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आत्मानुशासन. नहीं बन सकता है, क्योंकि क्षुदादिके वश हुआ मनुष्य भी अपने प्रयोजनार्थ चाहें जो कुछ सीधा उलटा संभाषण करता हुआ दीख पडता है । इसलिये ये सभी दोष आप्त होनेके घातक हैं । इस प्रकार अनुक्रमसे देखनेपर प्रतीत होगा कि सर्वज्ञ आप्त भगवान् ही सब सुखोंकी उत्पत्ति होनेमें निदान है । जब कि आप्तके विना सुखप्राप्ति होना कठिन है तो सभीको यह चाहिये कि, आप्तकी खोज और परीक्षा करें और परीक्षा हो जानेपर उस सच्चे आप्तका वचन स्वीकार करें।
विद्वानोंने जिसको सच्चा आप्त माना है उसने चार आराधनाओंका वर्णन किया है । उन चारोंके आराधन करनेसे जीवका कल्याण होसकता है । उनमेंसे प्रथम आराधनाको पहले दिखाते हैं:-- श्रद्धानं द्विविधं त्रिधा दशविधं मौढ्याद्यपोढं सदा,
संवेगादिविवार्धतं भवहरं त्र्यज्ञानशुद्धिप्रदम् । निश्चिन्वन् नवसप्ततत्त्वमचलप्रासादमारोहतां, सोपानं प्रथमं विनेयविदुषामाद्येयमाराधना ॥ १० ॥
अर्थः-पहली आराधना सम्यग्दर्शन है । सच्चे आत्मश्रद्धानको तथा तत्वश्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं । आगे कहे हुए सम्यक्त्वके फलको ध्यानमें रखकर इस सम्यक्त्वको अपना हितकारी मानते हुए इसका आश्रय करना चाहिये, धारण करनेका प्रयत्न करना चाहिये। .. सम्यक्त्व दो प्रकारका है:-- निसर्गज और आधिगमज । बाहिरी उपदेशादिक कारणोंके साक्षात् न मिलते हुए जो पहले संस्कारकी मुख्यतासे उत्पन्न हो, वह निसर्गज सम्यक्त्व है; और गुरुका उपदेश केवलीका दर्शन इत्यादि बाहिरी कारण मिलनेसे जो उत्पन्न हो वह अधिगमज है। यही सम्यग्दर्शन अपने घातक कर्मके उपशम क्षय क्षयोपशमको निमित्त पाकर उत्पन्न होता है इसलिये इसके औ