Book Title: Panchamrut
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचामृत Education Inte देवेन्द्र मुनि शास्त्री ww raine bay. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चामृत लेखक उपाध्याय राजस्थानकेसरी अध्यात्मयोर्ग श्री पुष्कर मुनि जी म० के सुशिष्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री प्रकाशक श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राज.) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थमाला : पुष्प ११६ अध्यात्मयोगी उपाध्याय राजस्थानकेसरी श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के दीक्षा - स्वर्णजयन्ती समायोजन के पुनीत उपलक्ष्य में प्रकाशित [] पुस्तक : पञ्चामृत लेखक : देवेन्द्रमुनि शास्त्री विषय : जीवन प्रेरक कथाएँ [ प्रथम प्रवेश : सन् १६७६ सितम्बर भाद्रपद वि० सं० २०३६ प्रकाशक : जैन ग्रन्थालय श्री तारक गुरु शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राजस्थान ) पिन- ३१३००१ D मूल्य : तीन रुपये सिर्फ मुद्रक : जैन इलैक्ट्रिक प्रेस, हाग का मण्डा, आगरा-३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिन्होंने मुझे समय-समय पर उपदेश प्रधान मधुर कथाएँ सुनाकर मेरे जीवन का नव-निर्माण किया। जिनका पवित्र उपदेश मेरे लिए वरदान रहा, उन्हीं परम श्रद्धया मातेश्वरी महासती प्रतिमामूति श्री प्रभावती जी महाराज के पवित्र कर कमलों में Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय __ साहित्य की सर्वमान्य परिभाषा----"हितेन सहितं साहित्यं" के अनुसार जो हित से, कल्याण व उत्थान की भावना से युक्त है, वही साहित्य है। हमारे ग्रन्थालय ने मानव मात्र के हित एवं कल्याण की भावना से दर्शन, इतिहास, चरित्र, काव्य तथा कथासाहित्य आदि विविध विधाओं में अब तक लगभग ११० से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन किया है। सभी पुस्तकें जनता के लिए उपयोगी व लाभदायी सिद्ध हुई हैं । पिछले तीन वर्ष मे जन कथा साहित्य की लगभग ६० से अधिक पुस्तकें पाठकों की सेवा में हमने भेंट की। इसी के साथ कुछ पाठकों की माँग आयी कि विश्व साहित्य की ऐसी हजारों कहानियाँ, संस्मरण-घटनाएँ भी बड़ी रोचक व शिक्षाप्रद हैं, जो जैन कथा साहित्य के उद्देश्य के निकट ही नहीं, बल्कि पूरक भी हैं । ऐसी कहानियाँ भी संकलित कर प्रकाशित की जायें तो उपयोगी होंगी। समर्थ साहित्यकार श्री देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री ने पाठकों . व जिज्ञासुओं की इस भावना को लक्ष्य में रखकर सैकड़ों लघु कथाओं का चयन किया है। जिन्हें हम स्वतन्त्र रूप में पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। -मन्त्री Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की कलम से .. - साहित्य जीवन का अभिनव आलोक है । वह भूलेभटके जीवन-साथियों के लिए सच्चा पथ-प्रदर्शक है । मुझे दार्शनिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक साहित्य के प्रति जितनी रुचि रही है, उसी प्रकार कथा व रूपक साहित्य के प्रति भी रुचि रही है। जब कभी भी अनुसन्धानपरक शोधप्रधान साहित्य लिखते समय मुझे थकान का अनुभव होता है तो उस समय मैं कथा-साहित्य लिखता हूँ या पढ़ता हूँ जिससे थकान मिटकर नई ताजगी का अनुभव होता है। दक्षिण भारत की विहार यात्रा करते समय पैर ही नहीं, मस्तिष्क भी थकान का अनुभव करता रहा। प्रतिदिन की विहार यात्रा में मैंने कथा-साहित्य लिखने का निश्चय किया। मेरा यह प्रयोग बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ। जैन-कथाएँ के सम्पादन के अतिरिक्त अन्य अनेक कथाओं की पुस्तक भी लिख गया जो पाठकों के समक्ष हैं। ___ कथा-साहित्य के अनुशीलन-परिशीलन से मेरे अन्तमानस में ये विचार सुदृढ़ हो चुके हैं कि मानव के व्यक्तित्व और कृतित्व के विकास के लिए, उसके पवित्र-चरित्र के निर्माण के लिए कथा-साहित्य अत्यन्त उपयोगी है । कथासाहित्य की सुमधुर शैली मानव के अन्तर्मानस को सहज रूप से प्रभावित करती है, प्रभावित ही नहीं करतो, पर बाद ___ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में उसके मानस पर ऐसी अमिट छाप छोड़ देती है जो वर्षों तक अपना असर दिखाती है। यह एक ज्वलंत सत्य है कि यदि उत्तम व श्रेष्ठ कथा साहित्य पढ़ने को दिया तो उसके मन में उत्तम संस्कार अंकित होते हैं। यदि बाजारु घासलेटी-साहित्य पढ़ा गया तो उससे बुरे संस्कार अपना असर दिखाते हैं। मुझे लिखते हुए हार्दिक खेद होता है कि आधुनिक उपन्यास व कहानी, जिसमें रहस्यरोमांस, मारधाड़ और अपराधी मनोवृत्तियों का नग्न चित्रण हो रहा है, वह भारत की भावी पीढ़ी को किस गहन अन्धकार के महागर्त में धकेलेगा यह कहा नहीं जा सकता। आज किशोर, युवक और युवतियों में उस घासलेटी सस्ते साहित्य पढ़ने के कारण उनके अन्तर्मानस को वासना के काले नाग फन फैलाकर डस रहे हैं, जिनका जहर उन्हें बुरी तरह से परेशान कर रहा है । उनका मेरी दृष्टि से उस जहर की उपशान्ति का एक उपाय है और वह है उन युवक और युवतियाँ को घासलेटी साहित्य के स्थान पर स्वस्थ-मनोरंजक श्रेष्ठ साहित्य दिया जाय । प्राचीन ऋषि-महर्षि मुनि व साहित्यमनीषी उत्तम साहित्य के निर्माण हेतु अपना जीवन खपा कर श्रेष्ठतम साहित्य देते रहे हैं । मेरा भी वह लक्ष्य है। मैं भी कथा-रूपक व उत्तम उपन्यास के माध्यम से जन-जन के मन में संयम और सदाचार की प्रतिष्ठा करना चाहता हूँ । न्यायनीति, सभ्यता, संस्कृति का विकास करना चाहता हूँ। मेरा यह स्पष्ट मत है कि साहित्य, साहित्य के लिए नहीं अपितु जीवन के लिए है। जो साहित्य जीवनोत्थान की पवित्र Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरणा नहीं देता वह साहित्य नहीं है वह तो एक प्रकार का कूड़ा-कचरा है । मैंने पूर्व भी इस दृष्टि से कथा-साहित्य की विधा में अनेक पुस्तकें लिखी थीं और ये पुस्तकें भी इसी दृष्टि से लिखी गई हैं। अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के प्रेरणा स्रोत, मेरे गुरुदेव अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के असीम उपकार को मैं ससीम शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। श्री रमेश मुनि जी, श्री राजेन्द्र मुनि जी और श्री दिनेश जी प्रभृति मुनिवृन्द की सेवा-सुश्र षा को भी भुलाया नहीं जा सकता जिनके हार्दिक सहयोग से ही साहित्यिक कार्य करने में सुविधा रही है, मैं उन्हें साधुवाद प्रदान करता हूँ और आशा करता हूँ कि भविष्य में भी उनका इसी प्रकार मधुर सहयोग सदा मिलता रहेगा। श्री 'सरस' जी ने प्रेस की दृष्टि से पुस्तकों को अधिक से अधिक सुन्दर बनाने का प्रयास किया है वह भी सदा स्मृति-पटल पर चमकता रहेगा। २६-४-७६ -देवेन्द्र मुनि जैस्थानक हैदराबाद (आंध्र) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम १ परिवर्तन २ तीन लाख की तीन बातें ३ दुर्गुणों की उपेक्षा ४ गुणों की महत्ता ५ बुद्धि कौशल ६ नारी का दिव्य रूप ७ सती की महिमा ८ धर्म की महत्ता ६ श्रेष्ठ शासक १० मिथ्या अहं ११ प्रेम की परीक्षा १२ भक्त की परीक्षा १३ लालच बुरी बला १४ स्वप्न-फल १५ लाख नहीं, साख १६ बालक का बलिदान १७ विधि का विधान owne WG GO MMK - s G G G ०. m ११४ 10 ० Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ न्याय १६ साहस का पुरस्कार २० कर भला, होगा भला २१ स्नेह का बाण २२ बुद्धि की परीक्षा २३ गुरु-भक्ति २४ विचित्र युक्ति २५ मानव की बुद्धिमानी rr m mro १४४ १४६ १५४ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन एक वृद्धा थी। बहुत ही गरीब। उसने अपने पति का निधन होने के पश्चात् अत्यन्त कठिनता से कठिन श्रम कर पुत्र का लालन-पालन किया। उसके अध्ययन की व्यवस्था की। दिन भर पानी भरकर, बर्तन मांजकर और स्वयं भूखी-प्यासी रहकर अपने प्यारे लाल के लिए उसने सारी व्यवस्थाएं की। उच्च अध्ययन करवाया। लड़के ने एम० डी० परीक्षा में समुत्तीर्णता प्राप्त की और उसने एक डिस्पेन्सरी खोल दी। उसका पाणिग्रहण एक सुरूपा सुन्दरी के साथ हुआ। विवाह के पश्चात् उसकी पत्नी ने कहा-पतिदेव ! हम इस घर में नहीं रह सकते। यह बुढ़िया जो तुम्हारी माता है सारे दिन कुछ न कुछ बड़बड़ाती रहती है। इसके रहते हुए हम आजादी से भी नहीं रह सकते। यह कभी कहीं पर थूक देती है, सफाई का ध्यान नहीं है जिससे बीमारी होने की संभावना है। बुढ़िया को छोड़कर वे दोनों एक भव्य भवन में रहने लगे। डाक्टर दिलीप की प्रैक्टिस बहुत अच्छी ___ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ पंचामृत चलने लगी। उसने लाखों रुपये कमा लिये। किन्तु बढ़िया माँ की उसने कभी सुध न ली। एक दिन वृद्धा बीमार हो गई और ऐसी बीमार हुई कि उसके बचने की आशा ही नहीं रही। एक दिन एक पड़ोसी उसे हाथ-गाड़ी में डालकर डाक्टर दिलीप की डिस्पेन्सरी में ले गया। डाक्टर दिलीप ने उस वृद्धा माँ को देखकर के भी अनदेखा कर दिया। अन्य सभी रोगियों को तपासने के पश्चात् उसने उस वृद्धा की तपास की और कहा-इंजेक्शन, दवाएँ लेनी होंगी। उसने उसी समय पर्चा लिख दिया और अपनी फीस के पैसे माँगे। पुत्र के इस व्यवहार को देखकर वृद्धा माँ का कलेजा काँप उठा। उसे अपने पुत्र से यह आशा नहीं थी। शरीर में शक्ति न होने पर भी वृद्धा उठकर बैठ गई। उसने कहा-मैं तेरी फीस और दवाई का पैसा देने के लिए प्रस्तुत हूँ, पर मैं तेरे से जो माँगती हूँ उसका बिल पहले तुझे चुकाना होगा। डाक्टर दिलीप ने कहा-तुम मेरे से क्या माँगती हो? बुढ़िया ने कहा-मैंने तुझे सवा नौ महीने तक पेट में रखा। उसका किराया देना होगा। उसके Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन ३ पश्चात् बीस वर्ष तक मैंने तेरे भोजन, दूध तथा रहने के लिए आवास, स्कूल-कालेज की फीस, पुस्तकें, वस्त्र आदि की व्यवस्था में कम से कम तीस हजार रुपये बहुत ही श्रम से कमा-कमाकर खर्च किया है। उसका ब्याज भी मिलना है। इस प्रकार कुल पचास हजार रुपये और मेरी तीन वस्तुएँ तेरे पास हैं-रक्त, मांस और केश। इनको भी पुनः मुझे लौटा दे। सवा नौ महीने तक मैंने जो तुझे उदर में रखा उसका भी पचास हजार रुपये का मूल्य देना होगा। यह सुनते ही डाक्टर दिलीप के पैर के नीचे की धरती खिसक गई। वह सोचने लगा-माँ ने तो इतना बिल बना दिया है कि मैं अभी अपनी सारी संपत्ति भी बेच दंतो भी बिल पेमेण्ट नहीं कर सकता। बुढ़िया ने कुछ क्षण रुककर कहा-तू वे दिन भूल गया जब कई-कई दिनों तक भूखी-प्यासी रहकर मैंने तुझे खिलाया, तेरे पिता के अभाव में तेरे को कठोर श्रम कर बड़ा किया। ___डाक्टर दिलीप को अपनी भूल ज्ञात हुई । उसने अपनी माँ के चरणों में गिरकर अपनी भूल की क्षमा माँगी-माँ ! पत्नी के मोह में अन्धा होकर मैंने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया। तुमने मेरे लिए ___ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ पंचामृत वस्तुतः अत्यन्त कष्ट सहन किये। आज ही मुझे ध्यान आया कि तुम्हारा मेरे ऊपर कितना उपकार है। यदि मैं खून, मांस और केश दे दें तो जीवित कैसे रह सकता हूँ? बुढ़िया ने अपने पुत्र को स्नेह से चूम लिया। वह बढ़िया को लेकर अपने भव्य भवन में पहुँचा। उसकी पत्नी उस बुढ़िया को देखकर नाक, भौं सिकोड़ने लगी। तब दिलीप ने कहा-चाहे तू कितनी भी अप्रसन्न हो जाय पर मैं अपनी माँ को नहीं छोड़ सकता। इसका मेरे ऊपर अनन्त उपकार है। घर की मालकिन तू नहीं किन्तु माँ है। माँ की बदौलत ही मैं इस पद पर पहुँचा हूँ। यदि माँ ने कठोर श्रम न किया होता तो मैं अनपढ़ रेहकर जीवन व्यतीत करता। पति के परिवर्तन को देखकर पत्नी चुप हो गई। अब डाक्टर दिलीप प्रतिदिन जितना भी पैसा कमाता वह लाकर अपनी माँ को देता। माँ से कहता-इस सारी संपत्ति की मालकिन तुम हो । तुम मुझे और अपनी बहू को जितना हाथ-खर्च के लिए दोगी उतना ही हम लेंगे। तुम अपनी इच्छानुसार दान देकर अपने जीवन को पवित्र बना सकती हो।। वृद्धा माँ ने कहा-वत्स ! मेरी एक ही इच्छा है Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन ५ कि जिस तरह दर-दर भटककर भूखी-प्यासी रहकर मैंने तेरी व्यवस्था की वैसा कठोर श्रम कर दूसरी अन्य माताओं को अपनी सन्तानों के अध्ययन के लिए व्यवस्था न करनी पड़े इसके लिए अपनी संपत्ति का उपयोग भोग-विलास और ऐश-आराम के लिए न कर गरीबों के लिए करो, वे भी तुम्हारे भाई हैं । बुढ़िया की शिक्षा ने जादू का असर किया । उसने अपना जीवन गरीबों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया और सारी संपत्ति भी गरीबों के विकास के लिए समर्पित कर दी । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ নীল লাহন্ত । নীল রান कोशल नगरी का राजा सूर्यसेन महान् प्रतिभासम्पन्न, प्रजापालक, न्यायी और वीर योद्धा था। उसके राज्य में चाहे गरीब हो चाहे धनवान, चाहे विद्वान् हो चाहे मूर्ख, किसी को भी कुछ भी कष्ट नहीं था। राजा धनवानों की अपेक्षा विद्वानों का अत्यधिक आदर करता था। उसके राज्य में विद्वान् अत्यधिक प्रसन्न थे। __एक बार एक सोमनाथ ब्राह्मण जो बहुत बड़ा विद्वान् था, उसने कोशल नगरी की प्रशंसा सुनी । अतः वह कोशल नगरी में आया। उसके पास अर्थ का अभाव था। अतः उसने मध्य बाजार में से आगे बढ़ते हुए यह आवाज लगाई-तीन लाख की तीन बातें । जो कोई भी लेना चाहे उसे मैं सहर्ष दे सकता हूँ। राजप्रासाद में बैठे हुए राजा के कर्णकुहरों में सोमनाथ के शब्द गिरे। राजा साश्चर्य विचारने लगा -आज दिन तक इतनी बहुमूल्य बातें मैंने नहीं सुनी हैं। इन बातों में अवश्य ही कोई न कोई रहस्य होना चाहिए। अतः राजा ने अपने अनुचर को प्रेषित कर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन लास की तीला ५ विप्र का बुलाया और योग्य आसन पर बिठाकर विप्रदेव से कहा-ये तीन लाख की तीन बातें कौन सी हैं ? मैं उन बातों को लेना चाहता हूँ। सोमनाथ ने कहा-राजन् ! ये तीनों बातें बड़ी ही महत्त्वपूर्ण हैं। इन बातों का मूल्य भले ही आपको इस समय ज्ञात न हो सके, पर ये तीनों बातें जो मैं आपको बता रहा हूँ वे आपके भविष्य के जीवन को सुनहरा बनाने वाली हैं। वे बातें निम्न हैं (१) प्रातः ब्राह्ममुहर्त में उठना चाहिए। (२) अपने सन्निकट जो भी आवे उसका आदर करना चाहिए। (३) क्रोध के समय सदा शान्ति रखनी चाहिए। राजा ने तीन लाख मुद्राएँ देकर ब्राह्मण को विदा किया। राजप्रासाद की दीवारों पर ये तीनों बातें उकित करवा दीं। राजा इन तीनों बातों पर प्रतिदिन चिन्तन करता ही नहीं, उन्हें जीवन में उतारने का प्रयास करता। एक दिन प्रातः राजा ब्राह्ममुहूर्त में उठकर नदी के किनारे परिभ्रमण करने के लिए पहुँचा। तारे टिमटिमा रहे थे। कुछ अन्धकार था। उस शान्त वातावरण में रोने की एक आवाज राजा के कानों में गिरी। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचामृत जिधर से आवाज आ रही थी उधर ही राजा चल दिया । उसने देखा एक वृक्ष के नीचे एक महिला बैठी हुई आँखों से आँसू बहा रही है । राजा ने उस महिला से पूछा- आप कौन हैं ? और यहाँ पर क्यों रो रही हैं ? यह अरण्यरोदन है । यहाँ आपके रोने को कौन सुन रहा है ? उस महिला ने कहा- मेरे हृदय में अपार वेदना है । उस वेदना को कम करने का एक ही उपाय है और वह है रोना । रोने से हृदय की वेदना कम हो जाती है । तुमने मुझसे पूछा कि तुम कौन हो ? पर मैं क्या बताऊँ ? मैं सामान्य महिला नहीं, किन्तु विशिष्ट महिला हूँ । मैं मानवी नहीं, देवी हूँ। मैं इस राज्य की संरक्षिका हूँ । कल यहाँ के प्रजावत्सल राजा सूर्यसेन का एक सर्प के द्वारा निधन हो जाएगा। इस नगर की दक्षिण दिशा में जो पर्वत हैं वहाँ से एक साँप निकलकर राजा को डंसने के लिए महल में आएगा । कल सन्ध्या के पूर्व ही सांप राजा को डस लेगा । उसके तीव्र जहर से राजा उसी समय मृत्यु को प्राप्त होगा । बड़े-बड़े मन्त्रवादी भी उस सांप के जहर को उतार नहीं सकेंगे । अतः इस कारण मैं रो रही हूँ । इतना कहकर देवी अदृश्य हो गई। राजा देखता Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन लाख की तालयात ही रह गया। राजा को अनुभव हुआ कि मैं ब्राह्मण की शिक्षा के अनुसार ब्राह्ममुहूर्त में उठा, इस कारण मुझे पूर्व ही अपनी मृत्यु का समाचार मिल चुका है। मैं उपाय कर सकता हूँ। राजा राजमहल में पहुँचा। सभी सभासदों को उसने बुलाया और देवी के कथन को उनके सामने रखा। राजा के सभी अमात्य देवी के कथन को सुनकर चिन्तित हो उठे। राजा के कोई पुत्र नहीं था। अतः राज्य का संचालन कौन करेगा-यही एकमात्र चिन्ता उन्हें सता रही थी। तभी राजा ने कहा-राज्य का संचालन मेरी पुत्री करेगी, पुत्री ही मेरे राज्य की अधिकारिणी है। पहले भी जिन राजाओं के पुत्र न थे उनकी पुत्रियाँ ही राज्य करती रहीं। इसलिए मेरे बाद मेरी पुत्री राज्य करेगी। राजा एकान्त में बैठा हुआ सोचने लगा-'मैंने एक-एक लाख में तीन बातें खरीदी थीं। पहली बात ब्राह्ममुहूर्त में उठने से मुझे आने वाली मृत्यु का पता लग गया। तो दूसरी बात 'अपने सन्निकट जो भी आये उसका आदर करना चाहिए।' विप्र की इस बात को भी आजमाना चाहिए। उसने सभी अनुचरों को आदेश दिया कि नागराज जिस पहाड़ से आने वाले हैं, वहाँ से राजमहल ___ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० पंचामृत तक सारे मार्ग को सजा दिया जाय। सारे मार्ग में सुगन्धित पुष्प बिछा दिये जाएँ। गुलाबजल, केतकी और केवड़े के पानी को छिटका जाय । सुगन्धित अगरबत्तियाँ स्थान-स्थान पर जलाई जायँ। सुगंधित दूध के प्याले जिनमें शक्कर डाल रखी हो, यत्र-तत्र रखे जायें। साथ ही संगीत और बीन की मधुर स्वरलहरियाँ झंकृत हों। राजा के आदेश से सारा कार्य उसी समय हो गया। स्वयं राजा नागराज के स्वागत हेतु महल के द्वार पर खड़ा हो गया। नागराज पहाड़ की बांबी से निकलकर राजमहल की ओर प्रस्थित हुआ। उसने सारा मार्ग सजा हुआ देखा। मधुर सौरभ से वह मुग्ध हो गया । दूध पीता हुआ फूलों पर लेटता हुआ कभी धीरे तो कभी तेज गति से दौड़ता हुआ राजमहल की ओर बढ़ा । अन्धेरा फैलने लगा था, अतः दीपक का प्रकाश राजा के आदेश से हो गया। ज्यों ही राजा ने दीपक के प्रकाश में देखा कि नागराज महल में प्रवेश करने के लिए द्वार की ओर आ रहा है, राजा ने आगे बढ़कर कहा-नागदेव ! आपका स्वागत करते हुए मेरा मन प्रमुदित है। यह कहकर राजा ने अपना पांव आगे बढ़ाते हुए कहा-आप मुझे काटने के लिए पधारे हैं। आप काटिए। मैं प्रस्तुत हूँ। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन लाल की तीनमा ११ नागदेव ने मानव की भाषा में कहा-राजन् ! मैं तुम्हारे भव्य स्वागत बहुत ही प्रसन्न हूँ। मेरा सारा क्रोध और रोष तुम्हारे स्वागत को देखकर समाप्त हो गया। अतः तुम जो भी इच्छा हो मेरे से मांगो। मैं तुम्हें सहर्ष देने के लिए तैयार हूँ। राजा ने नागराज से निवेदन किया-आपकी कृपा से मेरे पास सभी कुछ है। मुझे किसी भी चीज की आवश्यकता नहीं। आप जिस अपार कष्ट को सहन कर यहाँ पर पधारे हैं, वह कार्य आप करें। ... सांप ने कहा-राजन् ! तुम्हारे जैसे प्रजावत्सल राजा को मारना उचित नहीं है । मैं तुम्हें अभय प्रदान करता है। पर भावी को कोई टालने वाला नहीं। अतः मैं तुम्हारे बदले अपने प्राणों का त्याग कर रहा हूँ। यह कहकर सर्प ने सदा के लिए प्राण त्याग दिये। राजा ने उस निर्जीव सर्प का अग्नि-संस्कार किया। वह वहाँ से सीधा ही अन्तःपुर में पहुँचा। राजा ने दूर से देखा महारानी की आँखों से आँसुओं की धारा बह रही है और उसके सन्निकट बैठा एक पुरुष उसे सान्त्वना दे रहा है। पुरुष को देखते ही राजा का क्रोध ज्वार-भाटे की तरह बढ़ गया। उसने तलवार के एक झटके में उस पुरुष को और महारानी को समाप्त करने का निश्चय ___ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पंचामृत किया। उसी समय उसे स्मरण आया कि 'क्रोध के समय शांति रखनी चाहिए। राजा ने सोचा-अरे, यह तीसरी शिक्षा जिसके लिए मैंने एक लाख रुपया खर्च किया है, इसे भी जीवन में धारण कर देखना चाहिए कि यह शिक्षा कितनी उपयोगी है। अतः राजा ने तलवार म्यान में डाल दी और धीरे-धीरे आगे बढ़ा। उसने देखा पुरुष वेष में अन्य कोई व्यक्ति नहीं है, उसी की पुत्री बैठी हुई अपनी माँ को कह रही हैमाँ ! भावी को कौन टाल सकता है ? पूज्य पिताश्री यदि हमारे सद्भाग्य होंगे तो अवश्य ही बच जाएँगे। सर्प उनका बाल भी बांका न कर सकेगा। यदि उनकी आयुष्य ही पूर्ण हो गयी है तो कोई भी प्रयत्न सफल नहीं हो सकता। राजा ने लुक-छिपकर अपनी पुत्री की बात सुनी। राजा को आश्चर्य हुआ---यदि मैं क्रोधावेश में पत्नी और पुत्री को समाप्त कर देता तो जीवित होने पर भी मृत की तरह जीवनयापन करना पड़ता। मैंने तीसरी शिक्षा का भी प्रत्यक्ष लाभ देख लिया है। राजा ने प्रगट होकर कहा-पुत्री ! तूने पुरुष वेष क्यों धारण किया ? रानी और पुत्री ने राजा के चरणों में अपना सिर नवा दिया। राजा ने कहा ___ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन लाख की तीन बातें १३ सर्प ने मेरे बदले अपने प्राण त्याग दिये। मैं बच गया। माता-पुत्री दोनों ही अत्यधिक प्रसन्न हुई। पुत्री ने कहा-पिताश्री, मैंने सोचा कि आज यदि सिंहासन पर बैठना हो तो महिला के वेष में बैठना उचित नहीं होगा। इसलिए मैंने पुरुष का वेष धारण किया था। राजा मन ही मन आह्लादित था कि तीन लाख की तीन बातों ने मेरे जीवन में सुख-शांति की बंसी बजा दी। