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हिंदी-भाव सहित ( सम्यक्त्व )। पशामिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक ऐसे तीन भेद भी मानेगये हैं । आगे इसके दश भेद भी कहनेवाले हैं । सम्यग्दर्शनके लोकमूढता आदि जो पच्चीस दोष माने गये हैं उनसे वह रहित होना चाहिये ।
१- मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥ १ ॥
(१) लोकमूढताः-शास्त्रकी मर्यादाका तथा अपने हानि लाभका विचार न करके अज्ञान मनुष्योंकी देखादेखी कार्य करना । (२ ) समयमूढताः- जगमें अनेक प्रकारके शास्त्र तथा धर्म प्रचलित हैं, उनकी परीक्षा न करके देखादेखी किसीएक शास्त्र या धर्मको अच्छा मानने लगना । ( ३ ) देवमूढताः-- अनेक प्रकारके देवी देव झूठे साचे कल्पित करके लोगोंने जो मान रक्खे हैं, उनको स्थापित कर रक्खा है, उनकी परीक्षा न कर, उनका बुरा भला वरूप न विचार कर यों ही उनमेंसे किसीको मानने लगना। (४-९) छह अधर्मपोषक स्थान जिनको कि अनायतन कहते हैं । (१०) शंका, (११) कांक्षा, ( १२ ) विचिकित्सा, १३ मिथ्यागुणबालोंकी प्रशंसा, १४ धर्मके दोष प्रगट करना=अनुपगृहन, (१५) धर्मसे चलायमानको धर्ममें स्थित करने की इच्छा न करना=अस्थितिकरण, (१६) साधर्मी जीवोंके साथ परस्पर प्रेमपूर्वक न रहना=अवात्सल्य, । १७) जैन मार्गका ज्ञान चारित्रादि गुणों के द्वारा महत्व प्रगट न करना=अप्रभावना, ( १८) अपनी जाति लोकप्रतिष्ठित होनेके कारण उसका गर्व करना=जादिमद, (१९) कुलमद, (२०) अपनेको कुछ ज्ञान प्राप्त हो तो उसका मद-ज्ञानमद, (२१) लोकमें अपना जो कुछ सत्कार होता हो उसका मद-पूजामद, (२२) बलमद, ( २३ ) ऋद्धिमद, (२४ ) तपोमद, (२५) शरीरकी सुंदरता का मद शरीरमद । ऐसे ये सम्यक्त्वसंबंधी २५ दोष हैं जिनसे कि सम्यक्त्व मलिन भी होता है और कभी कभी इन दोषोंका अधिक जोर होनेपर नष्ट भी हो जाता है ।