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८० पंचामृत भक्त हो उसके कलेजे का जरा-सा मांस मिल जाय तो मैं इस रोग से मुक्त हो सकता हूँ।
यह सुनते ही नारद हाथ में वीणा लेकर चल दिये। नारदजी उन बड़े-बड़े मन्दिरों में पहुँचे जहाँ भक्तगण भक्ति कर रहे थे। नारद ने उन भक्तों से विष्णु के लिए कलेजे के मांस की मांग की। किन्तु कोई भक्त तैयार नहीं हुआ। वहाँ वे से सीधे ही योगी और तपस्वियों के आश्रम में पहुँचे जो रात-दिन विष्णु के ध्यान में तल्लीन रहते थे। उनके सामने भी नारद ने विष्णु के उदरशूल की बात बताते हुए कहा कि औषधि के लिए भगवान् को अपने भक्त का मांस चाहिए। वे सभी योगी इधर से उधर बगलें झाँकने लगे तो वे वहाँ से सीधे ही देवों के पास पहुँचे उनसे भी भगवान के रुग्ण होने की बात कही, पर कोई भी अपने कलेजे का मांस देने के लिए प्रस्तुत न हुआ। वे हताश और निराश होकर एक जंगल में से जा रहे थे। नारदजी को उद्विग्न देखकर एक भील ने उनका रास्ता रोक लिया और पूछा-ऋषिप्रवर ! आपका चेहरा इतना चिन्तित क्यों है ? .. . .. .. नारदजी ने कहा--मेरे को तनिक मात्र भी समय
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