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आत्मानुशासन.
अर्थ:-- जिसका मंत्री बृहस्पति, प्रधान शस्त्र वज्रः, सेना देवताओंकी, स्वर्ग किला, हरीकी जिसपर पूर्ण कृपा, जिसका वाहन ऐरावण हस्ती, इंद्रे ऐसे आश्चर्यकारी असाधारण रक्षाके उपाय से युक्त था तो भी प्रतिपक्षी वणादि राक्षसों द्वा पराजित होगया । इसलिये यह बात खुलासा हुई कि जीवको असली शरण दैवका ही होसकता है । केवल पौरुष के भरोसे पर गर्व करना व्यर्थ है, ऐसे पौरुषको धिक्कार हो ।
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सारांश यह है कि इच्छानुसार प्रयत्नपूर्वक सिद्ध हुए कार्यों को पुरुषार्थजन्य मानना चाहिये और इच्छासे तथा प्रयत्नसे विरुद्ध सिद्ध होनेवाले कार्यों को दैवाधीन मानना चाहिये । परंतु कारण प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिकेलिये दोनो ही लगते हैं। हां जहां एक मुख्य होता है वहां दूसरा गौण होता है, परंतु जरूरत गौणकी भी लगती हैं । नहीं तो वह गौण भी क्यों माना जाता है ? गौण माना जाता है लिये वह उदासीन या कमजो है परंतु तो भी कारण अवश्य है दैवको जो प्रधान माना जाता है उसका अभिप्राय एक तो यह है कि संसारी जीव अपनी इच्छानुसार सदा इष्टसिद्धि नहीं करपाता इसलिये एक परोक्ष कारण दैव भी मानना पडता है । दूसरा अभिप्राय यह कि, आगामी भव सुधारने केलिये दैव माननेबालेकी ही अच्छी प्रवृत्ति हो सकती है, नहीं तो नहीं। इसलिये दैवपर दृष्टि रहना बहुत जरूरी है। किसीकी समझ होगी कि दैवपर दैवपर भरोसा रखकर
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( १ ) : - यह इंद्र जैनशास्त्रानुसार वह होसकता है कि जिसने विद्याधर होकर इंद्रकीसी अपनी सर्व चेष्टा बनारक्खी थी और वह रावण के द्वारा अंतमें पराजित हुआ । हिंदू धर्म के पुराणोंमें यों लिखा है कि स्वर्गका इंद्र ही दैत्य, राक्षसोंके साथ लडकर एक वार परास्त हुआ है | परंतु यह कथा बुद्विमानोंको विचार करने योगय है, क्योंकि, देव और मनुष्योंका क्या जोड? देवोंके सामने मनुष्योंकी शक्ति अत्यंत तुच्छ है । रावणादिक भी अंतको मनुष्य ही तो थे ।
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