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६४ पंचामृत चीत्कार से सारा वातावरण ही विकृत हो गया। राजा की कुलरक्षिका मल्लिकादेवी ने इस भीषण जीवसंहार को देखा तो उसका हृदय भी द्रवित हो उठा। उसने स्वप्न में राजा से कहा-राज्य के संवर्द्धन और सुख-शान्ति के लिए इस रक्त से सने हुए कृत्य को बन्द करो। इस भीषण संहार से तो हानि है, लाभ नहीं।
राजा ने संरक्षिका से कहा-देवी ! यह कार्य मैंने अपनी इच्छा से नहीं किया है। राज्य के मुख्य विज्ञों से स्वप्नों के सम्बन्ध में पूछा गया तो उन्होंने स्वप्नों के दुष्परिणाम को टालने के लिए यह उपाय बताया है। इसलिए मुझे यह उपाय करना पड़ेगा। नहीं तो राज्य की सुरक्षा नहीं है और न मेरी ही सुरक्षा है।
देवी ने कहा-तुम्हारा कहना ठीक है, पर तुमने उन अर्थलोभी पंडितों से तो पूछा है, किन्तु जेतवन में अवस्थित तथागत बुद्ध से नहीं पूछा है ? क्योंकि वे तो विज्ञों के भी विज्ञ हैं। वे स्वप्नों के सम्बन्ध में जो बतायेंगे वह यथार्थ होगा। अतः तुम उनसे जाकर इस सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत करो। इस प्रकार कहकर देवी अन्तर्धान हो गई।
प्रातः राजा जेतवन में पहुँचा जहाँ तथागत बुद्ध
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