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गुणों की उपेक्षा एक श्रेष्ठी की पत्नी स्वभाव से बहुत ही क्रूर थी। वह प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर पति को नमस्कार करने के स्थान पर प्रतिदिन जूते से उसकी पिटाई करती। श्रेष्ठी पत्नी के इस दुर्व्यवहार से अत्यधिक तंग आ गया था। पर करता ही क्या ? उसके एक लड़की हुई। लड़की दिन-प्रतिदिन बड़ी होती चली जा रही थी। वह माँ के द्वारा पिता को प्रतिदिन पिटते हुए देखती थी। उसने भी यह प्रतिज्ञा ग्रहण की कि मैं उसी के साथ विवाह करूंगी जो मेरे द्वारा प्रतिदिन सात जूते खाएगा। वह भी अपनी माँ की तरह क्रोधी थी। बात-बात पर झगड़ा करने पर उतारू हो जाती । आस-पास के अड़ोसी-पड़ोसी उसके स्वभाव को देखकर उसकी भर्त्सना करते, पर वह सुधरने के स्थान पर बिगड़ती रही। सभी जगह उसके स्वभाव की चर्चा थी। कोई भी व्यक्ति उससे विवाह करने को प्रस्तुत नहीं था। श्रेष्ठी रात-दिन घुलने लगा-बेटी बड़ी हो गई है। यदि जवानी में काम-वासना से अन्धी बनकर उसने Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गुणों की उपेक्षा १५ कुछ दुष्कृत्य कर दिया तो मेरा जीवन ही बिगड़ जाएगा। वह रात-दिन इसी चिन्ता में घुल रहा था । सन्निकट के गाँव में एक युवक था । उसके पास पैसा नहीं था । किन्तु वह था स्वस्थ और बलिष्ठ । श्रेष्ठी ने कहा -- यदि तुम मेरी लड़की के साथ विवाह करोगे तो मैं तुम्हें दहेज के रूप में इतना धन दूँगा कि तुम अच्छी तरह से व्यापार कर अपने जीवन को आनंदित बना सकोगे । युवक ने श्रेष्ठी के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया । श्रेष्ठी ने अपनी पुत्री के स्वभाव के सम्बन्ध में भी उसे स्पष्ट रूप से बता दिया । युवक ने कहा— पूज्यवर ! आपको चिंतित होने की आवश्यकता नहीं । मेरे पास इस रोग की रामबाण दवा है । मैं आपकी पुत्री का यह रोग जड़-मूल से नष्ट कर दूंगा । श्र ेष्ठी ने उल्लास के क्षणों में अपनी पुत्री का पाणिग्रहण उस युवक के साथ कर दिया । पूरा घर बसाने का सामान भी उसने उस युवक को दिया था । गाड़ियों में सामान लदा हुआ था और वह पत्नी सहित ससुर- गृह से प्रस्थित हुआ। युवक का चेहरा गंभीर था । श्र ेष्ठी-पुत्री युवक की गंभीर मुद्रा को देखकर ही स्तंभित हो गई । उसके साथ बात करने का साहस Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ पंचामृत ही न हो रहा था। बैलगाड़ियों में एक मिट्टी के घड़े में पापड़ थे, तो दूसरे मिट्टी के घड़े में बड़ियाँ थीं। तीसरे घड़े में मैथी थीं। गाड़ी के चलने पर उन घड़ों में चूं-चूं की आवाज आ रही थीं। युवक ने गंभीर गर्जना करते हुए कहा-मुझे यह चूं-चूं की आवाज बिल्कुल पसन्द नहीं। तुम शान्त बन जाओ। नहीं तो मैं अभी तुम्हें चमत्कार दिखाऊँगा। ___जब चू-चूं की आवाज बन्द न हुई तो युवक ने एक लाठी के प्रहार से उन सभी घड़ों को चूर-चूर कर दिया । श्रेष्ठी-बाला तो युवक के क्रोध को देखकर सहम गई-ये तो बड़े तेज-तर्रार स्वभाव के हैं। कुछ दूर चलने पर एक कुतिया भौंकने लगी। युवक ने उस पर भी ऐसा प्रहार किया कि वह कुतिया सात चक्कर खाकर गिर पड़ी। पति के उग्र स्वभाव को देखकर वह बाला कांप उठी-यदि मैंने जरा-सी भी असावधानी से कुछ कह दिया तो यह मेरी ऐसी पूजा करेंगे कि हड्डी-पसली एक कर देंगे। . नववधू को लेकर वह युवक अपने घर पर पहुँचा। उसने घर पर जाते ही यह सूचना कर दीयदि तूने कुछ भी अनुचित कहा-सुनी की तो याद रखना मेरे कोप के सामने तेरी मिट्टी पलीद हो Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गुणों की उपेक्षा १७ जाएगी। मैं जिस प्रकार संकेत करूँ उसी संकेत के अनुसार तुझे कार्य करना है। यदि मेरे संकेत की अवहेलना की तो तेरे लिए ठीक न होगा। यदि मैं दाहिनी आँख से संकेत करूं तो तुझे कार्य करना है और बायीं आँख से संकेत करूं तो तुझे कार्य नहीं करना है। श्रेष्ठी बाला युवक के संकेत के अनुसार कार्य करने लगी। उसके स्वभाव में नम्रता, सरलता और कार्य करने की कुशलता सभी आ गई। एक आदर्श गृहिणी के रूप में चारों ओर उसकी विश्रुति हो गई। पिता की ओर से अनेक बार सन्देश आए कि पुत्री तुझसे मिलने के लिए माँ छटपटा रही है। पर बिना पति की अनुमति के वह जा नहीं सकती थी। छह महीने के पश्चात् युवक अपनी पत्नी के साथ ससुराल पहुँचा। अपनी पुत्री के अद्भुत परिवर्तन को देखकर श्रेष्ठी विस्मित था। उसके मन में अपूर्व आह्लाद था कि मेरी पुत्री का जीवन ही एकदम बदल गया है। एक दिन श्रेष्ठी ने अपने दामाद को अपनी अन्तर्व्यथा बताते हुए कहा—जिस प्रकार तुमने मेरी पुत्री के जीवन को परिवर्तित कर दिया वैसे ही अपनी सासू के जीवन को भी यदि परिवर्तित कर सको तो मेरा शेष जीवन आनन्दमय व्यतीत हो सकता है। ___ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पंचामृत युवक ने अपने ससुर से निवेदन किया-कि मेरी सासू की बीमारी पुरानी है। वह असाध्य है। आपने पहले ही ध्यान नहीं दिया। अब इस बीमारी का मिटना कठिन है। बीमारी की जरा-सी उपेक्षा भयंकर रूप ले लेती है Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणों की महत्ता शंकर और श्याम दोनों सहोदर भाई थे । श्याम पढ़ा- लिखा था । उसने व्यापार में लाखों रुपये कमाये । वह अपने भव्य भवन में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहता था । शंकर उसका लघु भ्राता था, वह अनपढ़ था । उसके पास थोड़ी-सी खेती थी । उसके अनाज से ही वह अपने बालबच्चों का भरण-पोषण करता था । एक बार उसका पुत्र राम बीमार हो गया । उसके पास जो थोड़ी-बहुत संपत्ति थी, वह उसके उपचार में खर्च हो गई । व्याधि घटने के स्थान पर बढ़ रही थी । पास में पैसा नहीं था । सारा परिवार तीन दिन से भूखा था । उसने अपने भाई को भी सूचना दी । पर उसने आकर सुध-बुध नहीं ली। शंकर की पत्नी ने कहा -- नाथ ! आप अपने प्रिय भ्राता के पास जाकर कुछ खाने के लिए माँग कर ले आइए। उनके वहाँ तो बीसों आदमी कार्य करते हैं । उन्हें कहिए कि आपको नौकरी पर ही रख लें जिससे हमारा जीवन व्यवस्थित रूप से चल सके । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० पंचामृत शंकर नहीं चाहता था कि भाई के पास जाकर हाथ पसारे; पर तीन दिन से भूखे-प्यासे परिवार को देखकर उसका मन आकुल-व्याकुल हो उठा। राम व्याधि से तो मुक्त हुआ किन्तु क्षुधा के कारण उसे तीव्र ज्वर आ गया। माँ के आँचल में मुह छिपाकर कहने लगा कि माँ ! बहुत जोर से भूख लग रही है। कुछ खाने को देना। पर, घर में कोई भी वस्तु नहीं थी जिसे दिया जा सके। पत्नी ने शंकर से कहा-देखो न, आपका यह लाड़ला एक मुट्ठी अनाज के लिए मर रहा है। अब तो अपने लखपति भाई के पास जाकर ले आओ न । यदि कुछ ही विलम्ब हो गया तो यह छटपटाकर प्राण त्याग देगा। शंकर विवश होकर अपने भाई के भव्य भवन को चल दिया। मन में नई उमंग थी-मेरा भाई मुझे देखकर बहुत ही आह्लादित होगा। वह अनाज से तो क्या, रुपयों से मेरी थैली भर देगा। मन में अनेक रंगीन कल्पना करते हुए ज्यों ही वह भव्य भवन के द्वार पर पहुँचा त्यों ही द्वारपाल ने अन्दर जाने के लिए स्पष्ट इनकारी कर दी। शंकर ने द्वारपाल से अत्यधिक अनुनय-विनय किया कि मुझे अपने भाई के पास जाने दिया जाय, पर द्वारपाल ने उसकी एक Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणों की महत्ता २१ न सुना । उसका मन जल्दी से जल्दी भाई से मिलना चाहता था । द्वारपाल ने कहा-जब तक श्याम सेठ की अनुमति नहीं आ जाएगी वहाँ तक तुम अन्दर प्रवेश नहीं कर सकते। ___ शंकर ने ऊपर देखा। गवाक्ष में उसका भाई बैठा हुआ है, पास में भाजाई बैठी हुई है और दोनों भोजन कर रहे हैं। शंकर ने नीचे से ही आवाज दीभैया ! मैं आया हूँ। श्याम ने ज्यों ही शंकर का आवाज सुनी, वह चौंक उठा। उसने नीचे देखा तो शंकर खड़ा था। शंकर को देखकर उसने उसी समय दृष्टि फेर ली और खाने में तल्लीन हो गया। शंकर ने सोचा, लगता है कि भाई ने मुझे देखा नहीं है। यदि देखा होता तो मुझे बिना बुलाये नहीं रहता। उसके मन में घबराहट थी कि जिस बच्चे के लिए उसने अपनी सारी संपत्ति फूंक दी वह कहीं भूख से मर न जाय? एक-एक पल उसे एक-एक वर्ष की तरह लग रहा था। उसने पुनः जोर से आवाज दी-भैया ! मुझे बहुत ही आवश्यक कार्य है। भैया ! मुझे जल्दी बुलाओ। द्वारपाल को कह दो कि मुझे तुम्हारे पास आने दे। श्याम शंकर से मिलना नहीं चाहता था। वह जानता था कि मेरा भाई दरिद्रनारायण का अवतार Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पंचामृत है। उससे मिलने से मेरी प्रतिष्ठा जो समाज में है वह धूल में मिल जाएगी । इसलिए नहीं मिलना ही श्रेयस्कर है । श्याम ने क्रोधित मुद्रा में ही द्वारपाल को कहा- कौन व्यक्ति चिल्ला रहा है ? उसे दूर भगा दो। मैं उससे मिलना नहीं चाहता । शंकर को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसका भाई उसके साथ इस प्रकार का व्यवहार करेगा । उसे अतीत की मधुर स्मृतियाँ हो आई कि मैं अपने प्यारे भाई के लिए सदा सर्वस्व न्योछावर करता रहा हूँ । मेरे पढ़े-लिखे न होने के कारण भाई ने मेरी सारी संपत्ति पर अधिकार कर लिया और मुझे जरा-सी खेती दे दी। तो भी मैंने कभी भी 'कुछ भी नहीं कहा। लगता है श्याम को गलतफहमी हो गयी है । इसीलिए उसने नौकर को यह आदेश दिया है । शंकर पुनः जोर से चिल्लाया- भैया ! जरा इधर देखो। मैं तुम्हारा छोटा भाई शंकर हूँ । जरा एक बार मुझे देखो | राम बहुत ही बीमार है । इसलिए मैं तुम्हारे पास सहयोग के लिए आया हूँ । किन्तु श्याम तो अपने धन के नशे में चूर था । उसके संकेत से द्वारपाल ने शंकर को धक्का देकर वहाँ से निकाल दिया । शंकर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वहाँ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणों की महत्ता २३ से चल दिया । उसका हृदय काँप रहा था । अज्ञात आशंका से घर पर हताश और निराश होकर पहुँचा । उसके पहले ही उसके पुत्र राम ने सदा के लिए आँख मूँद ली थी । उसकी पत्नी सिर पीट-पीट कर रो रही थी । पत्नी की दयनीय स्थिति को देखकर वह भी रो पड़ा। उसे अनुभव हुआ कि गरीबी कितनी बुरी चीज है । शंकर ने अपने प्यारे लाल के शव को नदी में बहाया । लकड़ी के लिए भी उसके पास पैसा नहीं था । शंकर की पत्नी ने कहा- बिना अर्थ के जावन व्यर्थ है । इस प्रकार कब तक भूखे-प्यासे रह सकते हैं ? हमारे पास अन्य कोई साधन नहीं है जिससे कि पैसा प्राप्त हो सके। लोग कहते हैं कि धरती सोना उगलती है । आपके पास धरती है । हम दोनों ही कठिन श्रम करके इतनी अच्छी खेती करेंगे कि हमारी दरिद्रता मिट जायगी । भाग्य सदा ही परिश्रमी व्यक्तियों का साथ देता है । दोनों ही जी-जान से खेती में जुट गये । उस वर्ष खेत में बहुत ही बढ़िया फसल पैदा हुई । शंकर की प्रसन्नता का कोई पार न था । उसे अनुभव हुआ धरती सोना किस तरह उगलती है ? उसने कुछ अनाज Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पंचामृत बेचकर उस पैसे से एक नई जमीन खरीद ली । दोनों ही परिश्रम से खेती करने लगे। उस वर्ष भी बहुत ही अच्छी फसल हुई, जिसे बेचकर उसने नई जमीन खरीद ली। इस प्रकार प्रतिवर्ष वह खेती करके नई जमीन खरीदता रहा । दिन-प्रतिदिन उसकी खेती बढ़ती रही। कुछ ही वर्षों में शंकर एक बहुत बड़ा जमींदार हो गया । श्याम को एक दिन व्यापार में लाखों का घाटा लग गया । माल गोदामों में कर्मचारी की असावधानी से आग लग गई, जिससे सारा माल देखते ही देखते जलकर राख हो गया। सारे नगर में यह सूचना प्रसारित हो गई कि श्याम श्रेष्ठी का व्यापार में दीवाला निकल गया है। अतः जिन लोगों ने श्याम को लाखों रुपयों का कर्ज दिया था वे सभी एक साथ माँगने के लिए पहुँच गये । पर श्याम के पास उस समय कुछ नहीं था । अतः वह कैसे देता ? पर व्यापारियों को कहाँ सन्तोष था ? सभी व्यापारियों ने मिलकर श्याम के भव्य भवन को नीलाम करने का निश्चय किया । श्याम गिड़गिड़ाया कि मैं कुछ ही दिनों में ब्याज सहित ऋण चुका दूंगा । आप जरा धैर्य रखिए । पर Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणों की महत्ता २५ व्यापारी श्याम की बात को कहाँ सुनने वाले थे? अतः श्याम को अपना भव्य भवन बेचने के लिए तैयार होना पड़ा। दूसरे दिन सारे नगर में यह सूचना प्रसारित हो गई कि श्याम का भव्य भवन नीलाम होने जा रहा है। शंकर ने भी सुना। उसका कलेजा काँप उठा। वह उसी क्षण श्याम से मिलना चाहता था। पर कुछ क्षणों तक चिन्तन के पश्चात् वह रुक गया। भव्य भवन की नीलामी के लिए सैकड़ों लोग इकट्ठहुए थे। नगर का प्रसिद्ध व्यापारी धन्ना उस भव्य भवन को लेना चाहता था। बोली का क्रम प्रारम्भ हुआ। शंकर भी बढ़िया वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित होकर वहाँ पहुँचा था। श्याम नीची नजर किये हुए भीगी आँखों से जमीन को कुरेद रहा था। मकान की नीलामी की बोलियाँ लग रही थीं। कई सेठों ने बढ़-चढ़कर बोली लगाई। बोली दो लाख से चालू होकर छह लाख तक चली। शंकर मौन मुद्रा में एक ओर बैठा था। जब छह लाख पर बोली अटक गई तो उसने आवाज लगाई–'सात लाख।' छह लाख से आगे कोई उस भव्य भवन को खरीदने हेतु प्रस्तुत नहीं Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ पंचामृत था, अतः सात लाख में शंकर ने वह भव्य भवन खरीद लिया। शंकर ने उसी समय सात लाख का चेक काटकर अपने भाई श्याम के हाथ में थमा दिया। श्याम नीचे मुंह किये हुए था। उसने शंकर की ओर देखा भी नहीं था। किन्तु ज्यों ही शंकर ने सात लाख का चेक उसके हाथ में दिया तो उसकी तन्द्रा टूट गई। उसे विश्वास ही नहीं था कि उसका भाई शंकर इतना धनवान हो गया है जो एक साथ सात लाख रुपया दे सकता है। शंकर ने अपने ज्येष्ठ भ्राता के चरणों में नमस्कार करते हुए कहा-आप इन सात लाख रुपयों से जो जितना मांगता हो वह कर्जदारों को चुका दो। और भी आवश्यकता हो तो मुझे सूचित करो जिससे मैं उसकी पूर्ति कर सकूँ। श्याम के मुह से शब्द भी नहीं निकल रहे थे। वह सोच रहा था-एक मैं हूँ जिसने इसके साथ कितना दुर्व्यवहार किया। यह मेरे पास आशा लेकर आया था। किन्तु इसकी सारी आशाओं पर तुषारपात हुआ। मेरी दानवता को धिक्कार है कि मैंने द्वारपाल से कहकर इसे धक्का देकर निकलवाया था और एक यह है जो कठिन श्रम से इकट्ठे किये हुए सात लाख रुपये मुझे दे दिये और यह कह रहा है-भाई, क्यों Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणों की महत्ता २७ घबरा रहे हो। यह घर आपका नीलाम नहीं हुआ है। यह तो आपका ही है। शंकर ने निवेदन किया-आप घर के मालिक हैं। मैं तो आपका अनुज हूँ। मेरी संपत्ति पर आपका पूर्ण अधिकार है। यदि समय पर भाई ही भाई के काम न आये तो और कौन काम आएगा? श्याम की आँखों से आँसू बरस रहे थे। वह शंकर के पैरों में झुकने के लिए आगे बढ़ना चाहता था कि शंकर ने उसके हाथ थाम लिये । श्याम ने कहा-भाई ! मुझे क्षमा करो। मैंने तुम पर जो अन्याय किया है, तुम्हारे साथ जो अमानवीय व्यवहार किया है, उसे स्मरण करके ही मेरा मन ग्लानि से भर रहा है। शंकर भी फफक-फफक कर रो पड़ा-भाई ! माफी तो मुझे माँगनी चाहिए। आप इतने संकट में रहे । मुझे पता ही न चला । मुझे इस समय से पहले आकर सहयोग करना चाहिए था। श्याम को विचार आया-केवल बड़ा बनने से ही व्यक्ति बड़ा नहीं होता; जब तक उसमें सद्गुणों का विकास नहीं होता। मैं केवल वैसे ही बड़ा हूँ, किन्तु मेरा भाई सद्गुणों में कितना बड़ा है ? Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पंचामृत कथा का रहस्य प्रकट करते हुए कथाकार ने कहा-वय से नहीं, किन्तु गुणों से व्यक्ति महान् बनता है। समय सदा एक सदृश नहीं रहता। जो एक दिन धनवान है वह दूसरे दिन भिखारी भी बन सकता है। इसलिए किसी का भी अपमान न करो और व्यर्थ ही अभिमान न करो। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि कौशल ५ राजा संग्रामसिंह एक महान् न्यायी सम्राट् थे । उनके न्याय की प्रशंसा करते हुए लोग अघाते नहीं थे । आज राजा संग्रामसिंह की परीक्षा की कसौटी थी । सारा दरबार खचाखच भरा हुआ था । एक ओर महारानी थी, दूसरी ओर एक जौहरी था । जौहरी ने महारानी पर चोरी का आरोप लगाया था । उस आरोप का दण्ड था आजन्म कारावास । अतः सारे दरबारी उत्सुकता से राजा के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे थे । राजा ने उद्घोषणा करते हुए कहा- जो तथ्य प्राप्त हुए हैं उनसे यह स्पष्ट है कि महाराना ने चोरी की है । अतः मैं महारानी को आजन्म कारावास का दण्ड प्रदान करता हूँ । सारे सभासदों ने राजा के इस निर्णय को बहुत ही उत्सुकता के साथ सुना। कितने ही राजा के न्याय की प्रशंसा करने लगे तो कितने ही जौहरी को गालियाँ देते । पर किसी में यह साहस नहीं था कि राजा के न्याय को गलत कहता । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० पंचामृत कुछ समय के पश्चात् महामात्य अपने आसन से उठे। उन्होंने राजा को नमस्कार कर कहा--आज दिन तक महाराजा के न्याय को कोई भी चुनौती नहीं दे सका है । पर आज मैं महाराजा के न्याय को चुनौती देने का साहस कर रहा हूँ। मैंने गहराई से चिन्तन किया और उस चिन्तन के आधार से मैं साधिकार कह सकता हूँ कि महारानी ने चोरी नहीं की है। अतः महाराजा से मैं नम्र निवेदन करता हूँ कि वे अपने न्याय पर पुनः विचार करें। राजा ने प्रधान अमात्य की ओर देखकर कहातो फिर तुम्हीं बताओ कि चोर कौन है ? __ अमात्य ने निवेदन किया-मैं इस समय पूर्ण और सही निर्णय देने में असमर्थ हूँ। किन्तु मैं आपसे निवेदन करूंगा प्रस्तुत काण्ड की सम्यक् प्रकार से जाँच कराई जाय। केवल मेरी ही नहीं, अन्य प्रजागण की भी यही राय है। जौहरी ने कहा-राजन, अब जाँच की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आपश्री को इस सम्बन्ध में पूर्ण विश्वास हो चुका है। यदि जाँच की गई तो संभव है मुझे न्याय न मिले । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि कौशल ३१ प्रधान अमात्य ने बीच में ही बात काटते हुए कहा-केवल विश्वास के आधार पर कोई न्याय नहीं होता। न्याय के लिए विश्वास नहीं, किन्तु तथ्य अपेक्षित हैं और तथ्यों से ही सही न्याय संभव है।। जौहरी एकदम चिल्ला पड़ा-इसका अर्थ यह हुआ कि मैंने चोरी की है। प्रधान अमात्य ने गंभीर गर्जना करते हुए कहामैं नहीं कहता कि आपने चोरी की। संभव है महारानी के किसी अंगरक्षक ने भी चोरी की हो। इसलिए आपको घबराने की आवश्यकता नहीं है। केवल सात दिन का समय चाहिए जिससे सही सत्य-तथ्य की जानकारी की जा सके । मैं सोचता हूँ सारे सभासद भी मेरे कथन से सहमत होंगे। एक स्वर से सारे सभासदों ने प्रधान अमात्य के कथन का समर्थन किया। राजा को सभासदों के सामने अपना निर्णय बदलने के लिए बाध्य होना पड़ा। उसी समय महारानी ने उठकर राजा से प्रार्थना की-राजन् ! आपने गंभीर चिन्तन के पश्चात् जो निर्णय लिया है, मेरी दृष्टि से उसको पालन होना चाहिए। यदि उसका पालन नहीं हुआ तो प्रजा यही Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ पंचामृत कहेगी कि महाराजा ने न्याय नहीं किया। महारानी का प्रश्न आने पर वे विचलित हो गये। प्रधान अमात्य ने कहा-हम यह नहीं चाहते कि महारानी को बिनो अपराध के दण्ड दिया जाय। यदि महारानी का अपराध है तो उसे अवश्य ही दण्ड मिलना चाहिए। इसी में न्याय-सिंहासन की पवित्रता और निर्मलता रही हुई है। यह नहीं कि अपराधी बच जाय और निपराधी दण्ड का भागी बने। महामात्य के तर्क के सामने सभी निरुत्तर थे। प्रतिदिन जब भी न्याय होता था सभी लोग बड़ी उत्सुकता से राजा के न्याय को सुनते और आनन्दविभोर होकर उसके न्याय की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते। पर एक जौहरी के अतिरिक्त सभी राजा के न्याय से असंतुष्ट थे। बात यह थी कि एक जौहरी श्रेष्ठ आभूषणों को लेकर राजमहल में पहुँचा था। महारानी ने जौहरी को अपने निजी कक्ष में आने की अनुमति दी थी। वहाँ पर महारानी, जौहरी और अंगरक्षक सांवलसिंह के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति नहीं था। सांवलसिंह कक्ष के द्वार पर सावधानीपूर्वक खड़ा था। जौहरी ने एक आभूषणों की पेटी कक्ष के बाहर रखी थी। जब एक पेटी वह महारानी को दिखा चुका तब Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिाल दूसरी पेटी लेने के लिए : वह बाहर गया। उस समय महारानी भी आवश्यक शारीरिक, कार्य की निवृत्ति हेतु अन्दर गई थी। सांवलसिंह जौहरी के साम बाहर तक गया। जब जौहरी लौटकर आया तो उस समय महारानी वहाँ नहीं थी। सांवलसिंह पुनः अपने स्थान पर खड़ा था। जौहरी ने सभी आभूषण देखे । किन्तु चन्द्रहार नहीं था। चन्द्रहार की कीमत पच्चीस लाख की थी। चन्द्रहार कैसे गायब हो गया ?, यह बात किसी की भी समझ में नहीं आ रही थी। जब चन्द्रहार न मिला तो जौहरी ने दुःखी होकर कहा- मुझे क्या पता था कि राजमहल में भी चोरी हो जाती है। यदि ऐसा पता होता तो मैं यहाँ आता ही नहीं। जब यह बात सांवल सिंह ने सुनी तो उसने उसी क्षण जौहरी को राजमहल से बाहर निकाल दिया। जौहरी ने राजा संग्रामसिंह से न्याय की प्रार्थना की और संग्रामसिंह ने महारानी को आजन्म कारावास की सला प्रदान की। प्रधान अमात्य ने प्रस्तुत कार्य के निर्णय हेतु सात दिन का समय लिया था। पाँच दिन तक अमाप अन्वेषणा करते रहे। पर कोई भी तथ्य उन्हें प्राप्त ___ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ पंचामृत नहीं हुआ। क्योंकि अंगरक्षक सांवलसिंह तो कक्ष के बाहर ही था। इसलिए हार किसने गायब किया ?