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६८ पंचामृत स्वर से सम्राट के विचारों का समर्थन किया। दूसरे क्षण उत्तरी सीमान्त के प्रान्तपति अपने आसन से उठे। प्रियदर्शी सम्राट अशोक को नमस्कार करने के पश्चात् उन्होंने अपनी उपलब्धियों का वर्णन करते हुए कहाराजन् ! राज्य की सुव्यवस्था हेतु राजकोष की अत्यधिक आवश्यकता है जिस राजा का कोष समृद्ध है उसे किसी बात की कमी नहीं रहती, इस दृष्टि से मैंने अपने नागरिकों पर विभिन्न प्रकार के कर लगाये जिसके फलस्वरूप राजकोष में विराट् सम्पत्ति एकत्रित हुई है। यदि आप राजकोष के आँकड़ों को देखेंगे तो बड़े ही आह्लादित होंगे। मुझे धन्यवाद प्रदान करेंगे।
सम्राट् प्रियदर्शी ने बहुत अच्छा, कहकर उन्हें संकेत किया कि आप आसनपर बैठे और दक्षिण प्रान्तपति की ओर दृष्टि डाली । वे उठकर नम्रतापूर्वक खड़े हुए। उन्होंने अपनी उपलब्धियों की चर्चा करते हुए कहासम्राट् ! बिना स्वर्ण के सम्राट् की महत्ता नहीं है। जब तक राजकोष स्वर्ण से लबालब न भरा रहेगा वहाँ तक राज्य का संचालन सम्यक् प्रकार से नहीं हो सकता। अतः मैंने राजकोष की संपूर्ति के लिए येन-केन-प्रकारेण स्वर्णराशि एकत्रित की है। गत वर्ष से इस वर्ष पाँच गुना स्वर्ण राजकोष में अधिक है।
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