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लालच बुरी बला ८७ लगा । मैं जब यहाँ से गया था उस समय आश्रम का द्वार पूर्व में था। अब पश्चिम में कैसे हो गया? वह आश्रम में पहुँचा। उसने आश्रम के साधु को नमस्कार कर पूछा-बाबाजी ! आपका नाम क्या है ?
__ मणिप्रभ ने देखा यह वही रत्नों को रखनेवाला आ गया है। अतः उसने कहा-मेरा नाम चन्द्रप्रभ है। 'बाबाजी ! यहाँ पर पहले मणिप्रभ साधु थे । वे इस समय कहाँ हैं ?' धनदत्त ने पूछा।
उस साधु ने कहा-वे तो कभी के मर गये। श्रेष्ठी धनदत्त ने देखा कि दाढ़ी, जटा और मूंछे बढ़ा लेने पर भी मणिप्रभ की आकृति छिप नहीं रही थी। उसने कहा-सन्त होकर भी आप झूठ बोल रहे हैं । आप स्वयं मणिप्रभ हैं। आपने आकृति बदलने का प्रयास किया है किन्तु मैं आपको अच्छी तरह से जान गया हूँ। कृपया मेरी धरोहर जो आपके पास रखी हुई है, वह मुझे दे देवें । आपको स्मरण है न ? मैंने बारह वर्ष पूर्व आपके पास पाँच रत्न रखे थे। वे रत्न मुझे लौटा दीजिए। मुझे उन रत्नों की अत्यधिक आवश्यकता है।
मणिप्रभ ने आँखें लाल करते हुए कहा-तुम कैसी
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