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हिंदी-भाव सहित ( साधुओंकी विरलता)। २५ उपवास, ध्यान, घोर तपश्चर्या आदि धर्म कार्यों में प्रवृत्ति करने बाले मनुष्य पहले ही थे, अब नहीं हैं। परंतु इस समझको दूर करते हैं:
भर्तारः कुलपर्वता इव भुवो मोहं विहाय स्वयं, रत्नानां निधयः पयोधय इव व्यावृत्तवित्तस्पृहाः। स्पृष्टाः कैरपि नो नभोविभुतया विश्वस्य विश्रान्तये,
सन्त्यद्यापि चिरन्तनान्तिकचराः सन्तः कियन्तोप्यमी॥३३॥ अर्थः-जैसे कुलाचल=हिमवान् आदि पर्वत भरतक्षेत्रादि भूमियोंका विभाग करते हुए उन भूमियोंके रक्षक हैं--स्वामी हैं, तो भी उन भूमियोंके साथ कुछ मोहित नहीं होते हैं, इसी प्रकार जो जगका उद्धार करते हुए भी स्वयं जगमें फसे हुए नहीं हैं। जैसे समुद्र रत्नोंकी खानि होकर भी उनसे सर्वथा निर्लोभ रहता हैं इसी प्रकार जो रत्नतुल्य अनेक सद्गुणोंकी खानि होकर भी ध(उ)नसे अत्यंत निस्पृह रहते हैं। आकाश जिस प्रकार सव जगह पसरा हुआ होकर भी किसीसे लिप्त नहीं होता, पर सभी जगत्को विश्रांति देता है और क्लेश दूर करता है। इसी प्रकार जो ज्ञानादि अनेक गुणोंके द्वारा सर्व 'जगभर में व्यापक हैं और इसीलिये जगको सदुपदेश द्वारा विश्रांन्ति देनेवाले हैं, तो भी जगसे सर्वथा अलिप्त रहने बाले हैं। ऐसे चिरंतन मुनियोंके शिष्य कितने ही संत पुरुष आजकाल भी विद्यमान हैं जब कि, ऐसे पुरुषोंकी अत्यंत विरलता हो रही है। .
जिस समय यह ग्रंथ बनाया गया था उस समय भी श्रेष्ठ साधुओंकी बहुत कुछ विरलता होचुकी थी। इसीलिये उत्कृष्ट चारित्रका जो वर्णन है वह वर्णनमात्र ही दीखता था । और यह शंका होना उस समय सहज था कि ऐसा उत्कृष्ट वर्णन वर्णनमात्र ही है। ऐसे उत्कृष्ट चारित्रका धारक कोई हो नहीं सकता। इस शंकाके निरासार्थ यह उत्तररूप श्लोक लिखा गया है।