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तीन लाल की तीनमा
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नागदेव ने मानव की भाषा में कहा-राजन् ! मैं तुम्हारे भव्य स्वागत बहुत ही प्रसन्न हूँ। मेरा सारा क्रोध और रोष तुम्हारे स्वागत को देखकर समाप्त हो गया। अतः तुम जो भी इच्छा हो मेरे से मांगो। मैं तुम्हें सहर्ष देने के लिए तैयार हूँ।
राजा ने नागराज से निवेदन किया-आपकी कृपा से मेरे पास सभी कुछ है। मुझे किसी भी चीज की आवश्यकता नहीं। आप जिस अपार कष्ट को सहन कर यहाँ पर पधारे हैं, वह कार्य आप करें। ...
सांप ने कहा-राजन् ! तुम्हारे जैसे प्रजावत्सल राजा को मारना उचित नहीं है । मैं तुम्हें अभय प्रदान करता है। पर भावी को कोई टालने वाला नहीं। अतः मैं तुम्हारे बदले अपने प्राणों का त्याग कर रहा हूँ। यह कहकर सर्प ने सदा के लिए प्राण त्याग दिये। राजा ने उस निर्जीव सर्प का अग्नि-संस्कार किया। वह वहाँ से सीधा ही अन्तःपुर में पहुँचा। राजा ने दूर से देखा महारानी की आँखों से आँसुओं की धारा बह रही है और उसके सन्निकट बैठा एक पुरुष उसे सान्त्वना दे रहा है। पुरुष को देखते ही राजा का क्रोध ज्वार-भाटे की तरह बढ़ गया। उसने तलवार के एक झटके में उस पुरुष को और महारानी को समाप्त करने का निश्चय
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