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________________ लालच बुरी बला ९१ और आपको रखने के लिए प्रार्थना कर रहा था उस दिन मैं इधर से निकली थी। मैंने भी सुना था। अतः यह झूठ बोल रहा है कि मैंने दस रत्न रखे हैं । वेश्या ने उसको फटकारते हुए कहा-पाँच रत्न रखकर दस रत्न माँगना कहाँ का न्याय है ? बाबाजी ने कहा-मैं पाँच रत्नों को तो अभी देने के लिए तैयार हूँ और उठकर उन्होंने जहाँ पाँच रत्न रखे हुए थे लाकर धनदत्त को दे दिये। धनश्रेष्ठी अपने रत्नों को लेकर प्रसन्नता से चल दिया। कुछ समय के पश्चात् वेश्या की दासियों ने आकर कहा-मालकिन ! घर पर राजा आये हैं। आपको उन्होंने बुलाया है। राजा ने कहा है कि तीर्थयात्रा के लिए तुम अकेली न जाओ। कुछ दिनों के पश्चात् हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे। वेश्या अपनी मंजूषाएँ लेकर चल दी। साधु मणिप्रभ सोचने लगा-वस्तुतः लालच बुरी बला है। मैंने तो यह सोचकर रत्न उसे दिये कि वेश्या के बहुमूल्य आभूषणों को रख लूँगा। पर न तो आभूषण रहे और न रत्न ही रहे। वह मन ही मन में अपने कृत्य पर पश्चात्ताप करने लगा-जिस लोभ के कारण मैंने आँख फोड़ी, रूप कुरूप बनायो वे रत्न भी नहीं रहे। लोभ ने मेरा कितना पतन किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003186
Book TitlePanchamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1979
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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