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________________ ११८ पंचामृत जिसमें फूल रखे हुए थे, वह गोविन्द के सिर पर दे मारी जिससे गोविन्द के सिर में जख्म हो गया । रक्त बहने लगा । गोविन्द ने भी क्रोध के आवेश में कहाराजकुमारी ! आपको मेरा अपमान करने का कोई अधिकार नहीं है । इस प्रकार का व्यवहार करना उचित नहीं । अब मैं यहाँ नहीं रहूँगा । कुमारी नन्दिनी राजमहलों की ओर चल दी तथा कुछ समय के बाद रक्त को पौंछकर और चाँदी की टोकरी को लेकर गोविन्द भी अपने घर की ओर चल दिया । वह मन ही मन बुदबुदा रहा था- इस प्रकार राज की नौकरी करने से तो अच्छा है कहीं दूर देश में जाकर कोई नौकरी करना । रक्त निकल रहा था, चोट काफी गहरी थी । कुछ दिनों तक विश्राम लेने के पश्चात् वह नगर को छोड़कर एकाकी भयानक जंगल की ओर चल दिया । बिना लक्ष्य के वह बढ़ा जो रहा था। एक नगर के सन्निकट वह पहुँचा । वहाँ उसने देखा - एक स्थान पर कुछ लोग बैठे हुए थे । उनके मानस में प्रसन्नता अंगड़ाइयाँ ले रही थीं । सभी के चेहरे खिले हुए थे । गोविन्द ने पूछा- आज आपके चेहरों पर इतनी प्रसन्नता क्यों है ? और सभी यहाँ पर बैठकर किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ? 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003186
Book TitlePanchamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1979
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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