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६४ पंचामृत
अमात्य बनने की धुन आई । इसीलिए उसने मुद्रिका पहनने की अनधिकार चेष्टा की जिसके फलस्वरूप उसे अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा ।
राजा सोचने लगा- मैं जिस अमात्य को अपना शत्रु समझ रहा हूँ वह तो मेरा परम हितैषी है । और जिन्हें मैं अपने मित्र समझ रहा हूँ वे ही सच्चे दुश्मन हैं, जो मेरी मिथ्या प्रशंसा कर मेरे से अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं ।
राजा के मन में अमात्य के प्रति जो दुर्भावनाएँ थीं, वे नष्ट हो गई । वह सोचने लगा - मेरा अमात्य कितना धर्मनिष्ठ है । उसने अमात्य पद छोड़ना स्वीकारा किन्तु धर्म छोड़ना स्वीकार नहीं किया । वह पौषधशाला में पौषध कर रहा है । मैं जाकर उस धर्मात्मा अमात्य के दर्शन करू ।
राजा अमात्य की पौषधशाला में पहुँचा जहाँ पर वह गुरु के सन्निकट बैठा हुआ आत्म-चिन्तन कर रहा था । राजा ने आते ही सर्वप्रथम आचार्यदेव को नमस्कार किया और फिर अमात्य से कहा- मैं इतने दिनों तक धर्म से विमुख था । आज मुझे सही सत्य का पता चला है कि तुमने अमात्य पद को छोड़कर धर्म को स्वीकार करने का जो संकल्प किया है इससे ज्ञात होता
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