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श्रीमद्भागवत पुराण में जैन तीर्थंकर को नमस्कार नाभेरसा वृषभ प्राससु देव सूनुर्योवैवचार समदृग् जड़ योगचर्याम् । यत्पारमहंस्य मृषयः पदमामनंति स्वस्थः प्रशांतकरणः परिमुक्तसंग ।१०।
-भागवत, स्कंध २, अ.७ । अर्थात्-ऋषम अवतार कहे हैं कि ईश्वर अगनीन्ध्र के पुत्र नाभि से सुदेवी पुत्र ऋषभदेव जी हुये समान दृष्टा जड़ की तरह योगाभ्यास करते रहे, जिनके पारमहंस्य पद को ऋषियों ने नमस्कार किया, स्वस्थ शांत इन्द्रिय सब संग त्याग कर 'ऋषभदेव जी हुए जिनसे जैन धर्म प्रगट हुआ | ____ श्रीऋषभदेव' से किसी और महापुरुष का भ्रम न हो सके इसी लिये इसी ग्रंथ के स्कन्ध ५ के अध्याय ५ में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि श्री ऋषभदेव जी राज पाट को त्याग कर 'नग्नदिगम्बर' हो गये थे और वे अर्हन्त देव होकर परम अहिंसा धर्म का उपदेश देकर मोक्ष गये ।
%. Bhagwat Puran endorses the view that Rishabha Deva
(Ist Tirthankara of Jains) was founder of Jainism. . -Dr.Radhakrishnan: Indian Philosophy Vol II P. 287. २ प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव का वर्णन हिंदू पुराणों में भी मिलता है जहां
उन्हें प्राचीन काल का बताया है-Hon'ble Shri P.S. Kumar
Raja Swamy, Vir. Delhi. 3. The Brahmadas havs myths in their Purans about Rish
abha Son of King Nabhi and Queen Meru, These particulars are also related by the Jains-Dr. B.C. Law :
VOA Vol II P.7.. ४. For details see "Lord Rishabhadeva' in Vol III.
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