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६० पंचामृत अमात्य पद नहीं चाहिए। जिससे मेरी साधना में विघ्न उपस्थित होता हो वह पद किस काम का। यह सोचकर अमात्य ने उसी समय मुद्रा अपने हाथ से निकाली और नापित के हाथ में थमा दी।
आचार्य देख रहे थे। उन्होंने कहा-वत्स ! तुम ऐसा क्यों कर रहे हो ?
अमात्य ने कहा--गुरुदेव ! यह मुद्रा ही साधना में बाधक है। अब मैं अच्छी तरह से धार्मिक साधना कर सकूँगा।
अंगरक्षक अमात्य की मुद्रा को लेकर अत्यन्त आह्लादित था। वह मन ही मन सोचने लगा-राजा मेरे पर बहुत ही प्रसन्न है। अतः अमात्य पद मुझे ही मिलेगा। कम से कम मैं इस अमात्य मुद्रा को पहनकर साधारण लोगों की दृष्टि में अमात्य का गौरव प्राप्त कर सकता हूँ। राजा को इतनी कोई जल्दी नहीं है। यदि मैं विलम्ब से पहुँचा तो भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी।
ऐसा सोचकर उसने वह मुद्रा अपनी अंगुली में धारण कर ली। वह मुद्रिका को धारण कर फूला न समा रहा था। मेरी अंगुली में राजमुद्रा है-इस बात का प्रदर्शन करने के लिए वह एक पानवाले की दुकान
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