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आत्मानुशासन सदा संवेग आदि चारित्रके अंग बढानेका यह सम्यग्दर्शन कारण मानागया है; तथा संवेग रखनेसे सम्यग्दर्शन बढता भी है। (और नवीन भी कभी कभी उत्पन्न होता है ) । इस सम्यग्दर्शनके होनेसे क्रमानुसार संसारदुःखोंका उच्छेद होता है । मति, श्रुति, अवधि ये तीनो ही मिथ्याज्ञान सम्यग्दर्शनके होनेसे निर्मल समीचीन ज्ञान होजात हैं । पुण्यपापको जुदा माननेसे नौ, और जुदा न माननेसे सात जो जीवादि तत्व, उनका सच्चा श्रद्धान करानेवाला है । ऐसा यह सम्यग्दर्शन अविनाशी मोक्षरूप महलपर चढनेवाले बुद्धिमान् कल्याणेच्छुक जनों के लिये पहली सीढी है।
सम्यक्त्वके दश भेदःआज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात् सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाभ्यां भवमवपरमावादिगाढे च ॥ ११ ॥
अर्थः सम्यग्दर्शनके आज्ञासम्यग्दर्शन, मार्गसम्यग्दर्शन, उपदेशसम्यग्दर्शन, सूत्रसम्यग्दर्शन, बीजसम्यग्दर्शन, संक्षेपसम्यग्दर्शन, विस्तारसम्यग्दर्शन, अर्थसम्यग्दर्शन, अवगाढसम्यग्दर्शन और परमावगाढ सम्यग्दर्शन ये दश भेद हैं। ये भेद कुछ तो उत्पत्तीके निमित्तभेदसे हुए हैं और कुछ खरूपमें हीनाधिकता होनेके कारण हुए हैं।
सम्यक्त्वके १० भेदोंका अर्थ :आज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाज्ञयैव, त्यक्तग्रन्थप्रपञ्चं शिवममृतपथं श्रद्दधन्मोहशान्तेः । मार्गश्रद्धानमाहुः पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता, या संज्ञानागमाब्धिप्रसृतिभिरुपदेशादिरादशि दृष्टिः॥१२॥
अर्थः-शास्त्राध्ययनके विना ही, केवल वीतराग देवकी आज्ञा मानकर तत्वोंपर जो कुछ रुचि उत्पन्न हो वह आज्ञासम्यक्त्व है । सम्यक्त्वघातक मोहकर्मकी शांति होजानेसे, शास्त्राभ्यासके बिना ही