता, किंतु खानकी कुछ मर्यादा ही यदि रक्खी नजान तो अवश्य अजीर्ण होना संभव है ।
भावार्थ- पूर्वोक्त सुख, जो कि संसारसे छुटकारा मिलनेपर ही rtant प्राप्त होसकता है; वह तो इस गृहस्थ आश्रम में रहकर विषय सेवन करते हुए साक्षात् कभी प्राप्त हो नहीं सकता । उसका कारण एक मात्र सर्व पापारंभ रहित जैनेश्वरी मुनिदीक्षा ही है। परंतु ऐसा भी न समझना चाहिये कि जबतक किसी जीवसे सर्वथा विषयासक्ति छूटकर नष्ट न हो जाय और मुनिधर्मका धारण न होसकै तबतक उसके लिये धर्म साधनेका दूसरा कोई उपाय ही नहीं है । क्योंकि पापका कारण कषायोंकी तीव्रता है और पुण्यका कारण कषायोंकी मंदता है । वह कषायोंकी मंदता गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी जीव चाहें पूर्ण न करसकता हो परंतु कुछ कुछ तो भी करसकता है । वस, गृहस्थी में जितनी कषायमात्रा घटेगी उतना पुण्यकर्मका संचय वहां भी होगा । जैसा कि पहले कह चुके हैं " परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः” । अव यह देखना चाहिये कि पापका कारण जो कषायोंकी तीव्रता वह कैसे होती है और पुण्यका कारण जो कषायोंकी मंदता वह कैसे होसकती है ? जो सहज प्राप्त हुए विषयसंबंधी इष्टानिष्ट पदार्थ, उनके संबंधानुसार अनुद्विग्न रहकर भोग भोगना, अप्राप्त इष्टानिष्ट विषयोंकी तरफ उत्कट राग द्वेष न रखना, अन्याय, लोक या राज्यके विरुद्ध प्रवर्तनेका साहस न करना और जैन मार्गकोही परमार्थ कल्याणकारी समझना इत्यादि, मंद कषायके भेद हैं। ऐसा होने से इंद्रियविषयका भोक्ता भी धर्मका संचय करसकता है। इससे उलटी प्रवृत्ति रखनेसे