यह पता न लग सका। उनके चिंतित चेहरे को देखकर प्रधान अमात्य की धर्मपत्नी ने पूछा-कि आप अत्यधिक चिंतित रहते हैं, इसका क्या कारण है आप मुझे बताइए। मैं चिन्ता का समाधान कर सकती हूँ। ... महामात्य ने सारी रामकहानी उसे सुना दी। वह खिलखिलाकर हँस पड़ी—इतनी सी बात और आप इतने अधिक चिंतित हैं। मैं अभी इसका समाधान कर दूंगी। पर जरा मुझे भी आभूषण खरीदने हैं, आप उस जौहरी को बुलाइये। प्रधान अमात्य के सन्देशवाहक ने जौहरी से कहा-अमात्य-पत्नी : बहुमूल्य आभूषण खरीदना चाहती है। जौहरी दो पेटियां लेकर प्रधान अमात्य के यहां पहुँचा। एक पेटी उसने कमरे के बाहर रखी और दूसरी अन्दर । उसने सारे आभूषण अमात्य-पत्नी के सामने फैला दिये। अमात्य पत्नी ने एक हार पसन्द किया। जौहरी दूसरी पेटी लेने के लिए बाहर गया। और जब वह पुनः लौटकर, देखता है तो हार गायब भा। उसने आँखों से आँसू बरसाते हुए कहा मुझे क्या Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि १५ मालूम यहाँ भी चोरी होती है। अरे, वह हार तो एक लाख की कीमत का था । अमात्य - पत्नी ने कहा- घबराओ मत, अच्छी तरह से घर जाओ । एक लाख रुपया तुम्हारे घर पहुँचा दिया जाएगा । जौहरी आभूषणों को समेटकर चल दिया। उसके जाने के पश्चात् अमात्य - पत्नी ने अपने पति से कहावेष परिवर्तन कर उसके पीछे जाइए। अमात्य ने पाँचदस गुप्तचर विभाग के सैनिक भी अपने साथ ले लिये और उसके पीछे चल दिये । जौहरी एक सामान्य मकान के सामने रुका । द्वार खटखटाया । द्वार खुलते ही अनेक चुन्न -मुन्न ओं ने उसे घेर लिया । झुंझलाकर जौहरी ने कहा - इस विशाल फौज ने तो मेरा नाक में दम कर दिया है । जौहरी - पत्नी ने कहा- पुत्रों पर इतना क्यों बिगड़ते हो ? दुनिया तो पुत्रों के लिए तरसती है और तुम उन पर गुस्सा होते हो । आज तुम्हारा चेहरा कुछ प्रसन्न दिखाई दे रहा है । लगता है आज भी तुमने कोई मुर्गी फँसाई है । जौहरी ने कहा- इतनी विशाल फौज हैं जिसमें दोनों बड़े पुत्रों पर आशा थी कि वे मुझे वृद्धावस्था में Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ पंचामृत सहयोग देंगे। किन्तु वे ऐसे निकले कि पूछो मत । एक नम्बर के वेश्यागामी और जुआरी । उन्होंने मेरी पूँजी को ही समाप्त कर दिया। पत्नी ने कहा-क्या आज भी तुमने हार बचा लिया ? जौहरी-यदि बचाता नहीं तो फिर क्या करता? तुम सभी के भरण-पोषण के लिए मुझे सब कुछ करना पड़ता है। ले, यह हार, इसे अपने पास सँभालकर रख ले। ज्यों ही जौहरी ने हार अपनी पत्नी की ओर बढ़ाया त्यों ही प्रधान अमात्य ने उसके घर में प्रवेश किया। उसके पीछे गुप्तचर विभाग के अधिकारी भी आ गये। उन्होंने रंगे हाथों जौहरी को पकड़ लिया। दूसरे दिन राजसभा में सभी राजा के न्याय को सुनने के लिए उपस्थित हुए। प्रधान अमात्य ने कहा -राजन् ! चन्द्रहार को चुराने वाला और कोई नहीं यहीं जौहरी है। उसने अपने पास रखे हुए चन्द्रहार कों राजा के सामने रखते हुए कहा-यह है वह चन्द्रहार जो गायब हो गया था। यह चन्द्रहार मैंने जौहरी के मकान से ही प्राप्त किया है। इसने महारानी की तरह मेरी धर्मपत्नी को भी धोखा देने का प्रयास किया। जिससे इसका सारा रहस्य हमें ज्ञात हो गया। ___ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि कौशल ३७ और दोनों हार जिसे यह गायब होने का कह रहा था वे भी मिल गये। इसलिए इसे भयंकर दण्ड देना चाहिए। यदि गहराई से जांच न की जाती तो महारानी को कारागृह की हवा खानी पड़ती। पता नहीं इस जौहरी ने आज दिन तक कितने व्यक्तियों को अपने चंगुल में फंसाया, उन्हें धोखा दिया। सभी सभासद जौहरी की काली करतूत पर थकने लगे। सभी उसके हाथ की सफाई को धिक्कारने लगे कि वह किस प्रकार नजर चुराकर आभूषणों की पेटी के गुप्त स्थान में हार को छिपा रखता था। राजा ने कहा-इसका अपराध अक्षन्तव्य है। महारानी को धन्य है जो मिथ्या आरोप लगाने पर भी उसने पतिव्रतधर्म के कारण ननु-नच नहीं किया और कारावास के कठोर दण्ड को भोगने को तैयार हो गई। जौहरी को महान् अपराध के लिए देश निष्कासन का दण्ड दे दिया गया। सभी ने प्रधान अमात्य के बुद्धि-कौशल की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी का दिव्य रूप बीसलगांव के ठाकुर रणधीरसिंह के एक पुत्र हुआ। उसका नाम केसरीसिंह रखा गया। नाम के अनुरूप ही वह वीर था। युवावस्था आने पर उसकी वीरता की धाक चारों ओर फैल गई थी। एक दिन वह अपने संगी-साथियों के साथ प्रातःकाल घोड़े पर बैठकर घूमने निकला। घोड़े सरपट दौड़े जा रहे थे। प्राकृतिक सौन्दर्य सुषमा का आनन्द लेते हुए वे आगे बढ़ रहे थे। एक साथी ने कहा-देखें, किसका घोड़ा आगे बढ़ता है ? उसका कहना हुआ कि केसरीसिंह ने अपने घोड़े को एड़ लगा दी। देखते ही देखते घोड़ा पवन-वेग की तरह अन्य संगी-साथियों को छोड़कर आगे बढ़ गया। घोड़ा इतनी तेजी से दौड़ रहा था कि उसे रोकने का प्रयास करने पर भी रुक नहीं रहा था। घोड़ा दौड़ता हुआ भयानक जंगल में पहुँच गया जहाँ चारों ओर हिंसक पशुओं का बाहुल्य था। घोड़ा थक चुका था। वह वहीं जंगल में मन्द गति से चलने लगा। उस समय केसरीसिंह के कर्ण-कुहरों में किसी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी का किम ३६ भयभीत मानव की चीत्कार गिरी। उसने चारों ओर आँखें उठाकर देखा। किन्तु वहाँ कोई मानव दिखाई नहीं दिया। जिधर से आवाज आ रही थी उसने छोड़ा उधर ही मोड़ दिया। उसने देखा एक भालू एक व्यक्ति पर झपट रहा है। केसरीसिंह ने इस प्रकार बाण मारा कि एक ही बाण में भालू जमीन पर गिर गया। भालू को देखकर वह व्यक्ति इतना घबरा गया था कि बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा था। केसरीसिंह ने पास में जाकर देखा उस व्यक्ति के पास बहुत सारे कागजात थे। उसने ज्यों ही वह कागज पढ़ा उसमें लिखा थाबीसलगाँव पर हमलाकर ठाकुर रणधीरसिंह को मारना। उसके लिए एक दल को बुलाने के लिए पत्र लेकर वह व्यक्ति जा रहा था जो भालू से डर जाने के कारण बेहोश हो गया था । केसरीसिंह उसे होश में लाने का प्रयास कर रहा था। उसी समय झाड़ियों में से अनेक जंगली पशुओं ने उस पर हमला कर दिया। केसरीसिंह ने देखा-एक साथ सभी का सामना करना कठिन है, और इतने तीर भी नहीं हैं। अतः अपने प्राण बचाने के लिए वह पास ही बहती हुई नदी में कूद पड़ा। नदी का प्रवाह बहुत ही तेज था, वह पहाड़ी नदी थी। अतः उसे पार न कर सका। नदी में बहता चला Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० पंचामृत गया। उधर सूर्यास्त हो रहा था। वह एक वृक्ष से अटककर वहाँ रुक गया था। नदी में पत्थरों की चोट लगने के कारण भयंकर वेदना हो रही थी और सहज ही वह पड़ा-पड़ा कराह रहा था। पहाड़ की टेकरी पर एक झोंपड़ी थी। उसमें एक बाला रहती थी। वह पानी भरने के लिए नदी पर आई। उसने किसी के कराहने की आवाज सुनी। वह इधर ही चल दी। उसने युवक की दयनीय अवस्था देखी। हाथ का सहारा देकर युवक को उठाया और कहा-मेरी कुटिया पास में ही है। मेरा सहारा लेकर आप धीरे-धीरे वहाँ पर चलें। . युवक केसरीसिंह उसके सहारे से कुटिया में पहुँचा। उस बाला ने खाट पर युवक को सुला दिया तथा जख्मों पर मरहमपट्टी कर दी। जंगली दवा दी जिससे रातभर में उसका दर्द मिट जाय । केसरीसिंह के वस्त्र बदल दिये । आग से उसके शरीर को तपा दिया जिससे उसकी सारी थकान मिट जाय।। __ केसरीसिंह को गहरी नींद आ गई। सूर्य उदय के पूर्व ही उसकी नींद खुली । उसने देखा उसकी प्राणरक्षिका पहले ही उठकर कुटिया की सफाई कर रही थी। उसने केसरीसिंह को गरमागरम दूध पिलाया। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी का ४ि१ केसरीसिंह ने कहा-देवी, आपने मेरे प्राण बचाये हैं। यदि आप उस समय न आती तो रात में ही झाड़ियों में उलझा हुआ मैं प्राण त्याग देता । मैं आपका पूर्ण आभारी हूँ। क्या मैं आपका परिचय प्राप्त कर सकता हूँ? ___ युवती ने निःश्वास छोड़ते हुए कहा-आप मेरा परिचय जानकर क्या करेंगे? मैं एक हतभाग्या बाला हूँ केसरीसिंह ने कहा-तब तो मैं अवश्य ही जानना चाहूँगा कि आपका परिचय क्या है, जिससे मैं कुछ सहायता कर सकूँ। तुम्हारा मेरे पर बहुत बड़ा उपकार है। मैं चाहूँगा तुम मेरे से कुछ भी न छिपाकर सही जानकारी दोगी। __ युवती ने कहा- मैं बीसलगाँव के ठाकुर के प्रधान अधिकारी नारायणसिंह की पुत्री हूँ। केसरीसिंह ने साश्चर्य कहा-क्या तुम ही सरदार नारायणसिंह की पुत्री वीरबाला हो ? अपना नाम सुनते ही युवती चौंक उठी। उसने कहा-हाँ, मुझे ही वीरबाला कहते हैं। केसरीसिंह ने पूछा-तुम्हारे माता-पिता कहाँ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ पंचामृत युवती ने कहा- ठाकुर रणधीरसिंह ने मिथ्यावादियों के कहने में आकर मेरे पिता की सारी सम्पत्ति छीन ली और उन्होंने पिता को गाँव से निकाल भी दिया । मेरे माता-पिता मुझे लेकर यहाँ पर आकर बसे । वे प्रस्तुत घटना से इतने दुःखी हुए कि वे अन्दर ही अन्दर घुलते रहे और कुछ ही दिनों में उन्होंने सदा के लिए आँखें मूंद लीं। कुछ दिनों के पश्चात् माताजी भी चल बसीं । अब मैं यहाँ अकेली रहती हूँ । 1 युवक केसरीसिंह ने पूछा- क्या तुम्हें मुझ अपरिचित युवक को यहाँ लाते हुए भय नहीं लगा ? उस बाला ने मुस्कराते हुए कहा - भय वहाँ होता है जहाँ मन में वासना हो । मेरे मन में आपको बचाने की भावना थी । आपका कष्ट मैं देख न सकी । मेरे हृदय की पुकार हुई कि मेरा प्रथम कर्तव्य आपको जीवनदान देने का है । इसलिए मैं आपको यहाँ ले आई । मुझे किसी भी प्रकार का भय नहीं है । मेरे मन में एक ही बात कचोट रही है कि मैं ठाकुर साहब से बदला लू ँ । उनके किये गये अन्याय का फल उन्हें बता दु । तभी मेरे पिताश्री की आत्मा को शांति प्राप्त हो सकेगी । छोड़िए इस चर्चा को, बताइए आपका परिचय क्या है ? आप किस कुल के श्रृंगार हैं ? Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी का विव्य युवक ने अपना सिर नीचा करते हुए कहा- मैं तुम्हारे दुश्मन रणधीरसिंह का पुत्र केसरीसिंह हूँ । युवती ने जरा गम्भीर होकर कहा- मेरे पिता की आत्मा को शांति प्रदान करने वाला आज बड़ा ही सुनहला अवसर मिला है । मैं चाहूँ तो अभी बदला ले सकती हूं। केसरीसिंह ने कहा- मैं तुम्हारा अपराधी हूँ । क्योंकि मेरे ही पिता ने तुम्हारे पिता के साथ बिना विचार किए दुर्व्यवहार किया है। पर इस समय मेरे मानस में एक गहरी चिन्ता सता रही है । और वह यह है कि आज बीसलगाँव पर एक भयंकर आपत्ति आनेवाली है । मुझे एक व्यक्ति के पास सारे कागजात मिले हैं जिसमें बीसलगाँव पर आक्रमण करने का उपक्रम है । पिता श्री बिलकुल ही अनजान हैं। यदि बीसल - गाँव की रक्षा न हुई तो शताधिक महिलाओं का सतीत्व नष्ट हो जाएगा। सैकड़ों युवक मारे जायेंगे । सारे गाँव में कुहराम मच जाएगा । और मेरे संगीसाथी इस जंगल में बिछुड़ गए हैं । पहले मैं उनकी खबर लूौं या अपने पिता को सूचना दू - कुछ समझ में नहीं आ रहा है । वीरबाला ने कहा- आपने बहुत दुःखद समाचार Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ पंचामृत सुनाया है । आप देख रहे हैं बीसलगाँव का सर्वनाश होनेवाला है तो फिर हिम्मत हारकर इस प्रकार कैसे बैठे हैं ? आप पुरुष हैं। वीर हैं । फिर कायर की तरह शान्त कैसे बैठे हैं ? आपको किसी भी प्रकार से बीसलगाँव की रक्षा करने को तैयार होना चाहिए। यह गर्म पानी तैयार है । पहले आप शीघ्र ही अपने आवश्यक कार्य से निवृत्त होइए। आप अपने संगीसाथियों की अन्वेषणा करें और मैं स्वयं शीघ्र ही जाकर ठाकुर साहब तथा ग्राम निवासियों को सावधान करती हूँ । केसरीसिंह ने साश्चर्य कहा - अभी तो तुम कह रही थीं कि ठाकुर साहब से बदला लूँगी और अभी कह रही हो कि मैं उन्हें सावधान करूँगी । यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आया । वीरबाला ने मुस्कराते हुए कहा - मेरा वैर केवल ठाकुर साहब से है किन्तु बीसलगाँव से नहीं । मेरी मातृभूमि की रक्षा का प्रश्न है । वहाँ मुझे सर्वप्रथम अपना बलिदान देकर अपनी बहनों और माताओं की तथा भाइयों की रक्षा करनी है । आप शीघ्र तैयार होवें । मैं ठाकुर साहब को सूचना देने जाती हूँ । यह कहकर अपनी कटार को छिपाकर वीरबाला Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी का दिव्य रूप ४५ चल दी। वह कुछ ही दूर पहुंची कि वही दल जो बीसलगाँव को लूटने जा रहा था, उसे मिल गया। उस दल ने वीरबाला को घेर लिया। वह अकेली थी और उनका दलबल अत्यधिक था जिसके कारण वह उनसे जूझ नहीं सकती थी। वीरबाला ने मन-हीमन सोचा कि इन्हें ऐसा छठी का दूध पिलाऊंगी कि ये भी याद करें। उसने दल के अधिनायक सरदार से कहा-क्या आप बीसलगाँव को लूटने जा रहे हैं ? सरदार-हाँ, यही विचार है। वीरबाला-क्या आप मुझे अपने साथ ले जा सकेंगे? सरदार-तुम हमारे साथ क्यों चलना पसन्द करती हो ? वीरबाला ने सरदार से कहा-बीसलगाँव के ठाकुर के साथ मेरी दुश्मनी है। मैं बदला लेना चाहती हूँ। आपका साथ मिल जाने से बदला लेने में सहलियत होगी। सरदार-क्या तुम्हें नाचना-गाना भी आता है ? तुम्हें मेरा मन बहलाव करना होगा। मैं तुम्हारे रूप पर मुग्ध हूँ। साथ ही तुम्हें हमारे दल के साथ पुरुषवेष में रहना होगा। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ पंचामृत वीरबाला ने कहा-मुझे आपकी सभी बातें स्वीकार करने में संकोच न होगा। पर मेरी शर्त है जब तक बीसलगांव को जीत न लें वहाँ तक आप मेरा स्पर्श न कर सकेंगे। यदि आपको यह शर्त स्वीकार हो तो मैं आपके साथ चलना पसन्द करूंगी। ___ सरदार की स्वीकृति पर मर्दानगी वेष में वह उनके साथ हो गई। केसरीसिंह जंगल में अपने साथियों को न पाकर बीसलगांव पहुँचा। उसने देखा वीरबाला अभी तक बीसलगांव में नहीं पहुँची है । बीसलगांव के निवासियों को आक्रमण का कुछ भी पता नहीं है। केसरीसिंह ने जाकर सभी को जागृत किया। उसके मन में सन्देह होने लगा कि कहीं वीरबाला ने विश्वासघात तो नहीं किया है ? केसरीसिंह ने सारे ग्रामनिवासियों को आने वाली आपत्ति के समाचार दिये और सभी को तैयार होने के लिए उत्प्रेरित किया। सभी ने अपना मोर्चा संभाल लिया। लुटेरों का दल बीसलगांव के बाहर बगीचे में जाकर रुका। वीरबाला ने सरदार से कहा-आप यहाँ सभी तैयारी करें। मैं गांव में जाकर पता लगाती Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी का दिव्य न ४७ हूँ कि वहाँ का क्या हालचाल है। हमें किधर से और कब प्रवेश करना चाहिए। सरदार ने कहा-तुम्हारी बुद्धि तीक्ष्ण है। तुम जाकर पहले गांव में पता लगाओ। उसके बाद हम हमला करेंगे। वीरबाला ने गाँव में पहुँचकर अपने सभी पुराने परिचितों को सावधान किया। महिलाओं का एक संगठन बनाया और कहा-जब तक हमला न हो वहाँ तक पहले किसी प्रकार की कोई बात जाहिर न हो। सारी व्यवस्था ठीक कर वह पुनः दल में जाकर मिल गई। आधी रात में जब चारों ओर अन्धकार था, डाकूदल ने गांव पर आक्रमण किया। उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सभी गहरी निद्रा में सो रहे हैं। वीरबाला के संकेत से डाकू दल तीन भागों में विभक्त हो गया। सरदार कुछ साथियों को लेकर गढ़ के द्वार पर पहुंच गया। वहाँ पर केसरीसिंह अपने वीर साथियों के साथ छिपकर खड़ा था। दोनों ही दल परस्पर भिड़ गए। सरदार अन्धेरे में गढ़ में प्रवेश कर गया और ठाकुर साहब पर झपट पड़ा। किन्तु सरदार के पीछे से सरदार पर किसी ने ऐसा तीक्ष्ण प्रहार किया कि Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ पंचामृत सरदार वहीं पर लुढ़क गया । और उसी समय नक्कारे की आवाज की गई जिससे सभी वीरों ने और महिलाओं ने डाकुओं पर एक साथ हमला किया जिससे अनेक डाकू वहीं ढेर हो गए। और कुछ डाकू अपने प्राण बचाकर भाग गये।। जब केसरीसिंह गढ़ में पहुंचा तो उसने देखा ठाकुर साहब बेहोश पड़े हुए हैं। उन्हीं के पास सरदार की लाश पड़ी हुई है। एक युवक ठाकुर साहब को होश में लाने का उपक्रम कर रहा है। पास ही रक्त से सना हुआ खंजर पड़ा है। ठाकुर साहब को होश आया। उन्होंने केसरीसिंह से कहा-इसी युवक ने मेरे प्राण बचाये हैं। युवक ने ठाकुर के चरणों पर गिरकर नमस्कार किया । वह युवक नहीं युवती थी जिसका नाम वीरबाला था । ठाकुर को जब मालूम हुआ कि यह नारायणसिंह की बेटी है तो उसे गले लगाते हुए कहापुत्री ! मेरे अपराध को क्षमा कर। मैंने तेरे पिता के साथ जो व्यवहार किया उसे भूल जा। वीरबाला ने कहा- मैंने आपको बचाकर बदला ले लिया है। ... ठाकुर ने कहा--तुमने तो मेरे हृदय को ही जीत Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी का दिव्य रूप ४६ लिया है । अब तुम्हें अपनी पुत्रवधू बनाकर राज्य की शोभा बढ़ाऊँगा। वस्तुतः नारी महान् है । वह करुणा, दया, स्नेह, सद्भावना की मूर्ति है। वह एक परिवार को ही नहीं, दोनों ही परिवारों को चमकाने वाली है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती की महिमा राजा भोज बहुत ही उदार, बुद्धिमान और गुणग्राहक थे। वे विद्वानों का अत्यधिक सम्मान करते थे। उनकी राजसभा में नवरत्न थे। उन सभी में प्रमुख कालिदास था। एक दिन राजा भोज ने कालिदास से पूछा-हमारे राज्य में ऐसी कोई महिला है जो सती शिरोमणि हो। कालिदास ने निवेदन किया-आपके राज्य में हजारों महिलाएँ सती हैं, पर सती शिरोमणि तो एक ही है। राजा ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-वह सती शिरोमणि कौन है ? मैं उसके दर्शन करना चाहता हूँ। कालिदास ने कहा-राजन् ! आपके नगर में शंकर शर्मा नामक एक विज्ञवर रहते हैं। उनकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय है, पर वे इतने सन्तोषी हैं कि कभी किसी से कुछ नहीं माँगते । उनकी पत्नी वस्तुतः सती शिरोमणि है। वह अपने पति को ही सर्वस्व मानती है। उन्हीं की सेवा में दिन-रात तल्लीन ___ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती की महिमा ५१ रहती है । ब्राह्मण भी इतना सन्तोषी है कि जो भी मिल जाता है उसी से अपना जीवनयापन करता है। उसकी पत्नी ने आज तक किसी भी पर-पुरुष का मुंह नहीं देखा है। वह सदा घर में ही रहती है। इसीलिए उसका दर्शन होना बहुत कठिन है।। राजा भोज ने कालिदास से कहा-क्या मैं उसके दर्शन नहीं कर सकता ? तुम तो बहुत ही बुद्धिमान हो। ऐसा कोई उपाय करो जिससे उसके दर्शन हो सके। ___कालिदास-राजन् ! एक उपाय है। ब्राह्मण प्रायः लोभी होते हैं। यदि आप उन्हें धन का लोभ दें तो सम्भव है वह धन के लोभ से आपकी सेवा में उपस्थित हो और फिर उसके बाद कार्य हो सकता है। राजा भोज ने अपने अनुचरों को भेजकर शंकर शर्मा को राजसभा में बुलाया। राजा के आदेश से शंकर शर्मा राजसभा के लिए प्रस्तुत होने लगा। उस समय उसकी पत्नी ने निवेदन किया-पतिदेव ! राजा भोज महान् दानी है। आपको विराट् सम्पत्ति देकर पुरस्कृत करेगा । मेरा नम्र निवेदन है आप धन के लोभ में न आवें। यदि आपने राजा भोज के द्वारा प्रदत्त धन को ग्रहण कर लिया तो हमारा अपरिग्रह का Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ पंचामृत नियम भंग हो जाएगा, क्योंकि धन तो अनेक अनर्थ करवा सकता है । पं० शंकर शर्मा राजसभा में उपस्थित हुआ । राजा ने उसका अभिवादन किया | योग्य आसन पर बैठने के लिए निवेदन किया। बैठने के पश्चात् राजा ने दो थाल स्वर्णमुद्राओं से भरकर मँगवाये और कहा -- विप्रवर, इसे ग्रहण कर मुझे अनुग्रहीत करें । ब्राह्मण ने कहा- राजन् ! मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है । आप ही इसे रखें । राजा ने मन ही मन सोचा कि यह ब्राह्मण सोच रहा है कि यह अपर्याप्त है । इसलिए यह इसे ग्रहण करने में संकोच का अनुभव कर रहा है। राजा ने दो थाल और मँगवाये । पर ब्राह्मण ने स्पष्ट शब्दों में लेने से इनकारी की । उसने कहा- राजन् ! नित्य कर्म ही मेरा धन है । उसके अतिरिक्त अन्य किसी धन की मुझे इच्छा नहीं है । राजा भोज ब्राह्मण के धिक प्रभावित हुआ । उसने सकते हैं । जब कभी भी होगी उस समय में आपको बुला लूँगा । सन्तोषी स्वभाव से अत्यकहा- अच्छा, आप पधार आपश्री के दर्शन की इच्छा कुछ दिनों के पश्चात् राजा भोज ने कालिदास Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती को महिमा ५३. से आग्रह किया-मुझे सती शिरोमणि के दर्शन करने की उत्कट अभिलाषा है। . कालिदास ने कहा-राजन् ! मैं भी यह उपाय सोच रहा हूँ कि आपको उसके दर्शन कैसे हों ? गम्भीर चिन्तन के पश्चात् मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि आप संन्यासी का वेष बनाकर उसके यहाँ जावें। तभी उसके दर्शन हो सकते हैं। राजा ने कहा-तुम्हारी युक्ति तो उचित है, पर वह विप्र तो मुझे पहचान ही लेगा। यदि वह घर में रहेगा तो उससे बातचीत भी नहीं हो सकेगी। कालिदास ने कहा-राजन् ! पण्डित शंकर को आप राजसभा में बुलाकर जप करने के लिए कहें। इसलिए वह यहाँ जप करेगा और आप सती शिरोमणि के दर्शन कर सकेंगे। राजा ने शंकर शर्मा को जप करने के लिए बुलाया और स्वयं संन्यासी का वेष पहनकर उसके घर पहुंचा। उसने सती शिरोमणि के द्वार पर जाकर आवाज लगाई-"भिक्षां देहि"। सती शिरोमणि ने आवाज को सुनकर कहा-महाराज ! अभी भोजन में कुछ विलम्ब है, आप कुछ क्षणों तक सामने के वृक्ष की छाया में Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ पंचामृत विराजिए । भोजन तैयार होने पर मैं आपको बुला लूँगी । राजा भोज जो संन्यासी के वेष में था, उसने कहा वृक्ष के नीचे नहीं किन्तु यहीं बैठूंगा । - मैं वह बैठ गया । भोजन तैयार होने पर सती शिरोमणि एक थाल में सजाकर भोजन लेकर आयी । उसके मन में अपूर्व भक्ति थी । भोजन परोसने के पश्चात् वह आम लेकर आई और कहा- संन्यासी प्रवर ! मैं अभी रस निकाल देती जिससे आप अच्छी तरह से भोजन कर सकें । आम रस से लबालब भरे हुए थे । किन्तु उसके दबाने पर भी रस नहीं निकल रहा था। सती शिरोमणि ने कहा-ए आम, मैं आज तक पूर्ण पतिव्रता रही | मैंने स्वप्न में भी किसी भी पर-पुरुष का ध्यान नहीं किया तो क्या कारण है कि तुम रस नहीं छोड़ रहे हो ? लगता है हमारी नगरी का राजा भोज जो सत्यवादी है, किन्तु आज वह परदारा पर मुग्ध है । इसीलिए तुम्हारे में रस होने पर भी तुम रस नहीं दे रहे हो । राजा को चाहिए कि वे अपने विचार बदलें । उनके मन में जो गलत विचार उद्बुद्ध हुए हैं वे उनका Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती की महिमा ५५ परित्याग करें । प्रजा की सारी नारियां उनके लिए पुत्री के समान हैं । अब तो राजा के मन में भी परचाताप जागृत हो चुका है । अतः रस प्रदान करो । यह कहते ही आम के फलों में से रस का प्रवाह फूट पड़ा। दो ही आम से सम्पूर्ण पात्र भर गया । राजा को यह समझते देर न लगी कि सती के सामने मेरा असली रूप प्रकट हो गया है । वह मुझे पहचान गयी है । कहीं यह मुझे शाप न दे दे । नहीं तो मैं नष्ट हो जाऊँगा । ऐसा सोचकर राजा उसके चरणों में गिर पड़ा । सती शिरोमणि ने कहा- राजन् ! आप भयभीत न बनें। हम आपकी प्रजा हैं । मैं आपको पूज्य पिता की तरह मानती हूँ । मुझे ज्ञात हो गया था कि राजा अपने पथ से भ्रष्ट हो जाएगा किन्तु मुझे यह भी विश्वास था कि राजा भोज सत्यवादी है । वह खानदानी है । इसलिए उसे रास्ते पर लाया जा सकता है । इसीलिए मैंने पहली बार पर-पुरुष से बात की है । आप समझते होंगेमेरा पतिव्रतधर्म नष्ट हो गया, पर नहीं । क्योंकि आपको अपनी वृत्ति