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आत्मानुशासन.
सेवनसे जो तुझे मोह उत्पन्न होकर पदार्थों में इष्टानिष्ट माननेकी टेव, जो कि, दुःसह दाहजनक है, उत्पन्न होगई है और वीतरागादिस्वरूप आत्मसंबंधी स्वाभाविक शक्ति घट गई है इसलिये उसके शमनार्थ, धारणकरने योग्य ऐसी अणुव्रतरूप प्रथम देने योग्य औषधि हम बताते हैं, वहीं तेरेलिये इस समय अनुकूल होगी । अर्थात् , जबतक वीतरागादि खभावरूप निजशक्ति बढ नहीं चुकी हो तबतक कठिन महाव्रतादिरूप औषधि देना उचित नहीं है किंतु अणु चारित्ररूप सह्य औषधि देना ही समयोचित है । तदनंतर आत्मीय शक्ति बढ जानेपर महाचारित्ररूप औषधिका सेवन कराना भी अनुकूल होसकेगा।
सदा ही धर्मकी आवश्यकताःमुखितस्य दुःखितस्य च, संसारे धर्म एव तव कार्यः । सुखितस्य तदभिवृद्धयै दुःखभुजस्तदपघाताय ।। १८ ॥
अर्थ:---संसारमें रहते हुए तुझै सुखकी अवस्था में भी धर्म का आश्रय लेना चाहिये और दुःखी रहनेपर भी धर्मका आश्रय लेना चाहिये । यदि पहलेसे ही तू सुखी होगा तो उस तेरे सुखमें बढवारी होगी और यदि तू दुःखित होगा तो उस दुःखका इस धर्मके धारनेसे नाश होजायगा । अर्थात् , चाहे कोई जीव कभी सुखी हो या दुःखी, परंतु दोनो ही अवस्थाओंमें धर्म धारण करनेकी जीवमात्रको आवश्यकता है । जैसे ऋणी मनुष्य यदि धन कमावेगा तो वह उस धनसे ऋणमुक्त होजायगा किंतु जिसके पास धन बहुतसा है तथा ऋण कुछ भी जिसको देना नहीं है वह भी यदि धन कमावेगा तो उसकी संपतिमें वढवारी होगी । इसलिये धन कमाना किसीकेलिये भी अनिष्ट नहीं होसकता । इसी प्रकार दुःखकी अवस्थामें जीव यदि धर्म सेवन करै तो उसके उस दुःखका क्रमक्रमसे नाश, होसकता है । यदि पहलेका सुखी जीव धर्मका आराधन करै तो उसके उस पूर्वसंचित पुण्य कर्मके रसमें वृद्धि होनेसे वर्तमान सुखमें वृद्धि हो सकती है तथा