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कठिन शब्दार्थ - मियग्गामे
मृगा ग्राम, उत्तरपुरत्थिमे
उत्तर पूर्व, दिसिभाए -
दिग्भाग में अर्थात् ईशान कोण में, चंदण पायवे चन्दन पादप, सव्वोउय पुप्फ-फलसमिद्धे - सर्व ऋतुओं में होने वाले फल फूलों से युक्त, जक्खाययणे - यक्षायतन, चिराईएपुराना, खत्तिए - क्षत्रिय, राया राजा, परिवसइ - रहता था, अहीण पडिपुण्ण पंचिंदिय सरीरा - पांचों इन्द्रियाँ परिपूर्ण या निर्दोष शरीर ।
विपाक सूत्र - प्रथम श्रुतस्कन्ध
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भावार्थ - तत्पश्चात् सुधर्मा अनगार जम्बू अनगार को इस प्रकार कहने लगे - हे जम्बू! उस काल और उस समय में मृगा ग्राम नामक एक प्रसिद्ध नगर था। उस मृगाग्राम नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिशा के मध्य अर्थात् ईशान कोण में संपूर्ण ऋतुओं में होने वाले फल पुष्पादि से युक्त चंदन पादप नामक एक रमणीय उद्यान था । उस उद्यान में सुधर्मा नामक यक्ष का एक पुराना ( प्राचीन) यक्षायतन था जिसका वर्णन पूर्णभद्र के समान समझ लेना चाहिये। उस मृगाग्राम नगर में विजय नाम का एक क्षत्रिय राजा रहता था। उस विजय नामक क्षत्रिय राजा की मृगा नामक रानी थी जो सर्वांग सुंदर, रूप लावण्य से युक्त थी ।
विवेचन
प्रस्तुत मूल पाठ में चार स्थानों पर 'वण्णओ' (वर्णक) पद का प्रयोग हुआ है। प्रथम का नगर के साथ, दूसरा उद्यान के साथ, तीसरा विजय राजा और चौथा मृगादेवी के साथ जैनागमों की यह विशिष्ट वर्णन शैली है कि यदि किसी एक आगम में उद्यान, नगर, चैत्य, राजा, रानी तथा संयमशील साधु या साध्वी का सांगोपांग वर्णन कर दिया हो तो दूसरे स्थान में अर्थात् दूसरे आगमों में प्रसंगवश वर्णन की आवश्यकता को देखते हुए बिस्तार भय से उसका पूरा वर्णन नहीं करते हुए आगमकार उसके लिये 'वण्णओ' यह सांकेतिक शब्द प्रयुक्त कर देते हैं। अतः 'वण्णओ' शब्द से औपपातिक सूत्र में वर्णित नगर, उद्यान, यक्षायतन, राजा और रानी के वर्णन के अनुसार मृगाग्राम नगर, चन्दन पादप उद्यान, सुधर्मा यक्षायतन, विजय राजा और मृगावती का वर्णन समझ लेना चाहिये ।
मृगापुत्र का वर्णन
तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियाए देवीए अत्तए मियापुत्ते णामं दारए होत्था जाइअंधे जाइमूए जाइबहिरे जाइपंगुले य हुंडे य वायव्वे, णत्थि णं तस्स दारगस्स हत्था वा पाया वा कण्णा वा अच्छी वा णासा वा, केवलं से तेसिं अंगोवंगाणं आगिई आगिइमेत्ते । तए णं सा मियादेवी तं मियापुत्तं दारगं
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