पर स्वयं पश्चात्ताप हुआ। आप Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ पंचामृत कपट-वेष में मेरी परीक्षा लेने आए हैं। पर मैं अपने लक्ष्य में दृढ़ हूँ। राजा भोज सती शिरोमणि को नमस्कार कर चल दिया। उसे विश्वास हो गया कि भारत की पुण्यभूमि में आज भी सतियों की परम्परा अक्षुण्ण रूप से चल रही है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की महत्ता . एक राजा का प्रधान अमात्य जैन था। उसकी जैनधर्म पर गहरी निष्ठा थी। उसके जीवन में न्याय और नीति का साम्राज्य था। वह सदा कष्ट सहन करके भी दूसरों की भलाई के लिए तत्पर रहता था। राज्य में जितने भले आदमी थे वे अमात्य की परोपकारवृत्ति, देशभक्ति तथा धार्मिक भावना से प्रभावित थे। वे उसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते थे। . राजा धर्म से द्वेष करतो था। वह धार्मिक साधनाओं का उपहास करता था। शिकार खेलना, मदिरा-पान करना और सदा रनिवास में पड़े रहना उसे पसन्द था। समय-समय पर अमात्य कहताराजन् ! आप पर राज्य की जिम्मेदारी है। आपको इस जिम्मेदारी का सम्यक् प्रकार से वहन करना चाहिए। राजा को मंत्री की यह बात बिलकुल पसन्द नहीं थी। वह अमात्य को निकालना चाहता था। क्योंकि स्वार्थी मानवों ने राजा के कान भरे थे। उन्होंने Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ पंचामृत अमात्य की भरपेट निन्दा की थी। पर अमात्य की ऐसी कोई गलती नहीं थी जिससे राजा उसे दण्डित कर सके। ____ चतुर्दशी का दिन था । अमात्य सद्गुरुदेव के समक्ष उपाश्रय में पौषधव्रत ग्रहण करके बैठा था । राजा ने अमात्य को बुलाने के लिए अपने अनुचर को उसके घर प्रेषित किया। अमात्य-पत्नी ने कहावे राजा की अनुमति लेकर धर्मसाधना में लगे हुए हैं। इस समय वे राजा की सभा में उपस्थित नहीं हो सकते। अनुचर पौषधशाला में पहुँचे। उन्होंने राजा के आदेश को सुनाया। अमात्य ने कहा-मैं प्रतिज्ञाबद्ध हूँ। इस समय मैं राजसभा में नहीं आ सकता। आप राजा से निवेदन कर दें। पौषध पूर्ण होने पर मैं उपस्थित हो सकूँगा। अनुचरों ने कहा-आप धर्मसाधना के चक्कर में राजा के आदेश की अवहेलना कर रहे हैं। पता है, राजा के आदेश की अवहेलना करने का क्या परिणाम आएगा? अतः पौषध को रहने दीजिए। फिर एक के स्थान पर दो पौषध कर लीजिएगा। अमात्य ने दृढ़ता के साथ कहा-यह कभी भी ___ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की महत्ता ५६ संभव नहीं है । धार्मिक-साधना पहले है । धार्मिकसाधना आत्मा के लिए है जबकि राजसेवा शरीर के लिए है । मैं राज-सेवा से भी अधिक महत्त्व आध्यात्मिक साधना को देता हूँ । अनुचर राजदरबार में पहुँचे। उन्होंने राजा से नमक-मिर्च लगाकर बताया कि - राजन् ! आपकी आज्ञा की अवहेलना कर अमात्य साधना में तल्लीन है । यह तो आपका भयंकर अपमान है । अमात्य आपका खाना खाता है और गुण भगवान के गाता है । राजा का अहंकार जागृत हो उठा। उसने अपने अंगरक्षक नाई को बुलाकर कहा- तुम अमात्य के पास जाओ और उनसे कहो - या तो राजदरबार में उपस्थित होओ या अमात्य की जो मुद्रा है वह लौटा दो । नापित अंगरक्षक पौषधशाला में पहुँचा । उसने सगर्व राजा के आदेश को सुनाया । और कहा- या तो आप अमात्य - मुद्रा लौटाइये या स्वयं चलिए । अमात्य के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी । अमात्य पद छोड़ना उपयुक्त है या पौषध परित्याग कर राजसभा में पहुँचना उचित है ? सूक्ष्ममति अमात्य ने निर्णय लिया- मुझे धार्मिक साधना में बाधक यह Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० पंचामृत अमात्य पद नहीं चाहिए। जिससे मेरी साधना में विघ्न उपस्थित होता हो वह पद किस काम का। यह सोचकर अमात्य ने उसी समय मुद्रा अपने हाथ से निकाली और नापित के हाथ में थमा दी। आचार्य देख रहे थे। उन्होंने कहा-वत्स ! तुम ऐसा क्यों कर रहे हो ? अमात्य ने कहा--गुरुदेव ! यह मुद्रा ही साधना में बाधक है। अब मैं अच्छी तरह से धार्मिक साधना कर सकूँगा। अंगरक्षक अमात्य की मुद्रा को लेकर अत्यन्त आह्लादित था। वह मन ही मन सोचने लगा-राजा मेरे पर बहुत ही प्रसन्न है। अतः अमात्य पद मुझे ही मिलेगा। कम से कम मैं इस अमात्य मुद्रा को पहनकर साधारण लोगों की दृष्टि में अमात्य का गौरव प्राप्त कर सकता हूँ। राजा को इतनी कोई जल्दी नहीं है। यदि मैं विलम्ब से पहुँचा तो भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। ऐसा सोचकर उसने वह मुद्रा अपनी अंगुली में धारण कर ली। वह मुद्रिका को धारण कर फूला न समा रहा था। मेरी अंगुली में राजमुद्रा है-इस बात का प्रदर्शन करने के लिए वह एक पानवाले की दुकान Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की महत्ता ६१ पर पहुंचा । पानवाला अपनी दूकान पर अमात्य को देखकर विस्मित हुआ। क्योंकि मुद्रा पहनने के कारण उसके मन में शंका का प्रश्न नहीं उठा। उसने बहुत बढ़िया पान उसे दिया। पान मुंह में चबाता हुआ और सभी को अमात्य की राजमुद्रा बताता हुआ नाई राजसभा की ओर बढ़ रहा था। उधर अमात्य के जो दुश्मन थे, वे सोचने लगे कि अमात्य के कारण हमारे स्वार्थ का पोषण नहीं होता। इसलिए उन लोगों ने ऐसे गुण्डे तैयार किए जो अमात्य को खतम कर सकें। वे गुण्डे अमात्य को मारने के लिए चल दिये । ये अमात्य को पहचानते नहीं थे। उन्होंने नगर में प्रवेश करते ही नगरनिवासियों से पूछा-अमात्य का मकान किधर है ? हमें अमात्य से मिलना है। उस पानवाले ने बताया-अभी-अभी अमात्य यहाँ से गए हैं। आप चाहें तो राजसभा में पहुंचने से पहले ही उनसे मिल सकते हैं। यदि वे राजसभा में पहुँच गये तो घण्टों तक फिर मिलना संभव नहीं है। वे गुण्डे जिधर अमात्य की मुद्रिका पहने हुए नापित गया था, उसके पीछे चल दिये । नापित को Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ पंचामृत उन्होंने पूछा-क्या आप ही अमात्य हैं ? नापित ने उन गुण्डों को अमात्य की मुद्रिका दिखाते हुए कहामें ही अमात्य हूँ। क्या तुम्हें शंका है ? उन गुण्डों ने उसके हाथ में मुद्रिका देखी, त्यों ही एक साथ सभी ने उस पर तलवारों के प्रहार किये, जिससे देखते-देखते एक क्षण में उस नापित के प्राणपखेरू उड़ गये। वे गुण्डे वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गए। राजा राजप्रासाद में बैठा हुआ सोच रहा था कि अभी तक अंगरक्षक नहीं आया है। हो सकता है अमात्य ने मुद्रिका देने से इनकार किया हो। मुझे स्वयं चलकर देखना चाहिए कि क्या रहस्य है ? । राजा घोड़े पर बैठकर अमात्य के घर की ओर चल दिया। रास्ते में भयंकर कोलाहल सुनायी दिया। राजा ने अपने अनुचरों से पता लगाया कि क्या बात है ? अनुचरों ने बताया कि कुछ गुण्डों ने आपश्री के अंगरक्षक नापित को मार दिया है। उसके हाथ में अमात्य की मुद्रिका पहनी हुई है। राजा ने मन ही मन यह कल्पना की-हो न हो यह अमात्य की ही करतूत होगी। उसी ने नापित को मरवाया होगा। मैं जाकर अमात्य को मार दूं। पर Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की महत्ता ६३ दूसरे क्षण उसने सोचा कि अमात्य अत्यन्त लोकप्रिय है, धर्मात्मा है। उसे मारने का अर्थ है जनता का विद्रोह मोल लेना। मुझे सर्वप्रथम गुप्तचर विभाग से अन्वेषणा करानी चाहिए कि नापित की हत्या क्यों हुई ? इसमें किसका हाथ है ? राजा ने गुप्तचर विभाग के अधिकारियों को और नगररक्षक अधिकारियों से कहा कि शीघ्र ही इस बात का पता लगाओ कि मेरे अंगरक्षक का खून क्यों हुआ? भागते हुए उन गुण्डों को आरक्षक दल के अधिकारियों ने पकड़ लिया और उन सभी को राजी के सम्मुख प्रस्तुत किया। राजा के ऋद्ध होने पर उन गुण्डों ने कहा-राजन् ! हमारा कुछ भी अपराध नहीं है। हमें तो अपने पेट के लिए यह पाप करना पड़ा है। आपके अमुक-अमुक अधिकारियों ने हमें कहा कि अमात्य को मार दो। क्योंकि वह इतना न्याय और नीति-सम्पन्न है कि उसके सामने हमारी दाल नहीं गलती है। इसलिए हमने उस पर प्रहार किया। राजा को सारा रहस्य ज्ञात हो गया कि नापित को मारने वाले ये लोग नहीं हैं, किन्तु अमात्य को मारने की भावना से ही यह षड्यन्त्र किया गया था। अमात्य पूर्ण निर्दोष है। मेरे अंगरक्षक के मन में ___ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ पंचामृत अमात्य बनने की धुन आई । इसीलिए उसने मुद्रिका पहनने की अनधिकार चेष्टा की जिसके फलस्वरूप उसे अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा । राजा सोचने लगा- मैं जिस अमात्य को अपना शत्रु समझ रहा हूँ वह तो मेरा परम हितैषी है । और जिन्हें मैं अपने मित्र समझ रहा हूँ वे ही सच्चे दुश्मन हैं, जो मेरी मिथ्या प्रशंसा कर मेरे से अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं । राजा के मन में अमात्य के प्रति जो दुर्भावनाएँ थीं, वे नष्ट हो गई । वह सोचने लगा - मेरा अमात्य कितना धर्मनिष्ठ है । उसने अमात्य पद छोड़ना स्वीकारा किन्तु धर्म छोड़ना स्वीकार नहीं किया । वह पौषधशाला में पौषध कर रहा है । मैं जाकर उस धर्मात्मा अमात्य के दर्शन करू । राजा अमात्य की पौषधशाला में पहुँचा जहाँ पर वह गुरु के सन्निकट बैठा हुआ आत्म-चिन्तन कर रहा था । राजा ने आते ही सर्वप्रथम आचार्यदेव को नमस्कार किया और फिर अमात्य से कहा- मैं इतने दिनों तक धर्म से विमुख था । आज मुझे सही सत्य का पता चला है कि तुमने अमात्य पद को छोड़कर धर्म को स्वीकार करने का जो संकल्प किया है इससे ज्ञात होता Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की महत्ता ६५ है कि अमात्य-पद से भी धर्म बढ़कर है। मैं उस धर्म को स्वीकार करना चाहता हूँ। मैं आज तक तुम्हारी धार्मिक साधना में जानकर बाधक बनता रहा। अब तुम निर्विघ्न साधना कर सकते हो। एक धार्मिक व्यक्ति का जीवन बहुत ही पवित्र और निर्मल होता है। उसमें तनिक मात्र भी लोभ और स्वार्थ नहीं होता। तुम्हारी देश हित, राज्यहित की पवित्र भाबना के कारण विरोधी तत्त्व राज्य का अहित नहीं कर सकते। वे मेरे को तुम्हारे विरुद्ध भड़काने की चेष्टा करते थे। कई मिथ्या आरोप लगाकर वे चाहते थे कि मैं तुम्हें हटा दूं। पर आज मुझे पता चला कि राज्य का सच्चा वफादार कौन है ? यही कारण है कि उन्होंने षड्यन्त्र रचकर तुम्हें मरवाने का प्रयास किया किन्तु तुम धार्मिक साधना में तल्लीन होने से बच गये और मेरे अंगरक्षक नापित के मन में अमात्य बनने की भावना होने से वह मारा गया। अमात्य ने कहा-राजन् ! मुझे तनिक मात्र भी विचार नहीं है कि मैं अमात्य-पद पर रहूँ या न रहूँ। मेरे मन में तो अपार आह्लाद हुआ था कि आपकी कृपा से मुझे धार्मिक साधना करने का विशेष अवसर Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ पंचामृत प्राप्त हुआ है। यदि आपश्री को मेरी सेवा की आवश्यकता है तो मुझे सेवा देने में किसी भी प्रकार का एतराज नहीं है । मुझे इस बात की विशेष प्रसन्नता हुई कि आपश्री के अन्तर्मानस में धार्मिक साधना के प्रति आस्था का संचार हुआ। आप जानते हैं यदि मैं अमात्य-पद के लोभ से धार्मिक साधना को छोड़कर आपकी सेवा में पहुँचता तो प्राणों से भी हाथ धोना पड़ता और साधना से भी च्युत होता। संसार के अन्दर धर्म से बढ़कर कोई चीज नहीं है। धर्म से जीवन में सुख और शान्ति का सरसब्ज बाग लहलहाने लगता है। इसलिए चाहे भले ही प्राण चले जाय तो भी हमें धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठ शासक पाटलिपुत्र में एक अजीब चहल-पहल थी। सारे नगरनिवासी सम्राट अशोक का जन्मोत्सव मनाने के लिए कटिबद्ध थे। सभी दिव्य और भव्य उपहार लेकर सम्राट् के पास पहुंच रहे थे। संगीत और वाद्य की मधुर ध्वनि झनझना रही थी। प्रियदर्शी अशोक अपने कक्ष से आकर आराम कक्ष में बैठे। उन्होंने कहामेरे अन्तर्ह दय में ये विचार-लहरियाँ उद्बुद्ध हुई हैं कि प्रस्तुत उत्सव की मधुर स्मृति सदा-सर्वदा जन-मानस में अंकित रहे, अतः मैं अपने विशाल साम्राज्य के जितने भी शासक हैं उनसे यह जानना चाहूँगा कि उनमें से कौन श्रेष्ठ शासक है। इसके लिए अत्यधिक शीघ्रता करने की आवश्यकता नहीं, प्रत्येक प्रान्तपति अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए अपने तर्क प्रस्तुत करें और यह प्रस्तुत करें कि उनके शासन में ऐसी कौन-सी उपलब्धि हुई। प्रियदर्शी अशोक की प्रस्तुत घोषणा ने जन-मानस में एक अभिनव चेतना का संचार किया। सभी ने एक Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ पंचामृत स्वर से सम्राट के विचारों का समर्थन किया। दूसरे क्षण उत्तरी सीमान्त के प्रान्तपति अपने आसन से उठे। प्रियदर्शी सम्राट अशोक को नमस्कार करने के पश्चात् उन्होंने अपनी उपलब्धियों का वर्णन करते हुए कहाराजन् ! राज्य की सुव्यवस्था हेतु राजकोष की अत्यधिक आवश्यकता है जिस राजा का कोष समृद्ध है उसे किसी बात की कमी नहीं रहती, इस दृष्टि से मैंने अपने नागरिकों पर विभिन्न प्रकार के कर लगाये जिसके फलस्वरूप राजकोष में विराट् सम्पत्ति एकत्रित हुई है। यदि आप राजकोष के आँकड़ों को देखेंगे तो बड़े ही आह्लादित होंगे। मुझे धन्यवाद प्रदान करेंगे। सम्राट् प्रियदर्शी ने बहुत अच्छा, कहकर उन्हें संकेत किया कि आप आसनपर बैठे और दक्षिण प्रान्तपति की ओर दृष्टि डाली । वे उठकर नम्रतापूर्वक खड़े हुए। उन्होंने अपनी उपलब्धियों की चर्चा करते हुए कहासम्राट् ! बिना स्वर्ण के सम्राट् की महत्ता नहीं है। जब तक राजकोष स्वर्ण से लबालब न भरा रहेगा वहाँ तक राज्य का संचालन सम्यक् प्रकार से नहीं हो सकता। अतः मैंने राजकोष की संपूर्ति के लिए येन-केन-प्रकारेण स्वर्णराशि एकत्रित की है। गत वर्ष से इस वर्ष पाँच गुना स्वर्ण राजकोष में अधिक है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठ शासक ६६ सम्राट् अशोक ने मध्यदेश के प्रान्तपति की ओर देखा । वे हर्ष से विभोर होकर सम्राट् को अभिवादन कर बोले- महाराजाधिराज ! मैंने राजकोष की अभिवृद्धि के हेतु प्रजा पर अनेक कर लगाये। जितने भी अधिकारी थे उन सभी का वेतन कम करके अत्यधिक अर्थराशि एकत्रित की। सम्राट् ने पूर्वीय प्रान्तपति की ओर दृष्टि फैलाई । वे मस्ती में झूमते हुए उठे - राजन् ! मैंने सोचा राज्य के लिए सैन्य शक्ति का होना आवश्यक है । मैंने अपनी सम्पूर्ण शक्ति सैन्य विभाग को समृद्ध करने में लगाई । जिससे सैन्य विभाग ने पूर्वी सीमा पर जो तत्त्व उपद्रव कर राज्य को नष्ट करने में तुले हुए थे, उन सभी को उन्होंने कुचल दिया । अब किसी भी शत्रु की हिम्मत नहीं जो आपके राज्य की ओर आँख उठाकर देख सके । पश्चिम प्रान्त के अधिपति की ओर सम्राट ने दृष्टि फैलाई। उन्होंने अभिवादन की मुद्रा में बतायाप्रतिपल प्रतिक्षण शत्रुओं के आक्रमण से मैं नया विकास कुछ भी नहीं कर सका हूँ । मैं अपनी प्रजा को हर प्रकार से सुख-सुविधाएँ देने के लिए कटिबद्ध हूँ । उसके पश्चात् मगध प्रान्तपति ने निवेदन किया Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० पंचामृत -राजन् ! मैंने अपनी प्रजा को प्रत्येक सुख-सुविधाएँ प्राप्त हों, इसलिए जितने भी अधिक कर थे उनसे उन्हें मुक्त कर दिया। राज्य के प्रत्येक कर्मचारी का वेतन पहले से दूना कर दिया। स्थान-स्थान पर पाठशालाएँ, चिकित्सालय, वाटिकाएँ, वापिकाएँ आदि प्रजा की सुविधा के लिए निर्माण की गई हैं । प्रजा के प्रत्येक व्यक्ति की अपील पर पूर्ण ध्यान दिया जाता है। मगध की प्रजा बहुत ही आह्लादित है । उसे किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं है। यही सबसे बड़ी उपलब्धि है। यद्यपि प्रस्तुत कार्य के लिए पुराने राजकोष को खाली करना पड़ा है, क्योंकि दुष्काल से छटपटाती हुई प्रजा को मैं नहीं देख सका। मैं सोचता हूँ राजकोष का उपयोग भी तो प्रजा के लिए ही है । यदि प्रजा दनादन मरती रहे और राजकोष की अभिवृद्धि की चिन्ता की जाय तो उसे मैं अनुचित मानता हूँ। मगध प्रान्तपति आसन पर बैठ भी नहीं पाये थे कि सम्राट अशोक अपने सिंहासन से उठ खड़े हुए। उन्होंने कहा.-मेरी दृष्टि से प्रजा को शोषित कर प्राप्त की गई धनराशि किसी काम की नहीं है। हमें ऐसा धन नहीं चाहिए जो प्रजा को अत्यधिक कष्ट देकर प्राप्त किया जाय। प्रजा पर अनुचित कर लगाना और उस कर से Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठ शासक ७१ स्वयं मौज उड़ाना, यह सर्वथा अनुचित है। हम प्रजा के अधिपति कहलाते हैं । शोषण करना हमारा काम नहीं, पोषण करना हमारा काम है। प्रजा की सुख-सुविधा के लिए हर तरह से प्रयास करना-इस दृष्टि से मैं मगधाधिपति को सर्वश्रेष्ठ प्रान्तपति घोषित करता हूँ। उन्होंने प्रजा के साथ जिस स्नेह और सद्भावना का बर्ताव किया वह अवश्य ही प्रशंसनीय है। उनका यह आदर्श प्रत्येक के लिए अनुकरणीय है। मैं उनका अभिनन्दन कर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करता Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्या अहं राज-सभा में राजा बैठा हुआ अपने राज्य की भावी प्रगति के सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन कर रहा था। सारे सभासद चुप बैठे हुए थे। उसी समय राजसभा में एक व्यक्ति ने प्रवेशकर राजा को नमस्कार किया। उस व्यक्ति के सिर पर एक रंगबिरंगी पगड़ी बँधी हुई थी, जो छोटे-छोटे वस्त्रों के टुकड़ों से तैयार की गई थी। उस विचित्र पगड़ी को देखकर सभासदों के चेहरे पर एक मधुर मुस्कान खिलने लगी। राजा भी उस विचित्र पगड़ी को देखकर मुस्कराने लगा। उसने पहली बार ही इस प्रकार की पगड़ी देखी थी। आगन्तुक व्यक्ति अत्यधिक चतुर था। उसे राजा के मानस को परखने में देर न लगी। उसने अत्यन्त विनय के साथ राजा को अभिवादन करते हुए कहा-राजन् ! यह पगड़ी जो मेरे सिर पर चमक रही है, दीखने में भले ही वह छोटे-छोटे वस्त्रों का पुलिंदा दिखाई देती हो, पर इसके समान विश्व में अन्य कोई पगड़ी नही है। यह पगड़ी मुझे एक सिद्धयोगी ने दी है। ___ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्या अहं ७३ राजा ने उत्सुकता से पगड़ी की ओर देखा और बोले-इस पगड़ी में ऐसी क्या विशेषता है ? शीघ्र ही मुझे वे विशेषताएँ बताओ। आगन्तुक व्यक्ति ने कहा-राजन् ! उस सिद्धयोगी ने मुझे इस पगड़ी की हजारों विशेषताएँ नहीं बताई। उन्होंने मेरी जिज्ञासा पर कहा-इस पगड़ी की जो विशेषताएँ हैं वे संसार में एक ही राजा को ज्ञात हैं। जब तू इस पगड़ी को पहनकर उसकी राजसभा में जाएगा तो वह दस हजार स्वर्णमुद्राओं में इस पगड़ी को खरीद लेगा। योगी के कथन से उत्प्रेरित होकर मैं आपश्री की राजसभा में उपस्थित हुआ हूँ। राजा ने पूछा-बताओ, वह राजा कौन है ? उसने निवेदन किया---मुझे नहीं पता वह महान् राजा कौन है ? आप स्वयं राजा हैं। इसलिए आप ही राजा की महत्ता समझ सकते हैं, मैं नहीं। राजा ने कहा-क्या मैं स्वयं इस पगड़ी को खरीद सकता हूँ? आगन्तुक व्यक्ति ने निवेदन किया---आप विश्व के विज्ञ राजाओं में से एक हैं। मुझे लगता है कि योगी Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ पंचामृत राज ने सम्भव है आपश्री को ही लक्ष्य में रखकर कहा हो। आप ही उनके लक्ष्य के केन्द्र रहे हों। राजा ने प्रधान अमात्य को आदेश देते हुए कहा-राजकोष से दस सहस्र स्वर्णमुद्राएं देकर इस पगड़ी को ले लो और इसे अच्छी तरह राजकोष में रख दो। प्रधान अमात्य ने राजा के आदेश को प्रतिवाद करना चाहा, वह स्वर्णमुद्राएँ देने में आनाकानी करने लगा। राजा की भौंहे तन गई । राजा ने उग्र होकर कहा-तुम्हें मेरे आदेश का पालन करना है । स्वर्णमुद्राएँ देने में क्षणमात्र का भी विलम्ब न करो। मुझे यह पगड़ी अपने पास में रखकर विश्व को बताना है कि इस पगड़ी की विशेषताओं को जानने वाला मैं ही प्रथम राजा हूँ। प्रधान अमात्य नहीं चाहता था, पर राजा के आदेश का पालन करना उसका कर्तव्य था। उसने उसी समय दस सहस्र स्वर्णमुद्राएँ उस आगन्तुक व्यक्ति के हाथ में थमा दीं। आगन्तुक व्यक्ति ने मंत्री के हाथ में अपनी पगड़ी दे दी और राजा को नमस्कार कर शीघ्र ही वहाँ से प्रस्थित हो गया। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्या अहं ७५ राजसभा से बाहर निकलने पर प्रधान अमात्य ने उससे कहा-- आज तुमने राजा को ठग लिया है । उसने कहा- मैं जानता हूँ राजा उतने बुद्धिमान नहीं होते । मुझे यह भी पता था कि आप जैसे बुद्धिमान व्यक्ति के सामने मेरी दाल न गलेगी । किन्तु मैं यह भी जानता था कि राजा इतने हठी होते हैं किं उनके सामने किसी की भी कुछ नहीं चल सकती । इस प्रकार के मूर्ख राजा अपने अहं के कारण राष्ट्र का हित साध नहीं सकते । राजा या शासक को सदा सूझ-बूझ का धनी होना चाहिए । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ प्रेम की परीक्षा एक नगर में दो भाई रहते थे । जब वे छोटे थे, तभी उनके माता-पिता का निधन हो चुका था । दोनों भाइयों में पय-पानीवत् प्र ेम था जिसके कारण आर्थिक स्थिति दयनीय होने पर भी उन्होंने अपना विकास किया। जन- जिह्वा पर उनके प्रेम की चर्चा थी । लोग कहते कि त्रेतायुग में तो राम-लक्ष्मण का प्रेम विश्रुत रहा, किन्तु कलियुग में इन दोनों भाइयों के प्रेम ने एक आदर्श उपस्थित कर दिया । दोनों भाई युवा हुए । उनकी जाति में एक ही पत्नी के अनेक पति होते थे । इसलिए दोनों भाइयों ने एक श्रेष्ठ सुन्दरी से विवाह कर लिया । जनता यह देखकर आश्चर्यचकित हुई कि वह सुन्दरी भी दोनों भाइयों से एक समान प्रेम करती हैं। उसके हृदयपटल पर कहीं भी भेद-रेखा दिखाई नहीं देती । सभी उसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते । राजा ने भी जब यह संवाद सुना तो उसके आश्चर्य का पार न रहा । उसने अपने प्रधान अमात्य से पूछा- यह कैसे संभव है कि एक पत्नी दो पतियों से समान प्र ेम कर सके ? Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम की परीक्षा ७७ अमात्य ने कहा- राजन् ! आपश्री का कथन पूर्ण सत्य है । यह कभी भी संभव नहीं है, पर सामान्य लोगों में तीक्ष्ण बुद्धि का अभाव होता है जिससे वे सही सत्य तथ्य को नहीं पहचान पाते । यदि आपश्री आदेश दें तो मैं परीक्षा कर बता सकता हूँ कि उस स्त्री का किस पति पर अधिक प्रेम है । राजा ने कहा- जरा परीक्षा कर बताओ । ऊषा की लालिमा अभी चमक रही थी, किं अमात्य उन दोनों भाइयों के मकान पर पहुँचा । और कहा- आप दोनों भाइयों का प्र ेम प्रशंसनीय है । और साथ ही आपकी पत्नी का प्रेम भी अपूर्व है । अतः राजा यह जानना चाहता है कि आपकी पत्नी को अपने दोनों पतियों में से एक को पूर्व दिशा में और दूसरे को पश्चिम दिशा में भेजना हो और पुनः सायंकाल बुलाने की बात हो तो वह किसे पूर्व दिशा में और किसे पश्चिम दिशा में भेजना चाहेगी ? पत्नी ने लघुभ्राता की ओर संकेत करते हुए कहा - मैं इन्हें पश्चिम दिशा में भेजना चाहूँगी और बड़े भ्राता की ओर संकेत करते हुए कहा - मैं इन्हें पूर्व दिशा की ओर भेजना चाहूँगी । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ पंचामृत मंत्री ने कहा- मुझे यही जानने के लिए राजां ने भेजा था। अब मैं जा रहा हूँ । मंत्री ने राजा को आकर निवेदन किया- राजन् ! उस स्त्री का अपने दोनों पतियों पर समान प्रेम हैयह कथन सत्य तथ्यरहित है । उसका प्रेम लघुभ्राता पर अधिक है और बड़े भ्राता पर कम है । राजा ने कहा - इस कथन का प्रमाण प्रस्तुत करो । केवल कह देने मात्र से ही यह सिद्ध नहीं हो सकता । मंत्री ने कहा- राजन् ! मैंने उससे पूछा तो उसने लघुभ्राता को पश्चिम दिशा में और ज्येष्ठभ्राता को पूर्व दिशा में भेजने के लिए कहा। जो पश्चिम दिशा में जाएगा उसको प्रातःकाल धूप सिर पर न रहेगी और सायंकाल लौटते समय भी धूप सिर पर न रहेगी । किन्तु पूर्व दिशा में जाने वाले को जाते समय और पुनः लौटते समय धूप सामने रहती है । उसने पश्चिम दिशा में भेजने के लिए छोटे भ्राता को कहा और बड़े भ्राता को पूर्व दिशा में भेजने को कहा -उसमें उसका स्पष्ट अनुराग झलक रहा है । राजा अमात्य की तीक्ष्ण बुद्धि को देखकर अत्यन्त O आह्लादित हुआ । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्त की परीक्षा - देवर्षि नारद विश्व में परिभ्रमण करते हुए विष्णु के पास पहुंचे। उन्होंने विष्णु को नमस्कार कर कहा-भगवन् ! मैं आपका सबसे बड़ा भक्त हूँ। आज मैंने भक्तों की सूची देखी, उसमें मेरा नाम नहीं था। इसे देखकर मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ। विष्णु मुस्कराने लगे। उन्होंने उस समय कोई उत्तर नहीं दिया। उत्तर न मिलने से नारद जी निराश हो गये और वहाँ से चल पड़े। कुछ दिनों के पश्चात् नारदजी घूमते-घामते पुनः विष्णु के दर्शन हेतु पहुँचे। उस समय विष्णु अपने बिस्तर पर पड़े हुए छटपटा रहे थे। उनकी अपार वेदना को देखकर नारद के पाँव वहीं ठिठक गये। उन्होंने कहा- भगवन् ! मैं आपके कष्ट को देख नहीं सकता। आप मुझे उपाय बताइए जिससे मैं आपश्री की उदरव्यथा को नष्ट करने का प्रयास कर सकूँ। . विष्णु ने कहा-मेरे उदर की व्यथा की उपशांति हेतु एक ही उपाय है और वह यह है कि जो सच्चा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० पंचामृत भक्त हो उसके कलेजे का जरा-सा मांस मिल जाय तो मैं इस रोग से मुक्त हो सकता हूँ। यह सुनते ही नारद हाथ में वीणा लेकर चल दिये। नारदजी उन बड़े-बड़े मन्दिरों में पहुँचे जहाँ भक्तगण भक्ति कर रहे थे। नारद ने उन भक्तों से विष्णु के लिए कलेजे के मांस की मांग की। किन्तु कोई भक्त तैयार नहीं हुआ। वहाँ वे से सीधे ही योगी और तपस्वियों के आश्रम में पहुँचे जो रात-दिन विष्णु के ध्यान में तल्लीन रहते थे। उनके सामने भी नारद ने विष्णु के उदरशूल की बात बताते हुए कहा कि औषधि के लिए भगवान् को अपने भक्त का मांस चाहिए। वे सभी योगी इधर से उधर बगलें झाँकने लगे तो वे वहाँ से सीधे ही देवों के पास पहुँचे उनसे भी भगवान के रुग्ण होने की बात कही, पर कोई भी अपने कलेजे का मांस देने के लिए प्रस्तुत न हुआ। वे हताश और निराश होकर एक जंगल में से जा रहे थे। नारदजी को उद्विग्न देखकर एक भील ने उनका रास्ता रोक लिया और पूछा-ऋषिप्रवर ! आपका चेहरा इतना चिन्तित क्यों है ? .. . .. .. नारदजी ने कहा--मेरे को तनिक मात्र भी समय Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्त की परीक्षा ८१ नहीं है कि मैं यहाँ तुमसे बातें कर सकूँ । मार्ग छोडो, मुझे जाने दो। भील ने सनम्र निवेदन किया-आप जो भी बात हो मुझे बताने का अनुग्रह करें । मैं आपकी सेवा के लिए प्रस्तुत हूँ। नारदजी को इच्छा न होते भी हुए अन्त में कहना पड़ा-भगवान विष्णु के पेट में भयंकर दर्द है। उनके लिए किसी भक्त के कलेजे के मांस की आवश्यकता थी। मैं उसी के लिए अन्वेषणा कर रहा हूँ। भील ने खिलखिलाकर हँसते हुए कहा- इतनी सी तुच्छ वस्तु के लिए आप इतने अधिक चिन्तित क्यों हो रहे हैं ? उसने चट से अपने हाथ की तलवार से अपना कलेजा काटकर देते हुए कहा-यह आप मेरा कलेजा ले जाकर भगवान को समर्पित कर दें। नारद को अत्यधिक प्रसन्नता हुई। वह झूमते हुए विष्णु के पास पहुँचे। उन्होंने विष्णु को भील का कलेजा देते हुए कहा-भगवन् ! इसे प्राप्त करने के लिए मुझे कठिन श्रम करना पड़ा है। इसके लिए मैंने तीनों लोकों को छान लिया। तब जाकर मुझे सफलता मिली। __ विष्णु ने मुस्कराते हुए कहा-इसके लिए इतने Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ पंचामृत परेशान होने की आवश्यकता न थी । क्योंकि कलेजा तो तुम्हारे पास भी था । यह सुनते ही नारद का सिर लज्जा से झुक गया । उन्हें यह समझते विलम्ब न लगा कि प्रस्तुत प्रसंग विष्णु ने उनकी परीक्षा के लिए ही रचा था । और उन्हें यह भी मालूम हो गया कि भगवान के भक्तों की सूची में उनका नाम क्यों नहीं है । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ लालच बुरी बला चन्द्रपुर नगर के बाहर एक वैष्णव साधु का बहुत बड़ा मठ था । प्रतिदिन सैकड़ों लोग उस साधु के सत्संग में आते । साधु ने अपने मधुर व्यवहार से जनमानस को जीत लिया था। नगर में धनदत्त नाम का एक श्रेष्ठी रहता था। उसके पास विराट् सम्पत्ति थी । किन्तु व्यापार में अत्यधिक नुकसान हो जाने के कारण सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। उसने सोचा- अब यहाँ पर मेरा व्यापार करना संभव नहीं है । मुझे विदेश में जाकर ही व्यापार करना चाहिए। पर मेरे पास पाँच बहुमूल्य रत्न हैं । यदि ये रत्न मैं विदेश लेकर जाऊँगा, इधर मेरा भाग्य मेरा साथ नहीं दे रहा है तो संभव है ये रत्न भी कोई चुरा ले । इसलिए इन रत्नों को यहीं पर किसी के यहाँ रख दूँ जिससे विदेश यात्रा से लौटने के पश्चात् मुझे पुनः सुरक्षित प्राप्त हो सकें। वह कुछ समय तक सोचता रहा कि रत्न कहाँ पर रखे जायँ । उसे ध्यान आया कि नगर के बाहर जो मणिप्रभ वैष्णव साधु है वह बहुत ही प्रामाणिक और निर्लोभी है । यदि Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ पंचामृत उसके पास ये रत्न रख दिये जायें तो पूर्ण सुरक्षित रहेंगे । 2 वह रत्नों को लेकर आश्रम में पहुँचा और अभिवादन कर मणिप्रभ साधु से कहा- गुरुदेव ! मेरे पास विराट् वैभव था, पर भाग्य के परिवर्तन से सारा वैभव नष्ट हो गया। सिर्फ मेरे पास ये पाँच रत्न रहे हैं । ये रत्न मुझे पिताश्री ने दिये थे । उन्होंने कहा था- इन रत्नों को मत बेचना । इन रत्नों के अतिरिक्त मेरे पास कुछ भी नहीं है इसलिए अब मेरा प्रस्तुत नगर में जीवन निर्वाह करना दूभर हो गया है । मैं इस नगर में भीख भी माँग नहीं सकता । इसलिए विदेश जाने की इच्छा है । पर सोचता हूँ कि विदेश में इन रत्नों को ले जाकर क्या करूँगा ? ये रत्न यहीं पर रख दूँ । जब विदेश से लौटकर आऊँगा तब ये पुनः मिल जाएँगे । मैंने बहुत चिन्तन के पश्चात् यह निर्णय किया है कि इन रत्नों को आपके पास रखा जाय । ये रत्न बहुत कीमती हैं, पर आप जैसे सन्तों के लिए तो चाहे रत्न हो या पत्थर हो सभी बराबर हैं । कृपया ऐसा स्थल बताइए जहाँ पर मैं इन्हें रख सकूँ । साधु मणिप्रभ ने रत्नों को देखा और कहाभाई ! ये रत्न तुम किसी दूसरे स्थान पर रख दो । यहाँ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लालच बुरी बला ८५ तो हम साधु लोग हैं। किसी की भी धरोहर रखना पसन्द नहीं करते। इसलिए तुम अन्य स्थान पर रख सकते हो। श्रेष्ठी धनदत्त ने कहा- मुझे अन्य किसी पर भी विश्वास नहीं है। आप तो तरण-तारण जहाज हैं। कृपा कर रख लीजिए। साधु ने कहा-देखो धनदत्त ! हम रखना तो नहीं चाहते थे। पर तुम्हारे हार्दिक-प्रेम को कैसे टाल सकते हैं ? किन्तु यह बात किसी को भी मत कहना। नहीं तो एक तरह से यहाँ जमघट मच जाएगा। और हमारी धार्मिक साधना में बाधा उपस्थित होगी। श्रेष्ठी ने कहा-गुरुदेव ! मैं किसी को भी नहीं कहूँगा। आप इन्हें योग्य स्थान पर रख दीजिए। साधु ने कहा-देख भाई ! हम तो हाथ लगाते नहीं हैं। तू ही अपने हाथ से अमुक स्थान पर रख दे और जब तुझे आवश्यकता हो सहर्ष आकर ले लेना। तेरी धरोहर ज्यों की त्यों पड़ी रहेगी। श्रेष्ठी धनदत्त साधु मणिप्रभ के बताये हुए स्थान पर रत्नों को रखकर चल दिया। उसके जाने के पश्चात् मणिप्रभ ने रत्नों को अच्छी तरह से देखा। रत्न अत्यधिक मूल्यवान् थे । रत्नों को देखकर मणिप्रभ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ पंचामृत के मुँह में पानी आ गया । ये रत्न तो बहुत अच्छे हैं । क्यों न मैं इन रत्नों को हजम कर जाऊँ । यह सोचकर मणिप्रभ ने वे रत्न दूसरे स्थान पर रख दिये । कुछ दिनों के पश्चात् मणिप्रभ ने आश्रम का मुख्य द्वार बन्द करवाकर दूसरी दिशा में नया द्वार खोल दिया जिससे यह पता लगे कि प्रस्तुत आश्रम नया है । कहीं धनदत्त श्रेष्ठी विदेश से लौटकर मुझे न पहचान ले, इसलिए उसने दाढ़ी-मूंछें और जटाएँ बढ़ा लीं। साथ ही अपनी एक आँख भी फोड़ दी । श्रेष्ठी धनदत्त विदेश गया । भाग्य ने साथ दिया । उसने लाखों रुपये कमाये । बारह वर्ष तक व्यापार करने के पश्चात् वह पुनः अपने नगर लौट रहा था । रास्ते में तस्करों ने उसे लूट लिया। उसका सारा धन अपहरण कर लिया । वह हताश और निराश होकर चन्द्रपुर पहुँचा । उसने सोचा- मेरा भाग्य ऐसा ही है । बारह वर्ष तक कठिन श्रम से कमाया हुआ धन भी न रहा । अब यही एक उपाय है कि मेरे पास जो पाँच रत्न हैं उनमें से एक रत्न को बेचकर मैं अपना जीवनयापन करूँ । चन्द्रपुर पहुँचकर वह सीधा ही आश्रम में पहुँचा । किन्तु आश्रम का द्वार बदला हुआ था । वह सोचने Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लालच बुरी बला ८७ लगा । मैं जब यहाँ से गया था उस समय आश्रम का द्वार पूर्व में था। अब पश्चिम में कैसे हो गया? वह आश्रम में पहुँचा। उसने आश्रम के साधु को नमस्कार कर पूछा-बाबाजी ! आपका नाम क्या है ? __ मणिप्रभ ने देखा यह वही रत्नों को रखनेवाला आ गया है। अतः उसने कहा-मेरा नाम चन्द्रप्रभ है। 'बाबाजी ! यहाँ पर पहले मणिप्रभ साधु थे । वे इस समय कहाँ हैं ?' धनदत्त ने पूछा। उस साधु ने कहा-वे तो कभी के मर गये। श्रेष्ठी धनदत्त ने देखा कि दाढ़ी, जटा और मूंछे बढ़ा लेने पर भी मणिप्रभ की आकृति छिप नहीं रही थी। उसने कहा-सन्त होकर भी आप झूठ बोल रहे हैं । आप स्वयं मणिप्रभ हैं। आपने आकृति बदलने का प्रयास किया है किन्तु मैं आपको अच्छी तरह से जान गया हूँ। कृपया मेरी धरोहर जो आपके पास रखी हुई है, वह मुझे दे देवें । आपको स्मरण है न ? मैंने बारह वर्ष पूर्व आपके पास पाँच रत्न रखे थे। वे रत्न मुझे लौटा दीजिए। मुझे उन रत्नों की अत्यधिक आवश्यकता है। मणिप्रभ ने आँखें लाल करते हुए कहा-तुम कैसी Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ पंचामृत मिथ्या बात करते हो ? सन्तों के यहाँ पर रत्नों का लेना-देना ही क्या है ? तुमने दूसरे स्थान पर रत्न रखे होंगे और भूल से मेरा नाम बदनाम करने के लिए मेरा नाम ले रहे हो। यह उचित नहीं है । वह साधु ही कैसा जो दूसरों के धन को रखता हो ? तूने मेरे पास रत्न कब रखे थे? चला जा यहाँ से । यदि चारपाँच की तो डण्डे पड़ेंगे। श्रेष्ठी धनदत्त भयभीत होकर उल्टे पैरों वहाँ से लौट गया। किन्तु उसका चेहरा मुरझा गया ! स्वप्न में भी उसे यह कल्पना नहीं थी कि साधु इस प्रकार का व्यवहार करेगा। वह सोचने लगा कि ऐसा कौन-सा उपाय करूं जिससे ये रत्न साधु के पास से निकल सकें। लम्बे समय तक सोचने के पश्चात् उसे सूझा कि कामलता वेश्या चाहे तो मुझे रत्न दिलवा सकती है। क्योंकि वह बहुत ही बुद्धिमती है। यदि मैं उसे अर्थ दूं तो वह मेरा कार्य सम्पन्न कर सकती । - धनदत्त श्रेष्ठी कामलता वेश्या के पास पहुँचा और सारी रामकहानी उसे सुनाते हुए कहा-इस प्रकार साधु वेषधारी मणिप्रभ ने मुझे धोखा दिय है। तुम मुझे पाँचों रत्न दिला दो तो मैं तुम्हारा उपकार ____ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लालच बुरी बला τ जीवनभर नहीं भूलूंगा । साथ हीं तुम्हें योग्य पुरस्कार देकर तुम्हारा सम्मान करूँगा । कामलता ने कहा- उस साधुवेषधारी को मैं ऐसा पाठ पढ़ाऊँगी कि वह भी याद करे । कामलता ने धनदत्त को कहा- मेरे आश्रम में पहुँचने के एक घण्टे के पश्चात् आश्रम में आना। और उस साधु से रत्न माँगना । वेश्या ने सोलह श्रृंगार सजाये । बहुमूल्य आभूषण धारण किये और दो पेटियाँ अपनी दासियों के सिर पर रखवाकर मणिप्रभ के आश्रम में पहुँची । मणिप्रभ वेश्या को आश्रम में आयी हुई देखकर विस्मित हुआ । वेश्या ने मणिप्रभ को नमस्कार किया और बतायागुरुदेव ! आप तो महान् पवित्र आत्मा है । जीवनभर साधना में लगे रहे हैं । पर मैं पापात्मा हूँ । जीवन भर मैंने पाप ही पाप किये हैं । राजा-महाराजा लोगों से करोड़ों की सम्पत्ति प्राप्त की है । अब विचार हुआ कि उस पाप से मुक्त होने के लिए तीर्थयात्रा करूँ | तीर्थयात्रा के लिए जाने की सोच रही हूँ । पर यह विराट् सम्पत्ति घर में रखकर जाऊँ तो कभी न कभी खतरा हो सकता है । बहुत कुछ सोचा तभी मेरा ध्यान आपकी ओर केन्द्रित हुआ । आप जैसी पवित्र आत्मा संसार में दुर्लभ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hcien c ६० पंचामृत है। आपके लिए तो कंचन और कामिनी दोनों ही त्याज्य हैं। आप तो उसे मिट्टी के ढेले के समान समझते हैं। इसीलिए बहुमूल्य आभूषणों की ये दो मंजूषा जिनमें बहुमूल्य जवाहरात हैं, आपके यहाँ रखना चाहती हूँ ताकि पुनः तीर्थयात्रा से लौटने पर मुझे प्राप्त हो सकें। ____साधु मणिप्रभ ने कहा-इन आभूषणों की मंजूषाओं को रखना मेरे लिए कैसे सम्भव होगा? तथापि तुम्हारी भक्ति से उत्प्रेरित होकर मैं यहाँ रखने की तुमको अनुमति देता हूँ। जब भी तीर्थयात्रा से लौटोगी तब ये तुमको सुरक्षित मिल जाएगी। मणिप्रभ और कामलता वेश्या की बात चल ही रही थी, उसी समय श्रेष्ठी धनदत्त वहाँ आ पहुँचा। उसने आते ही आवाज लगाई कि यह साधु पाखण्डी है, ढोंगी है, इसने मेरे दस रत्न हड़प लिए हैं। वेश्या ने बाबा से पूछा-बाबाजी ! क्या बात है ? यह यों क्यों चिल्ला रहा है ? साधु ने कहा-इसने मेरे पास रत्न रखे थे पाँच रत्न और यह दस रत्न मांग रहा है । देखो कितना झूठ बोलता है । अब मैं दस रत्न कैसे दे सकता हूँ? वेश्या ने कहा-बाबाजी ! आप इसके पाँच रत्न दे दीजिए। क्योंकि जिस दिन यह रत्न लेकर आया था Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लालच बुरी बला ९१ और आपको रखने के लिए प्रार्थना कर रहा था उस दिन मैं इधर से निकली थी। मैंने भी सुना था। अतः यह झूठ बोल रहा है कि मैंने दस रत्न रखे हैं । वेश्या ने उसको फटकारते हुए कहा-पाँच रत्न रखकर दस रत्न माँगना कहाँ का न्याय है ? बाबाजी ने कहा-मैं पाँच रत्नों को तो अभी देने के लिए तैयार हूँ और उठकर उन्होंने जहाँ पाँच रत्न रखे हुए थे लाकर धनदत्त को दे दिये। धनश्रेष्ठी अपने रत्नों को लेकर प्रसन्नता से चल दिया। कुछ समय के पश्चात् वेश्या की दासियों ने आकर कहा-मालकिन ! घर पर राजा आये हैं। आपको उन्होंने बुलाया है। राजा ने कहा है कि तीर्थयात्रा के लिए तुम अकेली न जाओ। कुछ दिनों के पश्चात् हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे। वेश्या अपनी मंजूषाएँ लेकर चल दी। साधु मणिप्रभ सोचने लगा-वस्तुतः लालच बुरी बला है। मैंने तो यह सोचकर रत्न उसे दिये कि वेश्या के बहुमूल्य आभूषणों को रख लूँगा। पर न तो आभूषण रहे और न रत्न ही रहे। वह मन ही मन में अपने कृत्य पर पश्चात्ताप करने लगा-जिस लोभ के कारण मैंने आँख फोड़ी, रूप कुरूप बनायो वे रत्न भी नहीं रहे। लोभ ने मेरा कितना पतन किया। ___ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न-फल कोशलनरेश अपने राजप्रासाद में सोये हुए थे। रात्रि का उत्तरार्द्ध था। उस समय उन्हें गहरी निद्रा नहीं आ रही थी। उन्होंने उस अर्धजागृत अवस्था में सोलह स्वप्न देखे । स्वप्न देखने के पश्चात् वे उठ बैठे। मन में नाना विचार चक्कर लगाने लगे। उनका शरीर भय से काँप उठा। स्वप्नशास्त्र के जानकार न होने से मन में विविध प्रकार के संकल्प-विकल्प उद्बुद्ध हो रहे थे कि इन स्वप्नों का क्या फल होगा ? शेष रात्रि चिन्ता में ही पूर्ण हुई। . प्रातःकाल ब्राह्मणों ने राजा को आशीर्वचन देते हुए कहा-राजन् ! आपका चेहरा आज मुरझाया हुआ क्यों है ? राजा ने कहा-आज रात्रि में मैंने सोलह स्वप्न देखे हैं। मुझे नहीं पता उन स्वप्नों का क्या फल होगा? आप विज्ञगण जरा स्वप्नों पर चिन्तन कर मुझे बतायें कि ये स्वप्न लाभप्रद हैं या हानिकर हैं। .. पण्डितों ने चिन्तन के पश्चात् कहा-राजन् ! ये स्वप्न बड़े ही विचित्र हैं। लगता है इन स्वप्नों का Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न-फल ३ परिणाम अत्यधिक हानिप्रद होगा। आपको ही नहीं संपूर्ण प्रजा पर कष्टों का पहाड़ गिरने वाला है। यह सुनते ही कोशलनरेश अत्यधिक चिन्तित हो उठे। उन्होंने कहा-विज्ञो ! ऐसा कोई उपाय करो जससे स्वप्नों का दुष्प्रभाव सदा के लिए मिट जाय। पंडितों ने विचार किया-इस समय बहुत बड़े सम्राट् को फंसाने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। अतः हमें बहुत बड़ी योजना राजा के सामने प्रस्तुत करनी चाहिए। उन्होंने कहा-राजन् ! इस स्वप्न के दुष्प्रभाव को मिटाने के लिए हमें यज्ञ करना होगा। उस यज्ञ के लिए सैकड़ों पशुओं की बलि देनी होगी। यदि आप चाहें तो हम उस कार्य को कर सकते हैं। . राजा ने सहर्ष कहा-राज्य की सुरक्षा के लिए, प्रजा की सुख शांति के लिए मुझे जो कुछ भी करना होगा मैं करने के लिए तैयार हैं। इसमें आप जो भी करना चाहें सहर्ष कर सकते हैं। आप अपना कार्य प्रारम्भ करें और जो भी आज्ञा हो मुझे सहर्ष सूचित कर दें। पंडितों ने एक विराट् यज्ञ का आयोजन किया। जहाँ-तहाँ बढ़िया पशुओं को एकत्रित करना प्रारंभ किया। हजारों पशु एकत्रित किये गये । उनके करुण ___ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ पंचामृत चीत्कार से सारा वातावरण ही विकृत हो गया। राजा की कुलरक्षिका मल्लिकादेवी ने इस भीषण जीवसंहार को देखा तो उसका हृदय भी द्रवित हो उठा। उसने स्वप्न में राजा से कहा-राज्य के संवर्द्धन और सुख-शान्ति के लिए इस रक्त से सने हुए कृत्य को बन्द करो। इस भीषण संहार से तो हानि है, लाभ नहीं। राजा ने संरक्षिका से कहा-देवी ! यह कार्य मैंने अपनी इच्छा से नहीं किया है। राज्य के मुख्य विज्ञों से स्वप्नों के सम्बन्ध में पूछा गया तो उन्होंने स्वप्नों के दुष्परिणाम को टालने के लिए यह उपाय बताया है। इसलिए मुझे यह उपाय करना पड़ेगा। नहीं तो राज्य की सुरक्षा नहीं है और न मेरी ही सुरक्षा है। देवी ने कहा-तुम्हारा कहना ठीक है, पर तुमने उन अर्थलोभी पंडितों से तो पूछा है, किन्तु जेतवन में अवस्थित तथागत बुद्ध से नहीं पूछा है ? क्योंकि वे तो विज्ञों के भी विज्ञ हैं। वे स्वप्नों के सम्बन्ध में जो बतायेंगे वह यथार्थ होगा। अतः तुम उनसे जाकर इस सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत करो। इस प्रकार कहकर देवी अन्तर्धान हो गई। प्रातः राजा जेतवन में पहुँचा जहाँ तथागत बुद्ध ___ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ ठहरे हुए थे । अभिवादन कर अपने देखे हुए सोलह स्वप्नों के सम्बन्ध में पूछने लगा। बुद्ध ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा - राजन् ! तुम अपने सभी स्वप्न मुझे क्रमशः सुनाओ। मैं उन स्वप्नों के सम्बन्ध में अपने यथार्थ विचार तुम्हें सुनाऊँगा । राजा ने कहा - भदन्त ! सर्वप्रथम मैंने स्वप्न में देखा - कृष्ण वर्ण के चार मदोन्मत्त सांड चारों दिशाओं से लड़ने के लिए मध्य चौराहे में आए हैं । वे गंभीर उद्घोषणा कर रहे हैं। उनकी गंभीर गर्जना को सुनकर हजारों लोग उन्हें देखने के लिए वहाँ एकत्रित हो गये हैं । किन्तु कुछ क्षणों के पश्चात् वे बिना लड़े ही लौट गये । कृपया बताइये इस स्वप्न का क्या फल होगा ? स्वप्न-फस बुद्ध ने कहा -- इस स्वप्न का फल तुम्हें प्राप्त नहीं होगा । इसका फल भविष्य पर आधृत है । देखो, कलियुग में चारों ओर से काले कजरारे बादल उमड़-घुमड़ कर आयेंगे । जनता को ऐसा प्रतीत होगा कि भयंकर वर्षा होने वाली है । सभी लोग अपनी सुरक्षा के लिए तैयारी करेंगे । किन्तु देखते-देखते कुछ ही क्षणों में बादल छँट जायेंगे और चिलचिलाती धूप निकल आएगी । जनता वर्षा के लिए तरसती रह जाएगी । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ पंचामृत ... राजा ने निवेदन किया-भगवन् ! द्वितीय स्वप्न में मैंने देखा कि वृक्ष दो बालिश्त का ही है और वह फलने-फूलने लगा है। बुद्ध ने कहा-प्रस्तुत स्वप्न का फल भी भविष्य में होने वाली घटनाओं का सूचक है। भविष्य में छोटीछोटी बालिकाएँ पुत्र-पुत्रियों को जन्म देंगी। . राजा ने निवेदन किया-भगवन् ! मैंने तृतीय स्वप्न में देखा कि गाय अपनी बछड़ी का दूध पी रही - तथागत ने कहा--प्रस्तुत स्वप्न भी भविष्य का सूचक है। आने वाले भविष्य में माता-पिता अपनी सन्तानों को बेचकर उस धन से अपनी आजीविका चलायेंगे। वे सन्तानों पर आश्रित हो जायेंगे । उनका मुह ताकते रहेंगे। । राजा ने कहा-भगवन् ! मैंने चतुर्थ स्वप्न में देखा-महासामर्थ्यवान बैल जो रथ में जुतने योग्य हैं उन्हें रथ में न जोतकर अपरिपक्व बैलों को रथ में जोत दिया गया है, जो कुछ क्षणों तक रथ के भार को खींचते रहे, पर शक्ति के अभाव में भार को न खींचने के कारण मध्य रास्ते में ही गिर पड़े जिससे रथ में बैठने वाले संत्रस्त हो गये। