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________________ श्रेष्ठ शासक ६६ सम्राट् अशोक ने मध्यदेश के प्रान्तपति की ओर देखा । वे हर्ष से विभोर होकर सम्राट् को अभिवादन कर बोले- महाराजाधिराज ! मैंने राजकोष की अभिवृद्धि के हेतु प्रजा पर अनेक कर लगाये। जितने भी अधिकारी थे उन सभी का वेतन कम करके अत्यधिक अर्थराशि एकत्रित की। सम्राट् ने पूर्वीय प्रान्तपति की ओर दृष्टि फैलाई । वे मस्ती में झूमते हुए उठे - राजन् ! मैंने सोचा राज्य के लिए सैन्य शक्ति का होना आवश्यक है । मैंने अपनी सम्पूर्ण शक्ति सैन्य विभाग को समृद्ध करने में लगाई । जिससे सैन्य विभाग ने पूर्वी सीमा पर जो तत्त्व उपद्रव कर राज्य को नष्ट करने में तुले हुए थे, उन सभी को उन्होंने कुचल दिया । अब किसी भी शत्रु की हिम्मत नहीं जो आपके राज्य की ओर आँख उठाकर देख सके । पश्चिम प्रान्त के अधिपति की ओर सम्राट ने दृष्टि फैलाई। उन्होंने अभिवादन की मुद्रा में बतायाप्रतिपल प्रतिक्षण शत्रुओं के आक्रमण से मैं नया विकास कुछ भी नहीं कर सका हूँ । मैं अपनी प्रजा को हर प्रकार से सुख-सुविधाएँ देने के लिए कटिबद्ध हूँ । उसके पश्चात् मगध प्रान्तपति ने निवेदन किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003186
Book TitlePanchamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1979
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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