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________________ ८४ पंचामृत उसके पास ये रत्न रख दिये जायें तो पूर्ण सुरक्षित रहेंगे । 2 वह रत्नों को लेकर आश्रम में पहुँचा और अभिवादन कर मणिप्रभ साधु से कहा- गुरुदेव ! मेरे पास विराट् वैभव था, पर भाग्य के परिवर्तन से सारा वैभव नष्ट हो गया। सिर्फ मेरे पास ये पाँच रत्न रहे हैं । ये रत्न मुझे पिताश्री ने दिये थे । उन्होंने कहा था- इन रत्नों को मत बेचना । इन रत्नों के अतिरिक्त मेरे पास कुछ भी नहीं है इसलिए अब मेरा प्रस्तुत नगर में जीवन निर्वाह करना दूभर हो गया है । मैं इस नगर में भीख भी माँग नहीं सकता । इसलिए विदेश जाने की इच्छा है । पर सोचता हूँ कि विदेश में इन रत्नों को ले जाकर क्या करूँगा ? ये रत्न यहीं पर रख दूँ । जब विदेश से लौटकर आऊँगा तब ये पुनः मिल जाएँगे । मैंने बहुत चिन्तन के पश्चात् यह निर्णय किया है कि इन रत्नों को आपके पास रखा जाय । ये रत्न बहुत कीमती हैं, पर आप जैसे सन्तों के लिए तो चाहे रत्न हो या पत्थर हो सभी बराबर हैं । कृपया ऐसा स्थल बताइए जहाँ पर मैं इन्हें रख सकूँ । साधु मणिप्रभ ने रत्नों को देखा और कहाभाई ! ये रत्न तुम किसी दूसरे स्थान पर रख दो । यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003186
Book TitlePanchamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1979
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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