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्ध ने कहा-यह स्वप्न भी भविष्य की सूचना दे रहा है। भविष्य में न्यायालय या शासन-सूत्र का संचालन योग्य व्यक्तियों को न देकर अयोग्य व्यक्ति को दिया जाएगा। वे स्वार्थी लोग शासन को सम्यक् प्रकार से न चला सकेंगे और जनता दलदल में फंस जाएगी। वह संत्रस्त होकर शासक को पुकारेगी, पर शासक उनकी एक भी न सुनेगा। सभी अपनी स्वार्थसिद्धि में लगे रहेंगे। राजा ने कहा-पांचवें स्वप्न में मैंने दो मुह वाला घोड़ा देखा जो हरी-भरी घास को दोनों मुह से खा रहा है। बुद्ध ने कहा-यह स्वप्न भी भविष्य का ही सूचक है। भविष्य में बड़े-बड़े सत्ताधारी व्यक्ति भी प्रगट रूप से रिश्वत लेंगे। राजा ने कहा-छठे सपने में मैंने देखा-स्वर्ण थाली में शृगाल मलमूत्र विसर्जन कर रहे हैं। बुद्ध ने कहा-यह स्वप्न भी भविष्य का ही सूचन करता है। आने वाले भविष्य में जो विशिष्ट सज्जन पुरुष होंगे उनका सत्कार नहीं होगा। उनकी कुलमर्यादाएँ समाप्त हो जाएंगी और जो दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति होंगे, वे पनपने लगेंगे। वे ऐश्वर्यसम्पन्न Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ पंचामृत होंगे | राज्यश्री उनके चरण चूमने के लिए लालायित रहेगी । राजा ने निवेदन किया- भगवन् ! मैंने सातवें स्वप्न में देखा एक व्यक्ति रस्सी को बँटता जा रहा हैं और पीछे से एक शृगालिनी उस रस्सी को खा रही है जिससे उसकी सारी मेहनत व्यर्थ हो रही है । बुद्ध ने कहा- भविष्य में पति कठिन श्रम करके धन अर्जित करेगा और पत्नी उस समस्त धन को अपने आभूषण, वस्त्र तथा अन्य भौतिक पदार्थों के पीछे खर्च कर देगी जिससे सन्तानों का भरण-पोषण भी कठिन होने लगेगा | राजा ने कहा - भगवन् ! आठवें स्वप्न में मैंने देखा कि राजद्वार पर बहुत सारे घड़े रखे हुए हैं। उन घड़ों के बीच में एक बड़ा घड़ा रखा है जो पानी से लबालब भरा है, किन्तु शेष छोटे घड़े खाली पड़े हैं । उस समय चारों दिशाओं से चारों वर्ण के लोग आते हैं और उस बड़े घड़े में पानी डालते हैं । पानी बाहर निकल रहा है जिससे आसपास कीचड़ ही कीचड़ हो गया है । पर कोई भी उन छोटे घड़ों में जो खाली पड़े हैं, उनमें पानी नहीं डाल रहा है । वे खाली सूखे पड़े हैं । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न फल && · . बुद्ध ने कहा - प्रस्तुत स्वप्न भी भविष्य का ही प्रतीक है । जो शासक होगा अथवा जो पैसे वाला होगा उसी का सर्वत्र आदर होगा । उनकी इच्छा न होते हुए भी उन्हें जबरन भोजन कराया जाएगा। वे मिष्टान्न जैसे बहुमूल्य पदार्थ भी जूठन में डालेंगे । किन्तु जो उनके सन्निकट रहने वाले गरीब लोग हैं, वे एक-एक दाने के लिए तरसेंगे, उन्हें कोई भी देना पसन्द नहीं करेगा । वे भूखे-प्यासे ही पड़े रहेंगे । चारों वर्ण वाले धनवानों का, सत्ता-संपत्ति वालों का बहुमान करेंगे | राजा ने नौवें स्वप्न को बताते हुए कहा- मैंने एक सुन्दर और सुगंधित सरोवर देखा जहाँ पर मानव ही नहीं पशु-पक्षी भी आकर पानी पीते हैं । उस सरोवर के किनारे का जल बिलकुल ही स्वच्छ और निर्मल है, पर सरोवर के बीच का जल सड़ा हुआ तथा गंदा है । बुद्ध ने कहा- सरोवर के किनारे का भाग निर्मल था तो इसका अर्थ है जो शहर के सन्निकट गाँव रहेंगे वहाँ के लोग भद्र होंगे, किन्तु नगरनिवासी लोगों का जीवन अनेक दुर्व्यसनों का शिकार होगा । नगरों में विविध प्रकार के कर लगाए जाएँगे जिससे नगर का Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० पंचामृत जीवन बहुत ही कष्टप्रद होगा। नगर निवासियों की अपेक्षा ग्रामीण व्यक्तियों का जीवन सुखी होगा। राजा ने कहा-मैंने दसवें स्वप्न में देखा-एक ही बरतन में चावल पकाये हैं। उनमें से कुछ चावल तो बहुत ही अच्छी तरह से पक गये हैं। कुछ चावल आधे पके हुए हैं और कुछ चावल बिलकुल ही नहीं पके हैं। बुद्ध ने कहा-राजन् ! प्रस्तुत स्वप्न भी भविष्य का ही प्रतीक है। किसी स्थान पर अत्यधिक वर्षा होगी, किसी स्थान पर कम वर्षा होगी और किसी स्थान पर बिलकुल ही सूखा रहेगा। खेतों में भी किसी खेत में अत्यधिक अन्न उत्पन्न होगा, किसी में कम होगा और किसी में बिलकुल न होगा। राजा ने निवेदन किया-भगवन् ! मैंने ग्यारहवें स्वप्न में देखा एक लाख स्वर्णमुद्राओं का कीमती गोशीर्ष चन्दन खट्टी छाछ के बदले में बिक रहा है। बुद्ध ने कहा-श्रमण लोग गोशीर्ष चन्दन की तरह कीमती हैं। किन्तु वे अपने लक्ष्य को भूल जाने के कारण अशन-वसन-भवन आदि के लिए साधना को विस्मृत होकर भटकते रहेंगे। जो वस्तुएँ खट्टी छाछ की तरह निर्मूल्य हैं उनके बदले में अपनी कीमती साधना बेच देंगे। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न-फला १०१ राजा ने कहा-भगवन् ! बारहवें एवं तेरहवें स्वप्नों में मैंने देखा-तुम्बे जो पानी पर तैरते हैं, वे पानी में डूब रहे हैं और जो भारी भरकम वस्तुएँ हैं वे तैर रही हैं। बुद्ध ने कहा- भविष्य में जो क्रियानिष्ठ, चारित्रनिष्ठ, सत्यवादी सन्त होंगे उनकी किसी भी प्रकार की पूछ नहीं होगी। और जो पाखण्डी, दुराचारी तथा ढोंगी होंगे, वे अपने मायाचार से सर्वत्र आदर प्राप्त करेंगे। उनकी बातें लोग सुनना पसन्द करेंगे। धर्म के नाम पर पाखण्ड पनपेगा । शालीनता के नाम पर अश्लीलता अपना साम्राज्य जमाएगी। पापी व्यक्तियों के हाथों में शासन-सूत्र होगा, उन्हें सम्मान मिलेगा। और सभ्य व्यक्तियों को कई बार कारागृहों की हवा खानी पड़ेगी। राजा ने निवेदन किया-भगवन् ! मैंने चौदहवें स्वप्न में देखा छोटे-छोटे मेंढक विराटकाय काले नागों को निगल रहे हैं। बुद्ध ने कहा-राजन् ! यह स्वप्न भी भविष्य का ही सूचक है। मेंढक की तरह जो घर में बाल-बच्चे और स्त्री होंगी वे घरमालिक जो सर्प की तरह होगा, उसे भी निगल जायँगी । अर्थात् घरमालिक का Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ पंचामृत पुरुषार्थ घरमालिकिनी के सामने कुछ नहीं चलेगा । उस पर उन्हीं का शासन रहेगा । राजा ने कहा- भगवन् ! मैंने पन्द्रहवें स्वप्न में देखा - एक राजहंसों की सुन्दर सभा है । उस सभा का नेतृत्व एक कौआ कर रही है । वह अध्यक्ष के स्थान पर नियुक्त है । बुद्ध ने कहा- भविष्य में जो व्यक्ति राजहंस की तरह कुलीन हैं उनके हाथों से शासनसूत्र निकल जाएगा और अकुलीन तथा दुर्व्यसनी व्यक्ति जो कौए के समान हैं वे शासनसूत्र का संचालन करेंगे और अपने संकेत पर उन राजहंसों को नचाएँगे । राजा ने निवेदन किया- भगवन् ! मैंने सोलहवें स्वप्न में देखा कि भेड़-बकरियों के झुण्ड ने मिलकर शेर को भगा दिया है। शेर उनसे भयभीत होकर भाग रहा है। १ उसभारूक्खा गावियो गवाच, अस्सो कंसो सिगाली च कुंभो । पोक्खरणी च अपाक चंदन लापु, निसीदस्ति सिलाप्लवन्ति ॥ मण्डकियो कण्ह सप्पे गिलंति, काकं सुवण्णा । परिवारयति तसावक्ता एलकानं भयाहि । विपरियां सक्त तिन इधमत्थी ! | Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न फल १०३ बुद्ध ने कहा- यह स्वप्न भी भविष्य का ही चित्रण कर रहा है। शेर के समान जो धर्मी हैं उनको भेड़ और बकरियों की तरह पापी लोग भगा देंगे। वे उन पर ऐसे आरोप लगाएँगे जिससे उन पापियों और दुरात्माओं से वे बचते रहेंगे । राजा सभी स्वप्नों के फल को सुनकर बहुत ही प्रमुदित हुआ । बुद्ध ने कहा- राजन् ! ये पण्डित लोग तुम्हें भ्रम में डालकर अपना कार्य सिद्ध करना चाहते हैं । हिंसा - परक कृत्य से वे शांति करना चाहते हैं जो कभी भी संभव नहीं है । तुम्हें घबराने की आवश्यकता नहीं है । इन स्वप्नों का फल तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं । तुम्हारे को कोई अनिष्ट नहीं होगा। तुम अहिंसा को अपनाओ, दान, धर्म और शील की आराधना करो जिससे तुम्हारें जीवन में सुख-शान्ति का सरसब्ज बाग लहराने लगे । राजा ने तथागत बुद्ध के उपदेश से प्रभावित होकर हिंसापरक यज्ञ का परित्याग कर दिया । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ लाख नहीं, साख कपड़े का एक बहुत बड़ा व्यापारी था । प्रामाणिकता और नीति से वह व्यापार करता था । ग्राहकों के साथ उसका बहुत ही मधुर व्यवहार था जिससे वह नगर का लोकप्रिय व्यापारी बन गया । अन्य वस्तुओं के साथ वह रेशम के बहुमूल्य वस्त्र भी रखता था । एक दिन राजा को रेशम के बहुमूल्य वस्त्रों की आवश्यकता हुई। उसने अपने अनुचर भेजकर व्यापारी को बुलवाया । व्यापारी एकाएक बुलाने के कारण घबरा गया । राजा ने उसने पूछा- बताओ, तुम्हारी दूकान में रेशम के वस्त्र हैं ? व्यापारी समझ ही नहीं सका कि वह क्या उत्तर दे ? अकस्मात् उसके मुँह से निकल गया - महाराज ! मेरी दूकान में रेशम के वस्त्र नहीं हैं । । वह लौटकर जब दूकान पर आया तो उसे ध्यान आया कि मैंने भय के कारण राजा के सामने झूठ बोल दिया है । वह मन ही मन घबराने लगा । राजा के चापलूस अनुचरों ने कहा- राजन् ! Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाल नहीं, सास १०५ आश्चर्य है उस सेठ ने आपके सामने झूठ कहा है। हम अभी-अभी देखकर आये हैं उसकी दूकान में रेशम के वस्त्र हैं। - राजा ने कहा-यह व्यापारी बड़ा ही सत्यवादी है। मुझे आत्म-विश्वास है वह कभी भी झूठ नहीं बोल सकता। उन लोगों ने कहा-आपको हमारे कथन पर विश्वास नहीं है तो आप हमारे साथ ही दूकान पर चलकर देखें । आपको ज्ञात हो जाएगा व्यापारी कितना झूठ बोलता है। राजा ने कहा-अभी तो समय नहीं है, कल सुबह वेष परिवर्तन करके चलेंगे। सेठ ने अपने पुत्रों को बुलाकर कहा-आज बहुत ही गजब हो गया है। अकस्मात् राजा के बुलाने के कारण मैं इतना भयभीत हो गया कि मुझे क्या कहना चाहिए यह ध्यान ही न रहा और मेरे मुह से यही निकल गया कि मेरी दूकान में रेशमी वस्त्र नहीं है। पर जब मैंने आकर देखा बहुत सारा रेशमी वस्त्र दूकान में भरा पड़ा है। अब वचन की सत्यता सिद्ध करने के लिए जितना भी रेशमी कपड़ा है उसे जला देना है। विनीत पुत्रों ने कहा-पिताजी ! दूकान में लाखों का रेशमी ___ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ पंचामृत वस्त्र है। यदि आपके मुह से निकल गया तो क्या हो गया ? व्यापारी ने कहा-पुत्रो! चिन्ता लाख की नहीं है, किन्तु साख की है। यदि लाख नष्ट भी हो जाय और साख बनी रहे तो लाख पुनः आ जाएंगे। यदि साख चली गई और लाख बचे रहे तो किस काम के ? पिता के आदेश से पुत्रों ने वह सारा रेशमी वस्त्र जला दिया। दूसरे दिन प्रातःकाल वेष परिवर्तन करके राजा सेठ की दूकान पर पहुँचा। उसने अच्छी तरह से दूकान की एक-एक वस्तु का निरीक्षण किया। किन्तु कहीं पर भी रेशम का वस्त्र दिखाई नहीं दिया। राजा ने अपने उन चुगलखोरों से कहा-तुम कहते थे कि सेठ की दूकान में लाखों का रेशमी वस्त्र है। किन्तु यहां तो एक भी टुकड़ा नहीं है। मेरे सामने इस प्रकार झूठी बातें कहते शरम नहीं आती ? राजा ने अपने अनुचरों को आदेश दिया कि इन चुगलखोरों की जीभ निकाल दो ताकि भविष्य में इस प्रकार मिथ्या प्रलाप न कर सकें। व्यापारी के कान में भी वह बात आयी। वह सीधा ही राजा के पास पहुँचा और राजा को नमस्कार कर उसने निवेदन किया-हुजूर ! कल आपने मुझे अकस्मात् बुला Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाख नहीं, साख १०७ लिया। मैं आपके भय से भयभीत हो गया और दुकान में रेशमी वस्त्र होने पर भा मैंने स्पष्ट इनकारी कर दी। उस वचन को सत्य सिद्ध करने के लिए मैंने रात्रि में ही सारे रेशमी वस्त्रों को जला दिया। अतः इनको दण्ड न दिया जाय। गलती मेरी है, इनकी नहीं। राजा श्रेष्ठी की सत्यप्रियता से अत्यधिक प्रभावित हुआ। उसने पूछा-बताओ, माल कितना था जो तुमने जलाया ? सेठ ने कहा-एक लाख पच्चीस हजार का। राजा ने प्रसन्न होकर एक लाख पच्चीस हजार रुपये अपने राजकोष से उसे दे दिये और कहा—मुझे अपने राज्य में ऐसे सच्चे व्यापारी की आवश्यकता है। - व्यापारी घर आया। उसने पुत्रों से कहासाख रहने पर यह सवा लाख रुपये पुनः आ गये। इसलिए लाख की नहीं, साख की आवश्यकता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ভাল কা ভলিল बात बहुत पुरानी है। एक बार भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। वर्षा न होने से जन-मानस व्यथित था। पशु भी घास के अभाव में छटपटा रहे थे। एक वर्ष के पश्चात् दूसरे वर्ष भी यही स्थिति रही। अपलक दृष्टि से लोग आकाश की ओर देख रहे थे कि कहीं बादल आयें और हजार-हजार धारा के रूप में बरस पड़ें जिससे सर्वत्र सुख और शान्ति की बंशी बजने लगे। वर्ष पर वर्ष बीतते चले जा रहे थे, किन्तु कहीं भी बादलों का नाम नहीं था। सूर्य की चिलचिलाती धूप आग उगल रही थी। भयंकर गर्मी और पानी के अभाव में प्राणी पटापट मर रहे थे। भीष्म ग्रीष्म की सनसनाती लूओं से प्राणी झुलस रहे थे। काल का विकराल अजगर प्राणीजगत् को निगलने के लिए मुह बाए पड़ा था। माताएँ अपने प्यारे लालों को भूखे-प्यासे छटपटाते हुए देख रही थीं, पर वे कहाँ से लातीं अपने प्यारे लालों के लिए अन्न और पानी। वे स्वयं भी कई दिनों से भूखीप्यासी थीं। ___ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालक का बलिदान १०६ राजा ने प्रकृति के इस भीषण प्रकोप को देखा । उसका हृदय काँपने लगा । बारह बारह वर्ष हो गये हैं, एक बूंद भी पानी न गिरा । और पानी के अभाव में अन्न कहाँ से पैदा होता ? कोई न कोई उपाय करना चाहिए जिससे प्रजा की रक्षा हो सके । राजा ने अपने राज्य के सभी विद्वानों को निमन्त्रित किया और उनसे उपाय पूछा। विद्वानों ने कहा- राजन् ! नरमेध यज्ञ किया जाय तो वर्षा का देव प्रसन्न होगा और वर्षा से सारी पृथ्वी हरी-भरी हो जाएगी। किन्तु नरबलि होनी चाहिए प्रसन्नता से । बलात् की हुई नरबलि से देव सन्तुष्ट न होंगे । । राजा ने अपनी प्रजा की एक आम सभा बुलाई और कहा कि बारह वर्षों से हम कष्ट देख रहे हैं । वर्षारानी बिलकुल ही रूठी हुई है जिसके कारण कितनी भयंकर स्थिति पैदा हो गई है । इस भयंकर स्थिति से बचने के लिए एक ही उपाय है । और वह यह है कि नरमेध यज्ञ किया जाय । नरमेध के लिए एक ऐसा वीर चाहिए जो अपनी सहर्ष बलि दे सके । राजा की घोषणा ने सभी के मुँह पर ताले लगा दिये। सभी के सिर झुक गये । उसी समय एक बालक में खड़े होकर राजा से निवेदन किया- राजन् ! हजारों Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० पंचामृत . प्राणियों की यदि रक्षा होती हो और देश दुष्काल के भयंकर संकट से मुक्त होता हो तो मैं अपने प्राण सहर्ष देने के लिए प्रस्तुत हूँ। "यह बालक देश के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करना चाहता है। पर इसकी उम्र तो बहुत ही कम है।" प्रधान अमात्य ने राजा की ओर देखकर कहा। बालक ने मुस्कराते हुए कहा-राजन् ! आप मेरे तन के छोटेपन को न देखिये, उम्र को न देखिये। जहाँ तक मैंने सुना है नरमेध यज्ञ के लिए नर की बलि दी जाती है, भले ही वह नर बालक हो, तरुण हो या वृद्ध हो । वय की दृष्टि से उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। प्रधान अमात्य ने कहा-बालक शतमन्यु, तुम्हारा कथन सत्य है। पर इसके लिए तुम्हें अपने अभिभावकों की अनुमति लेनी चाहिए। क्योंकि जब तक अभिभावक अनुमति न दें वहाँ तक तुम्हारी बलि नहीं दी जा सकती क्योंकि अभी तक तुम नाबालिग हो। मंत्री अपनी बात पूरी भी न कर पाया कि उस विराट् जन समुदाय में से एक वृद्ध सज्जन आगे बढ़ा । राजा को अभिवादन कर कहा–राजन् ! यह मेरा इकलौता पुत्र है। आज मेरा हृदय हर्ष से उछल रहा है कि ___ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालक का बलिदान १११ मेरे पुत्र ने हजारों-लाखों प्राणियों की रक्षा के लिए अपना बलिदान स्वीकार किया है। यह मेरे लिए गौरव की बात है । जन-जन के हित के लिए अपने पुत्र को बलिदान देने के लिए में सहर्ष स्वीकृति प्रदान करता है । प्रधान अमात्य ने कहा- पुरुष का हृदय कठोर होता है । पुत्र पर पिता का ही नहीं किन्तु माँ का भी अधिकार है। जब तक इसकी माँ स्वीकृति न दे वहाँ तक इसका बलिदान स्वीकार नहीं किया जा सकता । महिलाओं की सभा से एक वृद्धा उठी और राजा के सन्निकट आकर राजा को अभिवादन किया और कहा - यह मेरा पुत्र है । इसने जो वीरतापूर्ण अपने विचार व्यक्त किये हैं उसे सुनकर मेरा हृदय बाँसों उछलने लगा है । कोई भी माँ अपने पुत्र को कायर देखना पसन्द नहीं करती । देश पर जब ऐसी भयंकर आपत्ति के बादल मंडरा रहे हैं उस समय मेरा लाड़ला वत्स अपना बलिदान देना चाहता है । यह मेरे लिए भी गौरव की बात है । इसका बलिदान देश को आबाद करने के लिए वरदान रूप से होगा । इसलिए मैं अपने प्यारे लाल को देश के लिए न्यौछावर होने की अनुमति देती हूँ । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पंचामृत राजा ने वृद्ध और वृद्धा दम्पति का बहुमान करते हुए कहा- जब तक इस देश में इस प्रकार के माता-पिता होंगे और इस प्रकार के पुत्र होंगे तब तक देश का बाल भी बाँका नहीं हो सकता। ये तीनों धन्य हैं । शतमन्यु को नरबलि के लिए तैयार किया गया । ज्यों ही उसे यज्ञ मण्डप में लाया गया, प्रसन्नता से उसका चेहरा गुलाब के फूल की तरह खिला था । वह सोच रहा था - आज का दिन धन्य है । मैं अपने देशनिवासियों के लिए अपना बलिदान दे रहा हूँ | मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि हे प्रभु, मेरे देश - निवासी भयंकर दुष्काल से पीड़ित हैं । इनकी पीड़ा नष्ट हो । देश में सुकाल हो । अन्न-धन-जन-जल की अभिवृद्धि से जनजीवन सुखमय हो । । तल्लीनता से उसकी प्रार्थना चल रही थी । उसी समय एक दिव्य देव शक्ति प्रकट हुई। उसने कहा-ऐ बालक ! तू क्यों व्यर्थ ही अपने प्राण दे रहा है । तेरे प्राण बहुत ही कीमती हैं । देख, ये वृद्ध बूढ़े लोग अपने प्राणों का मोह नहीं छोड़ सके और तू पूर्णरूप से खिला भी नहीं है । फिर क्यों न्यौछावर हो रहा है । बालक ने कहा- हे दिव्यपुरुष ! मेरे से यह करुण Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालक का बलिदान ११३ दृश्य देखा नहीं जाता। मेरे देश निवासी अन्न और जल के अभाव में छटपटाते हुए मर रहे हैं । मैं इसे देख नहीं सकता ? मेरो पूज्य माता-पिता ने मुझे अनुमति देकर मेरे पर महान् उपकार किया है। एक के बलिदान से हजारों-लाखों प्राणियों की रक्षा होती है तो इससे बढ़कर और क्या प्रसन्नता होगी ? दिव्य देवशक्ति ने बालक के सिर पर हाथ रखते हुए कहा- धन्य है तेरा जीवन ! जिस देश में ऐसे तेजस्वी और देश के लिए समर्पित होने वाले बालक हैं, वहाँ दुष्काल नहीं रह सकता । मैं अभी इस प्रकार की वर्षा करूँगा जिससे सर्वत्र आनन्द का सागर लहराने लगे । देवशक्ति देखते ही देखते अन्तर्धान हो गई । आकाश में उमड़-घुमड़कर घटाएँ घहराने लगीं और हजार-हजार धारा के रूप में पानी बरसने लगा । कुछ समय के पश्चात् चारों ओर हरियाली लहलहाने लगी । लोगों के हृदय के तार झनझना उठे । धन्य है ऐसे परोपकारी शतमन्यु बालक को, जिसके कारण देश मृत्यु के मुह में जाता हुआ बच गया । ऐसे श्रेष्ठ बालक ही राष्ट्र की शान हैं । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ ব্রিঙি চা ব্রিগান नर्मदा के किनारे राजा चित्रदेव का भव्य प्रासाद था। उस प्रासाद में अनेक अनुचर थे। उन अनुचरों में एक गोविन्द नामक अनुचर भी था । राजकुमारी नन्दिनी राजप्रासाद के सन्निकट उपवन में फूल तोड़ने के लिए पहुँची। नन्दिनी फूल तोड़कर चाँदी की टोकरी में डाल रही थी। जब टोकरी फूलों से लबालब भर गई तो वह राजप्रासाद की ओर चल दी। लौटते समय उपवन के द्वार पर बैठा हुआ एक सफेद दाढ़ीवाला वृद्ध उसे दिखाई दिया। नन्दिनी ने पूछा---गोविन्द ! यह बूढ़ा कौन है ? जरा जाकर पता लगाओ। तुम जल्दी से लौटकर आओ। मैं यहीं पर खड़ी हूँ। गोविन्द बढ़े के पास पहुँचा। उसने लौटकर बताया--राजकुमारी ! वह बूढ़ा ज्योतिषी है। वह यह बताता है कि किसका विवाह किसके साथ होने वाला है। राजकुमारी ने कहा-यह तो बहुत अनोखी बात है। वह कैसे बताता है ? गोविन्द ने कहा-वह घास के दो तिनकों को Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि का विधान ११५ लेकर आपस में बाँध देता है और फिर उसके आधार से वह सही-सही बात बता देता है । राजकुमारी नन्दिनी ने कहा- गोविन्द ! तुम अभी उस बढ़े के पास जाओ और उससे पूछकर आओ कि मेरा विवाह किसके साथ होगा । गोविन्द ने कहा- राजकुमारी ! इन ज्योतिषियों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। ये झूठझूठ ही इधरउधर की बातें बतला देते हैं । यह उनके पेट भरने का धंधा है । अतः उनके चक्कर में पड़ने से कोई लाभ नहीं । राजकुमारी ने जरा कड़ककर कहा—गोविन्द ! तुम्हें मेरे आदेश का पालन करना चाहिए। मैंने तुम्हारी राय नहीं पूछी है । तुम शीघ्र ही जाओ और मेरे आदेश का पालन करो । गोविन्द ने अभिवादन करते हुए कहा - मालिकिन ! जैसी आपकी आज्ञा । मैं अभी पूछकर आता हूँ । राजकुमारी वहीं खड़ी हो गई और गोविन्द की प्रतीक्षा करने लगी । गोविन्द ने उस वृद्ध ज्योतिषी के पास जाकर उसके कान में कहा- मैं आपसे कुछ क्षणों के लिए एकान्त में बात करना चाहता हूँ । क्योंकि मैं राज मला आया हू Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ पंचामृत ___ लोगों की भीड़ को चीरकर वृद्ध ज्योतिषी एकान्त में पहुँचा और पूछा--क्या पूछना चाहते हो ? गोविन्द ने कहा--- राजकुमारी नन्दिनी यह जानने के लिए उत्सुक है कि उसका विवाह किसके साथ होगा। उस वृद्ध न घास के दो तिनके उठाये। उनमें गाँठ लगाई। कुछ क्षणों तक उसे अच्छी तरह से देखता रहा। फिर गोविन्द की ओर देखकर मुस्कराने लगा। गोविन्द ने कहा- जल्दी बताइए, राजकुमारी प्रतीक्षा कर रही है। बूढ़े ने कहा- राजकुमारी नन्दिनी का पाणिग्रहण तुम्हारे साथ होगा। __गोविन्द ने आश्चर्य से चौंककर कहा----ज्योतिषीप्रवर ! जरा अच्छी तरह से देखिए। आपकी यह बात बिलकुल ही मिथ्या है । क्योंकि मैं राजकुमारी नन्दिनी अनुचर हूँ । अतः कुछ सोचिए । यह अनहोनी बात कभी नहीं हो सकती। बूढ़े ने अपनी मूछों पर ताव देते हुए कहागोविन्द ! मेरी बात कभी भी मिथ्या नहीं हो सकती। तू ही नन्दिनी का होने वाला पति है। गोविन्द भारी कदमों से राजकुमारी की ओर ___ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि का विधान ११७ चल दिया। पहुँचते ही नन्दिनी ने पूछा- बताओ, ज्योतिषी ने क्या कहा ? गोविन्द ने कहा---राजकुमारी ! मैंने आपको पहले ही निवेदन किया था कि इस प्रकार के ज्योतिषी सत्य नहीं कहते हैं । उस ज्योतिषी ने ऐसी बात कही है कि मैं उसे अपने मुह से नहीं कह सकता। राजकुमारी ने जरा तेज स्वर में कहा--ज्योतिषी ने जो भी बताया हो, वह तुम्हें बताना होगा। गोविन्द ने नम्रता से कहा-वह इतनी बुरी बात है कि मैं उसे अपनी जबान से कह नहीं सकता। राजकुमारी ने आँखें लाल करते हुए कहा--मेरा आदेश है कि जो बूढ़े ने कहा हो, सच-सच बता दो । यदि तुमने मेरी आज्ञा की अवहेलना की तो मैं तुझे दण्ड दिलवाऊँगी। गोविन्द ने कहा-~~-आपके आदेश का पालन करना मेरा कर्तव्य है। उस बूढ़े ज्योतिषी ने कहा आपका विवाह मेरे साथ होगा। नन्दिनी ने ज्यों ही यह सुना उसका क्रोध सातवें आसमान में पहुँच गया- अरे बदतमीज, इस प्रकार कहते हुए तुझे शरम नहीं आती ? उसने अपने हाथ में जो चाँदी की टोकरी थी Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ पंचामृत जिसमें फूल रखे हुए थे, वह गोविन्द के सिर पर दे मारी जिससे गोविन्द के सिर में जख्म हो गया । रक्त बहने लगा । गोविन्द ने भी क्रोध के आवेश में कहाराजकुमारी ! आपको मेरा अपमान करने का कोई अधिकार नहीं है । इस प्रकार का व्यवहार करना उचित नहीं । अब मैं यहाँ नहीं रहूँगा । कुमारी नन्दिनी राजमहलों की ओर चल दी तथा कुछ समय के बाद रक्त को पौंछकर और चाँदी की टोकरी को लेकर गोविन्द भी अपने घर की ओर चल दिया । वह मन ही मन बुदबुदा रहा था- इस प्रकार राज की नौकरी करने से तो अच्छा है कहीं दूर देश में जाकर कोई नौकरी करना । रक्त निकल रहा था, चोट काफी गहरी थी । कुछ दिनों तक विश्राम लेने के पश्चात् वह नगर को छोड़कर एकाकी भयानक जंगल की ओर चल दिया । बिना लक्ष्य के वह बढ़ा जो रहा था। एक नगर के सन्निकट वह पहुँचा । वहाँ उसने देखा - एक स्थान पर कुछ लोग बैठे हुए थे । उनके मानस में प्रसन्नता अंगड़ाइयाँ ले रही थीं । सभी के चेहरे खिले हुए थे । गोविन्द ने पूछा- आज आपके चेहरों पर इतनी प्रसन्नता क्यों है ? और सभी यहाँ पर बैठकर किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ? 