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________________ ५२ पंचामृत नियम भंग हो जाएगा, क्योंकि धन तो अनेक अनर्थ करवा सकता है । पं० शंकर शर्मा राजसभा में उपस्थित हुआ । राजा ने उसका अभिवादन किया | योग्य आसन पर बैठने के लिए निवेदन किया। बैठने के पश्चात् राजा ने दो थाल स्वर्णमुद्राओं से भरकर मँगवाये और कहा -- विप्रवर, इसे ग्रहण कर मुझे अनुग्रहीत करें । ब्राह्मण ने कहा- राजन् ! मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है । आप ही इसे रखें । राजा ने मन ही मन सोचा कि यह ब्राह्मण सोच रहा है कि यह अपर्याप्त है । इसलिए यह इसे ग्रहण करने में संकोच का अनुभव कर रहा है। राजा ने दो थाल और मँगवाये । पर ब्राह्मण ने स्पष्ट शब्दों में लेने से इनकारी की । उसने कहा- राजन् ! नित्य कर्म ही मेरा धन है । उसके अतिरिक्त अन्य किसी धन की मुझे इच्छा नहीं है । राजा भोज ब्राह्मण के धिक प्रभावित हुआ । उसने सकते हैं । जब कभी भी होगी उस समय में आपको बुला लूँगा । सन्तोषी स्वभाव से अत्यकहा- अच्छा, आप पधार आपश्री के दर्शन की इच्छा कुछ दिनों के पश्चात् राजा भोज ने कालिदास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003186
Book TitlePanchamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1979
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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