________________
८६
पंचामृत
के मुँह में पानी आ गया । ये रत्न तो बहुत अच्छे हैं । क्यों न मैं इन रत्नों को हजम कर जाऊँ । यह सोचकर मणिप्रभ ने वे रत्न दूसरे स्थान पर रख दिये ।
कुछ दिनों के पश्चात् मणिप्रभ ने आश्रम का मुख्य द्वार बन्द करवाकर दूसरी दिशा में नया द्वार खोल दिया जिससे यह पता लगे कि प्रस्तुत आश्रम नया है । कहीं धनदत्त श्रेष्ठी विदेश से लौटकर मुझे न पहचान ले, इसलिए उसने दाढ़ी-मूंछें और जटाएँ बढ़ा लीं। साथ ही अपनी एक आँख भी फोड़ दी ।
श्रेष्ठी धनदत्त विदेश गया । भाग्य ने साथ दिया । उसने लाखों रुपये कमाये । बारह वर्ष तक व्यापार करने के पश्चात् वह पुनः अपने नगर लौट रहा था । रास्ते में तस्करों ने उसे लूट लिया। उसका सारा धन अपहरण कर लिया । वह हताश और निराश होकर चन्द्रपुर पहुँचा । उसने सोचा- मेरा भाग्य ऐसा ही है । बारह वर्ष तक कठिन श्रम से कमाया हुआ धन भी न रहा । अब यही एक उपाय है कि मेरे पास जो पाँच रत्न हैं उनमें से एक रत्न को बेचकर मैं अपना जीवनयापन करूँ ।
चन्द्रपुर पहुँचकर वह सीधा ही आश्रम में पहुँचा । किन्तु आश्रम का द्वार बदला हुआ था । वह सोचने
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International