1 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि का विधान उन बैठे हुए व्यक्तियों ने कहा-क्या तुझे पता नहीं है ? आज हमारे नये राजा का चुनाव होने वाला है। कुछ समय पूर्व यहाँ के राजा का निधन हुआ था। उनके कोई सन्तान नहीं है। राजा ने अन्तिम समय में अपने अमात्यों से कहा कि राज का चुनाव पट्टहाथी करेगा । आज शुभ मुहूर्त में हाथी को सजाकर पुष्पमाला देकर उसे मुक्त कर दिया है। हाथी नगर के मुख्य स्थलों पर होता हुआ इधर आ रहा है। इसलिए हम सभी आगे आकर यहाँ बैठ गये हैं। पता नहीं किसके भाग्य में यहाँ का राजा बनना लिखा है। हाथी किसके गले में श्रेष्ठ माला डालेगा? इतने में तो झूमता हुआ हाथी वहाँ पहुँच गया। उसकी सूंड में पुष्पहार चमक रहा था। हाथी अपनी पैनी दृष्टि से सभी को देखता हुआ आगे बढ़ रहा था। सभी लोग हाथी को पुचकारते थे, अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते थे। किन्तु हाथी आगे बढ़ता चला जा रहा था । एकाएक हाथी गोविन्द के सामने आकर रुक गया। उसने गोविन्द के गले में वह पुष्पहार डाल दिया। सर्वत्र जय-जयकार से आकाश मंडल गूंज उठा । गोविन्द आश्चर्य से देखने लगा। उसे लगा वह Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पंचामृत कोई सपना देख रहा है । उसे यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि सत्य क्या है ? सभी ने अपने नये राजा को हाथी पर बिठाया । शानदार जुलूस के रूप में वह राजमहल में ले जाया गया । विधिवत् उसका राज्याभिषेक किया गया । उसने विज्ञों को रखकर अध्ययन क्रिया । उसकी बुद्धि बहुत ही तीक्ष्ण थी । अतः उचित समय में एक श्रेष्ठ शासक के रूप में उसकी ख्याति चारों ओर फैल गई । गोविन्द को राजा बने हुए कई वर्ष व्यतीत हो गये थे । वह पूर्ण युवा हो चुका था । उसके अधिकारीगण योग्य दुलहिन की तलाश में थे । राजकुमारी नन्दिनी के पिता राजा चित्रदेव भी नन्दिनी के लिए योग्य वर की अन्वेषणा कर रहे थे। क्योंकि नन्दिनी अब काफी बड़ी हो चुकी थी । राजा चित्रदेव ने राजा गोविन्द के सम्बन्ध में सुना कि उसके जैसा श्रेष्ठ शासक उसकी पुत्री के लिए उपयुक्त है । अतः उसने राजा गोविन्द के पास विवाह का सन्देश भिजवाया । राजा गाविन्द ने विवाह की स्वीकृति प्रदान कर दी । नन्दिनी और गोविन्द का पाणिग्रहण उल्लास के क्षणों में सम्पन्न हुआ । देश भर में खूब खुशियाँ मनाई गई । एक दिन महारानी नन्दिनी ने अपने पति Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि का विधात १२१ गोविन्द से पूछा- आपके सिर पर यह निशान कैसे है ? लगता है किसी युद्ध के मैदान में आपको चोट लग गई है जिससे उसका चिन्ह अभी भी दिखाई दे रहा गोविन्द ने मुस्कराते हुए कहा-यह चिन्ह विवाह का प्रतीक है। इसी चिन्ह ने मेरे भाग्य की परिवर्तित किया। मुझे एक अनुचर से राजा बनाया और यहाँ तक कि तुम्हारा पति भी बनाया। नन्दिनी ने कहा-आप तो पहेलियाँ बुझा रहे हैं। क्यों नहीं स्पष्ट शब्दों में बताते—यह निशान कैसे हुआ ? गोविन्द ने कहा-जरा ठहरो ! मैं अभी आता हूँ। गोविन्द एक कक्ष में गया और सन्दूक में से वह चांदी की टोकरी ले आया। टोकरी की ओर संकेत करते हुए पूछा--क्या इस टोकरी को पहचानती हो ? कहीं इसे देखा है तुमने ? - टोकरी को देखते ही नन्दिनी की सारी स्मृति उद्बुद्ध हो उठी-अरे, यह टोकरी तो मेरी ही है। मैं इसमें फूल चुना करती थी। क्या आप ही वह गोविन्द हैं जिसके सिर पर मैंने यह टोकरी मारी थी? नाथ ! मेरे अपराध को क्षमा करें। मुझे क्या पता था ___ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ पंचामृत कि यह चोट मेरे द्वारा ही आपको लगी है ? मैंने आपके साथ बहुत ही अभद्रतापूर्ण व्यवहार किया। मुझ बाला के अपराध को क्षमा करें। राजा गोविन्द ने मुस्कराते हुए कहा-क्षमाजैसी कोई बात ही नहीं है। मैं तो तुम्हारा उपकार मानता हूँ। यदि तुमने यह टोकरी न मारी होती तो मैं तुम्हारे महल में ही अनुचर के रूप में पड़ा रहता। यहाँ का राजा न बनता। और राजा न बनता तो तुम्हारे साथ विवाह भी नहीं होता। नन्दिनी ने कहा-अन्त में उस बूढ़े ज्योतिषी की बात सच्ची ही निकली, जिसकी न मुझे स्वप्न में कल्पना थी, न आपको ही। पर जो होनहार होता है वह कभी टलता नहीं। इसे ही तो नियति कहते हैं। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ न्याय __सुलतान शेरशाह सूरी के उत्तराधिकारी युवराज की सवारी निकल रही थी। नगरनिवासी सवारी को देखने के लिए उमड़ रहे थे । वे अपने भावी सुलतान को देखना चाहते थे। धीरे-धीरे सवारी आगे बढ़ रही थी। मध्य बाजार में एक मोदी की दूकान थी। दूकान पर मोदी की धर्मपत्नी भी बैठी हुई थी। वह सवारी को देखने के लिए आई थी। उसका रूप अनुपम था। अभी विवाह हए कुछ ही महीने हुए थे। भावी सुलतान ने उसे देखा तो देखता ही रह गया। उसे शाही ठाठ-बाठ का घमण्ड था। उसके मन में यह विचार था कि मैं शेरशाह सूरी का पुत्र हूँ। मेरा एकछत्र साम्राज्य है। मैं चाहे जो कर सकता हूँ। उसने उस युवती पर पानदान में से दो पान के बीड़े उठाकर फेंक दिये। उस युवती ने यह देखकर लज्जा से सिर झुका लिया। मुह से वह कुछ भी बोल न सकी। उसका पति मोदी उसके सन्निकट ही बैठा था। वह भावी सुलतान के प्रस्तुत कुकृत्य को अपनी आँखों से देख रहा Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ पंचामृत था । पर उस समय वह उसका प्रतिवाद न कर सका । शाही सवारी अपनी शान के साथ आगे निकल गई। मोदी सोचने लगा कि मेरे में सामर्थ्य का अभाव है । इसलिए मैं भावी सुलतान का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता । पर न्याय के लिए सुलतान के द्वार खटखटा सकता हूँ । उसने अपने मिलने वाले मित्रों से पूछा । सभी ने यही सलाह दी सुलतान से तुम न्याय की माँग अवश्य ही करो । मोदी ने शेरशाह सूरी से न्याय के लिए प्रार्थना की । शेरशाह सूरी का दरबार सजा हुआ था । आज उसे अपने युवराज के अपराध पर न्याय करना था । वे बहुत ही बेचैन थे। उनके हृदय में युवराज की यह महान् गलती खल रही थी । वे सोच रहे थे कि ! युवराज ने शाही प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाई है । युवराज को बुलाया गया। युवराज सिर झुकाये हुए राज दरबार में उपस्थित हुआ । युवराज ने अपराध तो स्वीकार कर लिया । पर उसने कहा- मैंने पान के बीड़े बुरी नजर से नहीं फेंके थे। यों ही कुतूहलवश फैंक दिये थे । सुलतान ने दहाड़ते हुए कहा - किसी अबला की Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय १२५ इज्जत को लूटना और फिर कहना कि मैंने यों ही किया है, क्या शरम नहीं आती? सुलतान की गर्जना से सभी सहम गये। सुलतान ने कहा- अच्छा, तो अपनी बेगम को दरबार में उपस्थित करो। ___ यह बहुत ही लज्जा की बात थी, किन्तु न्याय के दरबार में पिता-पुत्र का प्रश्न नहीं था। युवराज्ञी को दरबार में उपस्थित किया गया। सुलतान ने कहायुवराज ! जरा अपनी बेगम के मुह पर से परदा दूर करो। युवराज ने काँपते हुए हाथों से अपनी बेगम का मुंह उघाड़ा। बादशाह मन ही मन जान रहा था कि उसकी प्रतिष्ठा धूल में मिल रही है। किन्तु न्याय के लिए वे मजबूर थे। उन्होंने उस मोदी को दो पान के बीड़े देते हुए कहा-तुम भी ये बीड़े बेगम पर फेंक दो । मोदी एक क्षण तक सोचता रहा। उसने धीरे से पान के बीड़े शेरशाह सूरी की पुत्रवधू के चरणों पर रख दिये और कहा--जहाँपनाह ! मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया कि आपश्री के लिए नगर की प्रत्येक महिला पुत्रवधू की तरह है। आप उसका अपमान अपनी बेटी या पुत्रवधू का अपमान समझते हैं। मैं अपराधी को Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पंचामृत दण्ड दिलवाने के लिए आया था, अपराध करने के लिए नहीं । आपश्री मेरे से नया अपराध कराने जा रहे हैं। मेरी दृष्टि से जितनी भी पर-स्त्रियाँ हैं, वे माँ के समान हैं। मैं उनका अपमान कैसे कर सकता हूँ? शेरशाह सूरी का हृदय गद्गद हो उठा। उन्होंने मोदी को गले लगा लिया और अपने युवराज को कहा -भविष्य में कभी गलती न करना। क्योंकि प्रजा की बहू-बेटियाँ तुम्हारे लिए माता और पुत्री के समान हैं, उनका सदा आदर करना। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ साहस का पुरस्कार राजा अजित सेन बहुत ही न्यायप्रिय थे । उसके राज्य में सभी सुख-शांतिपूर्वक अपना जीवनयापन कर रहे थे । राजा बहुत ही शान्त प्रकृति का था । सज्जनों के प्रति उसका अपार अनुग्रह था और दुष्टों के प्रति उसकी दण्ड व्यवस्था बहुत ही कठोर थी जिससे उद्दण्ड व्यक्ति उसके नाम ने ही काँपते थे । राजा के एक पुत्र और एक पुत्री थी । पुत्र का नाम महेन्द्रकुमार और पुत्री का नाम मंजुला था । पुत्र कामदेव के समान सुन्दर था तो मंजुला रति के समान सुन्दर थी । राजा ने अपने राज- प्रासाद में ही उनके अध्ययन की व्यवस्था की । दोनों का अध्ययन समाप्त हुआ । राजा ने महेन्द्र को उच्च अध्ययन करने हेतु अन्य स्थान पर जहाँ उच्चतम अध्ययन होता था उस विद्यालय में प्रेषित किया । महेन्द्र अध्ययन में इतना तल्लीन हो गया कि उसे समय ही मिल न पाता कि वह पत्र दे सके । लम्बे समय तक राजा को पुत्र का पत्र प्राप्त न हुआ जिससे वह अत्यधिक चिन्तित हो Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ पंचामृत उठा। राज्य का भार मंत्री को देकर वह स्वयं पूत्र के समाचार लेने के लिए विद्यालय पहुँचा। पुत्र को अत्यधिक तल्लीनता के साथ पढ़ते हुए देखकर उसके मन में बहुत ही प्रसन्नता हुई। राजा के जाने के पश्चात् एक दिन राजकुमारी मंजुला सायंकाल नगर के बाहर के उद्यान में घूमने के लिए पहुँची । घूमते-घूमते अन्धेरा हो गया। वह अपनी दासियों के साथ पुनः लौटने वाली ही थी कि चार सशस्त्र व्यक्तियों ने उन्हें घेर लिया। चार सशस्त्र व्यक्तियों को देखकर मंजुला और उसकी सहेलियाँ घबरा गई। क्योंकि न तो उनके पास शस्त्र थे और बचने का कोई साधन ही था। इतने में एक सशस्त्र व्यक्ति आगे बढ़ा। उसने सहेलियों के देखते-देखते ही मंजुला को अपने कन्धे पर बिठाया और रोती और चिल्लाती हुई मंजुला को लेकर चल दिया। शेष तीन व्यक्तियों ने दासियों से कहा-यदि तुमने जरा भी कोलाहल किया तो तुम्हें मौत के घाट उतार दिया जाएगा। जब तक मंजुला को ले जाने वाला व्यक्ति अदृश्य न हो गया वहाँ तक वे तीनों व्यक्ति वहाँ खड़े रहे । उसके अदृश्य होते ही वे भी वहाँ से चल दिये। दासियों की जान में जान आई । वे रोती हुई Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहस का पुरुषार १० राजमहल में पहुंची और रोते हुए ही उन्होंने सारी रामकहानी सुना दी। महारानी ने सुना तो वे बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ीं। मन्त्री ने राजवैद्य को बुलाकर महारानी की चिकित्सा करवाई जिससे महारानी होश में आई। मन्त्री ने शीघ्र ही अपने विश्वस्त व्यक्तियों को भेजकर महाराज को सूचित किया कि इस प्रकार राजकुमारी का अपहरण हो गया है। सेनापति राजकुमारी के अपहरणकर्ता की अन्वेषणा करने लगा। राजा अजितसेन अपने पुत्र महेन्द्र के साथ शीघ्र ही राजधानी पहुँचा। आज उसके चेहरे पर उद्विग्नता थी। मन में अनेक प्रकार के विचार तरंगित हो रहे थे। राजा ने सेनापति से पूछा-मंजुला का कुछ पता लगा है या नहीं? सेनापति ने निवेदन किया--राजन् ! मंजुला को डाकुओं ने एक पिंजड़े में बन्दकर समुद्र में एक जहाज में लटका दिया है । उस पिंजड़े के नीचे बारूद का ढेर रखा हुआ है और उसके नीचे सशस्त्र बन्दुकधारी व्यक्ति खड़े हैं । जहाज समुद्र के बीच में है। राजा ने चिन्तित होकर कहा-ऐसा दुस्साहस Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. पंचामृत कौन कर सकता है ? ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें किसी दरबारी का हाथ है ? सेनापति ने निवेदन किया-जहाँ तक मुझे पता चला है यह कार्य अजितसिंह ने किया है। क्योंकि उसके भाई नत्थूसिंह को आपने समाप्त किया था । अपने भाई के मारने का बदला लेने के लिए ही ऐसा किया गया है। राजा ने विस्मित होते हुए कहा--नत्थूसिंह के भाई अजितसिंह ने यह दुस्साहस किया है ? उसने मंजुला को गोली का शिकार ही क्यों नहीं बना दिया ? सेनापति ने कहा-राजन् ! इसमें रहस्य है। वह मंजुला के माध्यम से आपको तथा महेन्द्रसिंह को अपनी गोली का शिकार बनाना चाहता है। उन्हें यह ज्ञात है कि आपका अपनी पुत्री पर अत्यधिक स्नेह है। इसलिए आप या महेन्द्र वहाँ अवश्य जायेंगे। राजा अजितसेन ने गम्भीर गर्जना करते हुए कहा -हम कायर नहीं हैं। हमारी नसों में राजपूती खून खोल रहा है। अभी सैन्य तैयार करो। हम उससे युद्ध करेंगे और बतायेंगे कि हम कितने वीर हैं। सेनापति ने नम्रतापूर्वक निवेदन किया-आपकी Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहस का पुरस्कार १३१ आज्ञा शिरोधार्य है। पर मेरी यह प्रार्थना है कि समुद्र में युद्ध करना उचित नहीं है। उनके पास तोपें हैं ? हमारे पास केवल बन्दूकें हैं जो समुद्र में काम नहीं देंगी। रहा प्रश्न समुद्र में जहाज से लड़ना। उस युद्ध में भी राजकुमारी को प्राणों का अधिक खतरा है। ___ राजा-तो सेनापति प्रवर ! बताइए क्या करना चाहिए? सेनापति ने कहा-मेरी दृष्टि में तो गुप्तरूप से तैरकर वहाँ पहुँचना चाहिए और उसके लिए अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता नहीं। केवल दो व्यक्ति ही पर्याप्त हैं। रोजकुमार महेन्द्र ने कहा-मैं अपनी प्यारी बहन के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने के लिए तैयार है। दूसरे बलवन्त नामक युवक ने कहा-मैं राजकुमार महेन्द्र का साथ देने के लिए प्रस्तुत हूँ। . राजकुमार महेन्द्र और बलवन्त ये दोनों बहुत ही अच्छे तैराक थे। दोनों निर्भय होकर समुद्र में कूद पड़े। पानी में तैरते हुए जहाज तक पहुँच गये । महेन्द्र अपनी योजना के अनुसार जहाज के आगे जाकर पानी से बाहर निकला। तोपचियों ने और डाकू अजितसिंह ने Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ पंचामृत महेन्द्र को देखा । उनका खून खौल उठा। वे उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़े। पीछे से बलवन्त उस पिंजड़े तक पहुँच गया। उसने राजकुमारी मंजुला के पिंजड़े को लेकर समुद्र में डुबकी लगा दी और एक हथगोला बारूद के ढेर पर फेंक दिया, जिससे भयंकर विस्फोट हुआ और पानी में भयंकर तरंग उठी । बलवन्त पानी में ही गायब हो गया। डाकू दल ने गोलियों से प्रहार किया। पर कुछ भी लाभ न हुआ । बलवन्त मंजुला को लेकर महल में पहुँच गया और वह पुनः शीघ्र ही अपने वीर साथियों को लेकर समुद्र तट पर पहुँचा। किन्तु वहाँ राजकुमार महेन्द्र दिखाई नहीं दिया और न डाकू अजितसिंह का दल ही दिखाई दिया। बलवन्त समझ गया कि डाकू दल राजकुमार महेन्द्र को लेकर इस बीहड़ जंगल में चला गया है। बलवन्त उनके पदचिन्हों पर चलता हुआ जंगल में पहुँचा। डाकू अजितसिंह हाथ में बन्दूक लिए खड़ा था और एक डाकू सरदार राजकुमार महेन्द्र को पेड़ से बांध रहा था। राजकुमार को बाँधकर वह डाकू अजितसिंह के पास आ गया। छिपकर बलवन्त ने यह सारा दृश्य देखा। उसने बहुत ही सावधानीपूर्वक Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहस का पुरातार ५ अजितसिंह और दूसरे डाकू को निशाना बनाकर सनसनाती हई गोलियाँ छोड़ दीं। वे गोलियाँ डाकू अजितसिंह के सीने को चीरतो हुई पार हो गयी। दूसरा डाकू सरदार भी गिर पड़ा। डाकू दल के एक सदस्य ने महेन्द्र पर वार किया पर वह वार चूक गया। उसी समय बलवन्त ने अपने साथियों के साथ डाकू दल पर हमला कर दिया। उन वीर सैनिकों के सामने डाकू दल कब तक ठहरता ? कुछ डाकू वहीं पर ढेर हो गये, और कुछ वहां से भाग गये। बलवन्त ने राजकुमार महेन्द्र को बन्धन से मुक्त किया। दोनों के प्रेमाश्रु छलक पड़े। राजकुमार को अत्यन्त प्रसन्नता थी कि उसे एक साहसी मित्र मिला है। वे दोनों ही महाराजा अजितसेन के सामने उपस्थित हुए। राजा ने दोनों का हार्दिक स्वागत किया और उद्घोषणा की-आज से मेरे दो पुत्र हैं। एक महेन्द्र और दूसरा बलवन्त। राजकुमारी मंजुला दोनों वीरों का अभिनन्दन करने के लिए अक्षत और रोली लेकर उपस्थित हुई। उसने अपने भाई के विजयश्री का तिलक किया। वह बलवन्त की ओर बढ़ रही थी। राजा के संकेत से दो श्रेष्ठ मालाएँ लाई गई। राजकुमारी मंजुला ने वह Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ पंचामृत माला राजा के संकेत से बलवन्त के गले में डाल दी और बलवन्त ने अपने हाथ की माला मंजुला के गले में डाल दी। बलवन्त को उसकी वीरता का पुरस्कार मिल गया था। सभी ओर हर्ष की ध्वनि से आकाशमण्डल गूंज उठा। जन-जिह्वा पर एक ही स्वर मुखरित था कि कर्तव्य पर जो बलिदान होता है उसे सदा विजयश्री वरण करती है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ज्येष्ठ की भीष्म ग्रीष्म ऋतु में एक यात्री एक गाँव से दूसरे गाँव जा रहा था । भयंकर गर्मी थी, लू चल रही थी । वह चलते-चलते थक गया । एक आम के वृक्ष की शीतल छाया में वह विश्राम लेने बैठ गया । उसने सोचा अभी बहुत ही गर्मी है, क्यों नहीं कुछ समय के लिए मैं यहाँ विश्राम कर लूँ। वह वहीं पर आराम से सो गया । थका हुआ होने से उसे गहरी निद्रा आ गई । आम के वृक्ष पर एक कोयल बैठी हुई अपने मधुर स्वर से जन-मन को मुग्ध कर रही थी । कोयल ने देखा उस यात्री के मुँह पर धूप चमक रही थी । कोयल ने सोचा - यह यात्री आनन्द से सो रहा है किन्तु धूप के कारण इसकी नींद उड़ जाएगी । मैं ऐसा कोई उपाय करू जिससे इसके मुँह पर छाया बनी रहे । कर भला होगा भला " वह सोचती रही कि छाया कैसे की जाय ? जहाँ से धूप आ रही थी उन टहनियों के बीच में अपने पंख फैलाकर वह बैठ गई । उसने देखा अब यात्री के मुँह Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ पंचामृत पर छाया हो रही है। वह प्रसन्नता से झूम उठी कि मेरे कारण यात्री को सुख प्राप्त हुआ। वह उसी तरह से बैठी रही। . विश्व का यह नियम है कि सज्जनों को कष्ट देने वाले भी लोग इस संसार में हैं। वृक्ष पर एक कौआ बैठा हुआ था। उसे कोयल का यह कार्य अच्छा नहीं लगा। उसने सोचा किसी तरह कोयल को सबक सिखाना चाहिए कि परोपकार करना कितना हानिप्रद _कौआ पक्षियों में बहुत ही चालाक पक्षी है। वह सोचने लगा-ऐसा कार्य करना चाहिए कि साँप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे। वह तेजी से उड़कर एक हड्डी का टुकड़ा ले आया और वह हड्डी का टुकड़ा यात्री के मुंह पर डाल दिया। मुंह पर हड्डी का टुकड़ा गिरने से यात्री उठ बैठा। वह अपनी चोट को सहलाने लगा। उसने अपने सन्निकट पड़ी हुई हड्डी के टुकड़े को देखा और ऊपर देखा तो कोयल बैठी हुई थी। बिना सोचे-समझे ही एक तीक्ष्ण धार के पत्थर को उसने हाथ में उठाया और पूरी शक्ति के साथ कोयल को ओर फेंक दिया। पत्थर को फेंकते हुए देखकर कौआ बहुत ही प्रसन्न हुआ कि अब कोयल अपनी जान से हाथ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर मला, होगा मला १३७ धो बैठेगी। किन्तु वह पत्थर कोयल को न लगकर कौए को लग गया जिससे कौआ ढेर होकर नीचे गिर पड़ा। कौए की चीख से कोयल घबरा गई। उसने नीचे झोंककर देखा तो उसे स्पष्ट हो गया कि कौए ने हड्डी फैकी थी जिसके कारण उसे मौत का शिकार बनना पड़ा। यद्यपि कौआ मुझे मारना चाहता था, पर भलाई का बदला कभी बुरा नहीं हो सकता। यदि कौआ भलाई नहीं कर सकता था तो उसे बुराई भी नहीं करनी चाहिए थी। बुराई का परिणाम हमेशा बुरा ही होता है। इसलिए कहावत है-“कर भला, होगा भला" । