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आत्मानुशासन. हो उसको जो पदार्थोंमें श्रद्धान उत्पन्न होता है वह बहुत गाढ होता है इसलिये उसे अवगाढ सम्यक्त्व कहते हैं। केवलज्ञानके द्वारा जाने हुए पदार्थोंमें जो अत्यंत दृढ श्रद्धा उत्पन्न हो उसे परमावगाढ सम्यक्त्व कहते हैं।
सम्यक्त्वको सबसे प्रथम कहनेका हेतुःशमबोधवृत्ततपसां, पाषाणस्येव गौरवं पुंसः। पूज्यं महामणेरिव तदेव सम्यक्त्वसंयुक्तम् ॥ १५ ॥
अर्थः-आत्मामें कषायोंकी मंदता होनेसे जो उद्वेग मंद होजाता है वह उपशम है । शास्त्राभ्यास करनेसे उत्पन्न हुआ जो पदार्थज्ञान वह बोध है । पापमय निंद्य क्रियाका छोडना चारित्र है । उपवास तथा कायक्लेशादिकोंको तप समझना चाहिये । ये चारो ही बातें किसी जीवमें जबतक सम्यक्त्व-रहित केवल हों तबतक इन चारोंका महत्त्व एक साधारण पत्थरके बराबर है कि, जो एक स्थानपर उद्वेगरहित पडारहता है इस कारण शमयुक्त कहा जासकता है; दूसरे लोगोंको लगनेपर बोधित करनेवाला होनेसे बोधयुक्त है; वृत्त अर्थात् वर्तुलाकारको धारण करनेवाला है; शीतोष्ण आदि दुःख सहते हुए भी उसमें कष्ट नहीं होता इसलिये तप भी करनेवाला कहा जा सकता है। इन्हीं शमादिक चारोंका मूल्य उस मनुष्यमें कि जो सम्यक्त्व-सहित हो, एक उत्कृष्ट रत्नके समान हो जाता है। _अर्थात् शम, बोध, वृत्त, तप ये चारो गुण रत्न, और पाषाण दोनोमें बराबर ही हैं, तो भी रत्नमें एक अपूर्व कांतिके ही अधिक होनेसे रत्नका आदर अधिक होता है, जहां कि, पाषाणको कोई पूछता भी नहीं है। इसी प्रकार शम, बोध, वृत्त, तप ये चारो रहनेपर भी मनुष्य आदरणीय नहीं होपाता, और एक सम्यग्दर्शन गुणके होजानेपर मनुष्य लोकपूजित बन जाता है । यही कारण है कि चारो आराधनाओंमें सम्यक्त्व को सबसे प्रथम गिनाया है ।