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ स्नेह का बाण __एक सुहावना जंगल था। उस जंगल में सैकड़ों पशु रहते थे। उसमें एक मृग दम्पति भी रहता था। दोनों में अत्यधिक स्नेह था। एक बार भयंकर दुभिक्ष पड़ा। वर्षा न होने से जंगल में पानी और घास का अभाव हो गया जिससे हजारों पशु बे-मौत मर गए। मृग दम्पति को भी तीव्र प्यास सताने लगी। किन्तु कहीं भी पानी नहीं था। वे दोनों पानी की अन्वेषणा के लिए इधर से उधर घूमने लगे। वे एक खड्डे पर पहुँचे जहाँ पर थोड़ा-सा पानी था। उस पानी से एक की ही प्यास शान्त हो सकती थी। वे दोनों एक-दूसरे की ओर ताकने लगे। हरिणी ने प्रेमाश्र, बहाते हुए कहा-नाथ ! आप इस पानी को पी लें। मुझे दूसरे स्थान पर पानी मिल जाएगा। मैं दूसरे स्थान पर पानी पी लूंगी। हरिण ने कहा-मैं पुरुष हूँ। मेरा शारीरिक संस्थान तेरी अपेक्षा मजबूत है। मैं और भी कुछ समय तक प्यास को सह लूँगा। तू पानी पी ले। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नेह का पान १ हरिणी ने कहा-नाथ ! पुरुष तो पुरुषार्थ प्रधान होते हैं । विश्व में पुरुषार्थियों की ही कद्र है। मैं आपसे निवेदन करती हूँ, आप पानी पी लें। मेरी चिन्ता न करें। हरिण ने मुस्कराते हुए कहा-प्रिये ! यह सत्य है कि हम पुरुषार्थ कर सकते हैं। किन्तु उस पुरुषार्थ की मूल प्रेरिका नारी है। तुम्हारी ही प्रेरणा से हम पुरुषार्थ कर पाते हैं। अतः तुम्हें पानी की अधिक आवश्यकता है। तुम पानी पी लो। हरिणी ने कहा-नाथ ! नारी भले ही नर का पथप्रदर्शन करती हो तो भी वह उसका अनुगमन करने वाली है। उसने अपने आप को नर के चरणों में समर्पित कर दिया है। उसके पास केवल ममता है, स्वामी तो उसका नर ही है। इसलिए मैं आपसे नम्र निवेदन करती हूँ, आप पानी पी लें। हरिण ने कहा-देखो, ताली कभी एक हाथ से नहीं बजा करती। नर के सामने नारी सर्वस्व समर्पित करती है, तो पुरुष भी तो नारी को ही सब कुछ दे देता है। इसलिए तुम किसी प्रकार विचार न करो। इस प्रकार एक-दूसरे को पानी पीने के लिए ___ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० पंचामत कहते हुए दोनों ने प्राण त्याग दिये। किन्तु किसी ने भी पानी नहीं पिया। ___ उस समय एक श्रेष्ठी अपनी सेठानी के साथ अन्य गाँव जा रहा था। मार्ग में इस प्रकार हरिण और हरिणी को मरे हुए देखा। सेठ ने सेठानी से पूछा --यहाँ पर कोई शिकारी भी नहीं दिखाई दे रहा है। इनको बाण भी नहीं लगा है। इन्होंने अपने प्राण क्यों त्याग दिये। क्या तुम इसका रहस्य बता सकोगी? खड़े न दीखे पारधी, लगे न दीखें बान । पूछं मैं तुमसे प्रिये, 'क्योंकर तजे पिरान ?' | सेठानी ने उत्तर देते हुए कहा-लगता है प्रियतम ! यहाँ पर जल कम है, पर स्नेह अधिक है जिसके कारण इन दोनों ने 'तू पी' 'तू पी' इस प्रकार एक-दूसरे की मनुहार करते हुए प्राण त्याग दिये जल थोड़ा नेहा घना, लगे प्रीति के बान । 'तू पी', 'तू पी' कर मरे, 'यू कर तजे पिरान' ।। सेठानी के उत्तर से सेठ अत्यधिक प्रसन्न हुआ। उसने कहा-तूने वास्तविकता का उद्घाटन किया है । और वे एक-दूसरे की प्रेम-प्रशंसा करते हुए आगे बढ़ गये। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि की परीक्षा गुजरात के चांपानेर दुर्ग में मुहम्मदशाह बेगड़ा का राज्य था। लघुक नामक एक ब्राह्मण जो कथाव्यास था, उस पर मुहम्मदशाह की अत्यधिक कृपा थी। मुहम्मदशाह उसके संकेत से कार्य करते थे। वे उसकी प्रतिभा से प्रभावित थे। काजी-मुल्लाओं को ईर्ष्या हाने लगी। वे सोचने लगे-मुहम्मदशाह मुसलमान होकर एक हिन्दू पण्डित के संकेत पर कार्य करता है और व्यास भी प्रातःकाल ही आकर बैठ जाता है। काजी-मुल्लाओं ने मिलकर मुहम्मदशाह से प्रार्थना की-हुजूर, कुरान शरीफ में लिखा है प्रातःकाल हिन्दू लोगों का मुंह नहीं देखना चाहिए, क्योंकि उनका मुह देखने से दोजख प्राप्त होती है। अतः हमारा निवेदन है आप प्रातःकाल व्यास का मुंह न देखा करें। मुहम्मदशाह ने कहा-अब से मैं ध्यान रखूगा। दूसरे दिन प्रातःकाल जब लघुक महल में पहुंचा तब मुहम्मदशाह ने कहा-तुम प्रातःकाल मेरे पास न आया करो। मैं तुम्हारा सुबह-सुबह मुह देखना पसन्द नहीं करता। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ पंचामृत व्यास वहां से चल दिया। उसे अपना अपमान महसूस हुआ। अतः चांपानेर दुर्ग को छोड़कर कटिग्राम में जाकर रहने लगा। व्यास की अनुपस्थिति से शाह को अटपटा लगने लगा। मन में विचार आया--मैंने मुल्लाओं के कहने से गलत निर्णय ले लिया। व्यास को पुनः कैसे बुलाया जाय ? उसने काजी-शेख-मुल्लाओं के समक्ष चार प्रश्न उपस्थित किये-(१) सर्वबीज, (२) सर्वरस; (३) कृतज्ञ और (४) कृतघ्न-ये चार वस्तुएँ लाओ। किन्तु मुल्लाओं में बुद्धि का अभाव था। वे बहुत सोचते रहे, किन्तु उत्तर न दे सके। दूसरे दिन मुल्लाओं ने कहा-इस प्रश्न का उत्तर हमें नहीं आता। मुहम्मदशाह ने क्रुद्ध होकर कहा-तुम बुद्ध हो। तुम्हें कुछ भी समझ नहीं है। तुम केवल ईर्ष्या करना जानते हो। यदि लघुक व्यास होता तो वह समुचित उत्तर दे सकता था। मुल्लाओं ने कहा-आपको केवल भ्रम है। लघुक व्यास इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकता, हम दावे के साथ कह सकते हैं। मुहम्मदशाह ने अपने अनुचर को भेजकर व्यास को आदरपूर्वक बुलवाया और सभी के सामने वे चारों Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि की परीक्षा १४ प्रश्न किये। व्यास ने कहा-अभी तो समय बहुत ही कम है, मैं कल प्रातःकाल इसका उत्तर दूंगा। दूसरे दिन लघुक व्यास राजसभा में उपस्थित हुआ। उसके हाथ में जल, नमक, कुत्ता और जामाता था। उसने चारों प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा-यह पानी सर्वबीज है, क्योंकि पानी के अभाव में कोई भी बीज.पैदा नहीं हो सकता । नमक की ओर संकेत करते हुए कहा-यह सर्वरस है। इसके बिना सभी रस स्वादहीन प्रतीत होते हैं। कुत्ते की ओर अंगुली निर्देश करते हुए कहा-यह कृतज्ञ है, केवल दो रोटी के आधार पर यह अपने स्वामी की रक्षा करने के लिए सदा तत्पर रहता है। जामाता को बताते हुए कहा-यह कृतघ्न है। इसको चाहे कितना भी दे दिया जाय तो भी यह कभी उपकार नहीं मानता। मुहम्मदशाह उसके उत्तर को सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुए और अत्यधिक पुरस्कार प्रदान कर उसका अभिनन्दन किया। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ शुरु-भक्ति महर्षि आयोद धौम्य का शिष्य उपमन्यु गुरुभक्त तथा कर्तव्यनिष्ठ था। उसके मन में गुरु के प्रति अपार निष्ठा थी। गुरु ने गौएं चराने का और उन गौओं की रखवाली का कार्य उसे दे रखा था। वह सदा गुरुसेवा में तल्लीन रहता । गुरु के आदेश से वह गांव में भिक्षा लेने के लिए जाता और जो भी भिक्षा प्राप्त होती सब लाकर गुरु के समक्ष रख देता। गुरु सारी भिक्षा अपने लिए रख लेते और शिष्य को उसमें से तनिक मात्र भी अन्न नहीं देते। उपमन्यु शांति से अपने कार्य में लगा रहता। एक दिन ऋषि ने उपमन्यु से पूछा-उपमन्यु ! मैं तुम्हें भिक्षा में से कुछ भी नहीं देता। ऐसी स्थिति में भी तुम्हारा शरीर बहुत ही हृष्ट-पुष्ट है। बताओ तुम क्या खाते हो? उपमन्यु ने कहा-गुरुदेव ! मैं दुबारा भिक्षा मांग कर लाता हूँ। __ ऋषि ने कहा- तुम यह ठीक नहीं करते । दुबारा गृहस्थों के यहाँ भिक्षा के लिए जाते समय तुम्हें शर्म Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ नहीं आती ? वे गृहस्थ लोग मन लोग मन में क्या सोचते होंगे ? दूसरे भिक्षुओं को भिक्षा नहीं मिलती होगी । यह सारा पाप तुम्हें लगता है । उपमन्यु ने कहा- गुरुदेव ! अब मैं ऐसा नहीं करूँगा । कुछ दिनों के पश्चात् ऋषि ने पुनः एक दिन उससे पूछा- तुम आजकल क्या भोजन करते हो ? उपमन्यु ने कहा -- इन दिनों मैं केवल गाय का दूध पी लेता हूँ । ऋषि ने डाँटते हुए कहा गायें मेरी हैं । मेरी बिना अनुमति के तुम गायों का दूध कैसे पी सकते हो ? तुमने बड़ा अपराध किया है । अब उपमन्यु ने कहा- गुरुदेव ! मुझे पता नहीं था इसीलिए मैंने दूध पिया है । अब से दूध नहीं पीऊँगा । कुछ दिनों के पश्चात् पुनः ऋषि ने पूछा -अब तुम क्या खाते हो ? उसने बताया - बछड़ों के मुँह से जो फेन गिरता है वह मैं ग्रहण कर लेता हूँ | ――― ऋषि ने कहा -- गोवत्स बड़े ही दयालु होते हैं । वे तुम्हारे लिए अधिक झाग बनाकर गिराते हैं और स्वयं भूखे रह जाते हैं । इसीलिए ऐसा दुष्कृत्य तुम्हें नहीं करना चाहिए । इससे बछड़ों के भूखा रहने का पाप तुम्हें लगता है । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ पंचामृत ऋषि ने उपमन्यु के भोजन के सभी द्वार बन्द कर दिये थे। गायों के पीछे दौड़ते रहने से तीव्र भूख सताती थी। दूसरा कोई उपाय नहीं मिला जिससे विवश होकर उसने आक के पत्ते खा लिए। उन विषैले पत्तों के कारण वह आँखों से अन्धा हो गया। उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, अतः चलते-चलते वह एक दिन पानी रहित कुए में गिर गया। सूर्यास्त हो गया था। किन्तु उपमन्यु अभी तक लौटा नहीं था। ऋषि सोचने लगे—मैंने उसके भोजन के सभी द्वार बन्द कर दिये। संभव है इसी से वह रुष्ट होकर कहीं भाग तो नहीं गया है ? अतः अपने अन्य शिष्यों के साथ उसी जंगल में पहुंचे जहाँ उपमन्यु गायें चराने के लिए ले जाता था। ऋषि ने आवाज लगाईवत्स उपमन्यु ! तुम कहाँ हो ? उसी समय उपमन्यु की ध्वनि सुनाई दी-~-गुरुदेव ! मैं कुए में गिरा हुआ हूँ। ऋषि कुए के सन्निकट आये। पूछने पर उपमन्यु ने बताया-भूख से छटपटाने के कारण मैंने आक के पत्ते खाये थे जिससे मेरी नेत्र-ज्योति चली गई। ऋषि ने कहा-वत्स उपमन्यु ! तुम अश्विनीकुमार जो देवों के वैद्य हैं, उनकी स्तुति करो जिससे तुम्हारी नेत्र-ज्योति पुनः आ जाएगी। गुरु के आदेश के अनुसार Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु-भक्ति १४७ उपमन्यु ने स्तुति प्रारम्भ की। अश्विनीकुमार प्रगट हुए एक बहुत ही बढ़िया मालपुआ उसे देते हुए कहाइसे खा लो। उपमन्यु ने नम्रतापूर्ण निवेदन कियामैं गुरुदेव को अर्पण किये बिना नहीं खा सकता। अश्विनीकुमारों ने कहा-तुम्हारे गुरु ने भी पहले हमारी स्तुति की थी और हमने प्रसन्न होकर उन्हें मालपुआ दिया था। वह उन्होंने बड़ी प्रग्रन्नता से खाया। तुम भी इसे खा लो। उपमन्यु ने कहा-आप मुझे क्षमा करें। मैं गुरुजनों का दोष नहीं देख सकता और न सुन ही सकता हूँ। यदि उन्होंने कभी गलती की तो मैं भी उस गलती की पुनरावृत्ति करू यह योग्य नहीं है। मैं गुरु को बिना अर्पण किए कुछ भी नहीं खा सकता। अश्विनीकुमारों ने अत्यधिक प्रसन्न होते हुए कहा-तेरी गुरुभक्ति पर हम अत्यधिक प्रसन्न हैं। तुम्हारी नेत्र-ज्योति पहले से भी अधिक तेज हो जाएगी। और तुम्हारे दाँत भी मुक्ता की तरह चमकने लगेंगे। वे इतने मजबूत हो जायेंगे कि वृद्धावस्था में भी नहीं गिरेंगे। अश्विनीकुमारों ने उपमन्यु को कुए थे बाहर निकाला। उपमन्यु ने महर्षि को नमस्कार किया Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ पंचामृत सारी बातें सुनकर ऋषि ने प्रसन्न होते हुए कहासारे वेद, उपनिषद् आदि धर्म शास्त्र तुझे स्वतः ही कण्ठस्थ हो जायेंगे । और उनके रहस्य का तुम्हें सम्यक परिज्ञान हो जाएगा। तुम धर्म और दर्शन के गम्भीर रहस्यों को सम्यक् प्रकार से जान जाओगे । पौराणिक साहित्य में उपमन्यु की प्रस्तुत घटना गुरुभक्ति का एक ज्वलन्त आदर्श उपस्थित करती है । 0 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ विचित्र युक्ति एक जाट बारह वर्ष तक दिल्ली में रहा । अब वह अपने गाँव जाने की सोच रहा था । उसके मन में यह विचार आया कि बारह वर्ष तक दिल्ली में रहने के बावजूद भी बादशाह के दर्शन नहीं हुए। मेरे गाँव वाले मुझसे पूछेंगे तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा । उसने अपने विचार एक सेठ के सामने प्रस्तुत किए । सेठ ने कहा - बादशाह के दर्शन या तो नेकी से हो सकते हैं या बदी से हो सकते हैं । जाट ने कहा - सेठजी ! मैं आपकी रहस्यभरी बात नहीं समझ सका । जरा इसे स्पष्ट करें । सेठ ने कहा – बादशाह के दर्शन का एक मार्ग तो यह है - दस-बीस स्वर्णमुद्राएँ बादशाह को अर्पित करो । और दो-चार स्वर्णमुद्राएँ बादशाह के अनुचरों को खिलाओ तो बादशाह के दर्शन सम्भव हैं । यदि ऐसा नहीं कर सकते हो तो नगर के सुप्रतिष्ठित किसी व्यक्ति के दो-चार जूते लगा दो । वह रुष्ट होकर तुम्हें बादशाह के पास ले जाएगा । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचामृत जाट के पास स्वर्णमुद्राएँ नहीं थीं । वह तो बड़ी कठिनाई से अपना पेट भर रहा था । उसने सोचा- पहला उपाय मैं नहीं कर सकता। दूसरा उपाय ही अच्छा है। उसने अपने पैर में से जूता निकाला और उसी सेठ के सिर पर जमा दिया। जूते के प्रहार से सेठ को अत्यधिक क्रोध आया। उसने अपने अनुचरों से उसे पकड़वा लिया और न्याय के लिए उसे पकड़कर बादशाह के पास ले जाने के लिए प्रस्थित हुआ । मार्ग में ही कोतवाल और राजगणिका ने उसे रोकना चाहा। जाट ने क्रुद्ध होकर उनके सिर पर भी जूते लगा दिये । सेठ तो पहले से ही गुस्से में भरा हुआ था । वे दोनों भी आपे से बाहर हो गए। जाट को लेकर वे तीनों वादशाह के दरबार में पहुँचे । १५० बादशाह ने जाट से अपराध का कारण पूछा जाट ने सही स्थिति बताते हुए बादशाह से कहामेरी इच्छा चिरकाल से आपके दर्शन करने की थी । मैंने सेठ से आपके दर्शन के सम्बन्ध में पूछा । सेठ ने दो उपाय बताये । मैं गरीब आदमी पहला उपाय नहीं कर सकता था । सेठ ने ही मुझे दूसरा उपाय बताया था, अतः मैंने सोचा कि इनसे बढ़कर दूसरा व्यक्ति कौन होगा ? अतः मैंने सेठ के बताये हुए उपाय का प्रयोग Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्र युक्ति FET उन्हीं पर किया । सेठजी मुझे लेकर आ रहे थे आपके दर्शन के लिए, बीच में कोतवाल साहब ने और बहिनजी ने बाधा उपस्थित की । उन्होंने सेठ को बतायाक्यों जाट के पीछे पड़े हो, जिस फल में रस नहीं है उसे निचोड़ने में फायदा ही क्या है ? जिससे सेठ का रोष कम हो गया और उसने पुनः लौटना चाहा । तब मैंने आपके दर्शन हेतु सेठ के बताये हुए उपाय का प्रयोग कोतवाल और बह्निजी पर किया । जिससे इन्होंने कृपा कर आपके दर्शन करवाये हैं । बादशाह और सभासद जाट की बुद्धि पर प्रसन्न थे । बादशाह ने उसके अपराध को क्षमा कर और कुछ पुरस्कार देकर जाट को विदा किया। जाट आह्लादित होता हुआ राज-परिषद् से बाहर निकला । सेठ ने, कोतवाल ने और गणिका ने एक स्वर से कहा -- बादशाह ने न्याय नहीं किया है। इस प्रकार बदमाश व्यक्तियों को प्रोत्साहन देना उचित नहीं है । ऐसी स्थिति में हम यहाँ नहीं रह सकते । हम यहाँ से अन्यत्र चले जाएँगे । उसे कठोर दण्ड देना चाहिए था बादशाह को भी उनकी बातों में कुछ तथ्य प्रतीत हुआ । पुनः अपने अनुचरों को भेजकर जाट को अपने Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ पंचामृत पास बुलाया। जाट बादशाह के पास लौटने लगा। उसे रास्ते में तीन पहरेदार मिले। उन्होंने जाट को रोककर कहा-बादशाह आपको जो भी पुरस्कार प्रदान करें, उसमें आधा हिस्सा मेरा है । दूसरे और तीसरे पहरेदार ने कहा, उसमें चौथा-चौथा हिस्सा हमारा है । जाट ने पहरेदारों की बात स्वीकार ली। वह बादशाह के समक्ष उपस्थित हुआ। बादशाह ने क्रोध से लाल आँखें करते हुए कहा-इस जाट को ५०० कोड़े लगाए जाएँ। सेठ, कोतवाल और गणिका बादशाह के इस आदेश को सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुए। जाट ने भी खिलखिलाकर हँसते हुए कहा-आपका आदेश मुझे सहर्ष स्वीकार है। मैं पुनः आपके दर्शन के लिए आ रहा था। उस समय आपके तीन पहरेदारों ने मेरे को कहा ---जो भी बादशाह तुम्हें पुरस्कार दे उसमें प्रधान पहरेदार का आधा हिस्सा है और दो लघु पहरेदारों का चौथा-चौथा हिस्सा है। मैंने उन्हें देने का वचन दिया है। अतः इन पाँच सौ कोड़ों में से २५० कोड़े प्रधान पहरेदार को और १२५-१२५ लघु पहरेदारों को लगा दिये जायं। मैं तो बड़ा सौभाग्यशाली हूँ, मुझे ___ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्र युक्ति ११३ आपके दर्शनों का सौभाग्य एक बार नहीं दो बार हो गया है। वह बादशाह को प्रणाम कर चल दिया। पहरेदार इस विचित्र पुरस्कार को पाकर दंग थे और जाट अपनी युक्ति पर प्रसन्न था। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ সানন ষ্টী ঠিালী एक गाँव में एक बहुत ही बुद्धिमान किसान रहता था। वह बहुत ही परिश्रमी था। एक बार वह अपते खेत जोतने जा रहा था। रास्ते में उसे एक खूख्वार बन्दरों का समूह मिला। उन्होंने किसान को कहा-तुम यहाँ से भाग जाओ। यदि यहाँ पर तुमने कुछ भी खेती की तो वह खेती सुरक्षित नहीं रह सकेगी। किसान ने मुस्कराते हुए कहा-बन्दरो ! तुम तो बहुत ही सज्जन हो। देखो, मुझे खेती करने दो। श्रम मैं करूँगा और जो पैदा होगा उसका आधा हिस्सा मैं तुम्हें सहर्ष दूंगा। तुम्हें तो बिना श्रम किये ही खेत का आधा माल मिलेगा। इसलिए तुम नाराज न बनो और सहयोग दो। बन्दरों ने कहा- यदि ऐसा है तो जो जमीन पर पैदा होगा उसके मालिक हम बनेंगे और जो जमीन के अन्दर होगा उस पर तुम्हरा अधिकार होगा। बोलो, तुम्हें हमारी यह शर्त स्वीकार है न ? Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव की बुद्धिमानी १५५ किसान ने कहा- मैं तुम्हारी शर्त को सहर्ष स्वीकार करता हूँ। किसान ने अपने खेत में आलू बो दिये । बन्दर रात-दिन उसकी रक्षा के लिए लग गये। जब खेत पूर्ण तैयार हो गया तो किसान गाड़ी लेकर माल लेने के लिए वहाँ पहुँचा । बन्दर भी पहले से वहाँ तयार थे। किसान ने अपनी शर्त के अनुसार आलू ले लिए और पत्ते बन्दरों के हाथ में लगे। जब उन्होंने आलू के पत्ते चबाये तो उन्हें स्वादिष्ट नहीं लगे। जब किसान चला गया खेत में एक स्थान पर कुछ आलू उन्हें मिल गये। जब उन्होंने वे आलू खाये तो उन्हें बहुत ही स्वादिष्ट लगे। बन्दर किसान के पीछे दौड़े, किन्तु तब तक किसान अपने घर पहुँच चुका था। उसने आ लुओं को घर में सुरक्षित रख दिया था। अत: वे निराश होकर लौट आये। कुछ दिनों के पश्चात् किसान पुनः खेती का सामान लेकर खेत पर पहुँचा। वह खेत जोतना चाहता था। किन्तु बन्दरों की क्रोधभरी मुद्रा से किसान एक बार भयभीत हो गया। किन्तु दूसरे ही क्षण संभलकर उसने कहा-बन्दर भाइयो ! तुम मेरे पर इतने नाराज क्यों हो? तुमने जैसा कहा था वैसा ही मैंने किया। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ पंचामृत फिर नाराज होने की बात ही क्या है ? मैं तो अब भी तुम जैसा कहोगे वैसा करने के लिए तैयार हूँ । बन्दरों ने कहा- तुमने पिछली बार हमें ठग लिया है। इस बार हम तुम्हारे चक्कर में न आएंगे । तुम्हें हमारी शर्त स्वीकार हो तो यहाँ पर खेती कर सकते हो । नहीं तो नहीं। देखो, जो जमीन के अन्दर का भाग होगा उस पर हमारा अधिकार होगा और जो ऊपर का भाग होगा उस पर तुम्हारा अधिकार होगा । किसान ने कहा- मुझे आपकी शर्त सहर्ष मंजूर है । किसान ने इस बार खेत में गेहूँ बोये । इस बार भी बन्दर उसका पहरा देते रहे ताकि कोई खेती का नुकसान न कर सके। जब खेती पककर तैयार हुई, तां किसान गाड़ियाँ लेकर उपस्थित हुआ । वह ऊपर का हिस्सा गेहूँ की बालियाँ गाड़ियों में लादकर घर की ओर चल दिया | बन्दर आह्लादित होते हुए खेत में जड़ें निकाल निकालकर चबाने लगे । किन्तु पिछली बार की तरह इस बार भी उनका मुँह कड़वाहट से भर गया । सारे मुँह में मिट्टी भर गई । इस बार उन्हें बहुत ही क्रोध आया -- किसान Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव का बुद्धिमानी २७ को हम नोच देंगे। वे सभी किसान को पकड़ने के लिए दौड़े, पर किसान अपने घर पहुँच चुका था, इसलिए वे उसका बाल भी बांका न कर सके। तीसरी बार जब किसान खेती करने के लिए पहुँचा तो बन्दरों ने क्रुद्ध होते हुए कहा-तुमने दो बार हमें ठग लिया है। किन्तु इस बार हमें ठग न सकोगे । यदि तुम्हें हमारी शर्त स्वीकार हो तो खेती कर सकते हो। किसान ने कहा-जैसा भी आप आदेश देंगे मुझे सहर्ष स्वीकार है। बन्दरों ने कहा-इस बार ऊपर का और जमीन के अन्दर का जो भाग होगा उसे हम लेंगे, बीच के भाग पर तुम्हारा अधिकार होगा। किसान ने बन्दरों की शर्त स्वीकार करली। इस बार उसने गन्ने की खेती की। जब खेती तैयार हो गई तो पूर्व की तरह किसान खेत पर गाड़ियां लेकर पहुँचा। इस समय बन्दर बहुत ही खुश थे। किसान ने शर्त के अनसार ऊपर का हिस्सा और जमीन में रहने वाले हिस्से को काटकर बन्दरों को दे दिया और स्वयं गन्न लेकर चल दिया। इस बार भी बन्दरों ने जब उसे चखा तो किसी भी प्रकार के मधुर स्वाद का अनुभव न हुआ। उन्होंने देखा–बुद्धिमान मानव से चाहे ___ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ पंचामृत कैसा भी समझौता किया जाय, पर वह अपनी बुद्धि के सामने हमें कभी भी टिकने नहीं देगा। हम केवल खेती की देखभाल कर मजदूरी करते रहे और वह सदा ही मधुर व काम की वस्तु को लेकर चलता बना । इसलिए उन्होंने वहाँ से प्रस्थान कर दिया। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा साहित्य की अनमोल पुस्तकें * जैन कथाएँ [भाग 1 से 53] तैयार 3)=156) [भाग 54 से 100 तक संपादन-प्रकाशनाधीन *बिन्दु में सिन्धु 2) *अतीत के उज्ज्वल चरित्र 2) * प्रतिध्वनि 3)50 * बोलते चित्र 1)50 * फूल और पराग१)५० * महकते फूल 2) * अमिट रेखाएँ 2) * मेघकुमार 2)50 * मुक्ति का अमर राही: जम्बूकुमार 5) *सोना और सुगन्ध 2) * सत्य-शील की अमर साधिकाएँ 12) * शूली और सिंहासन 2) * खिलती कलियां : मुस्कराते फूल 3)50 * भगवान महावीर की प्रतिनिधि कथाएँ शीघ्र ही प्रकाशमान * पंचामत३) * जीवन की चमकती प्रभा 3) * धरती के फूल 3) * चमकते सितारे 3) * गागर में सागर 3) * अतीत के चलचित्र 3) * बोलती तस्वीरें 3) * कुछ मोती: कुछ हीरे 3) ये लघु कथाएँ प्रेरक, बोधप्रद और अत्यन्त रोचक हैं। सम्पर्क करें: श्री तारक गुरु जन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल उदयपुर (राज.) आवरण पृष्ठ के मुद्रक शैल प्रिन्टर्स' माईथान, आगरा-३