Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्तावना
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___जैन सिद्धान्तों की विवेचना/व्याख्या के लिये अनेकों नीतिकथाओं की रचना हुई है। प्राकृत साहित्य में इन कथाओं की भरमार है। इनका संस्कृत रूपान्तर, बहुत बाद की वस्तु है । 'उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा' को भी संस्कृत साहित्य के नीतिकथा ग्रन्थों में महत्त्वपूर्ण सम्मान मिला है। १५वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में लिखी गईं जिनकीति की 'चम्पक श्रेष्ठि कथानक' तथा 'पाल-गोपाल कथानक' रचनाएं, नीति-कथाग्रंथों में रोचक मानी गई हैं। प्रथम रचना में, भाग्य को जीतने के लिए रावण के निष्फल प्रयास का वर्णन है । जबकि दूसरी रचना में, एक ऐसे युवक का कथानक है, जो किसी मनचली स्त्री के चंगुल में फंसने से इनकार कर देता है। फलस्वरूप वह स्त्री, उस युवक पर दोषारोपण करने लगती है । त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित के 'परिशिष्ट पर्व' को हेमचन्द्र (१०८८-११७२) ने, नीति-कथाग्रन्थ के रूप में रचा। इसमें, जैनसन्तों के मनोहारी जीवन-वृत्तों की कथाएँ समाविष्ट हैं। 'सम्यक्त्व कौमुदी' में अर्हद्दास और उसकी आठ पत्नियों के मुख से सम्यक् धर्म की प्राप्ति का प्रतिपादन कराया गया है। जिसे, एक राजा और चोर भी सुनते हैं । इस ग्रंथ की पद्धति, एक ही कथा के अन्तर्गत अनेकों कथाओं का समावेश करने की परम्परा पर आधारित है।
इन तमाम सन्दर्भो को लक्ष्य करके कहा जा सकता है कि 'नीतिकथा' का प्रमुख लक्ष्य है-'सरल और मनोरंजक पद्धति से, धर्म, अर्थ और काम की चर्चाओं के साथ-साथ सदाचार, सद्व्यवहार और राजनीति के परिपक्व ज्ञान को मानवमन पर इस तरह अंकित कर देना कि वह मायावी और वञ्चकों के जाल में उलझने न पाये।'
लोक-कथा साहित्य का भी लक्ष्य स्पष्ट है-'लोक-मनरञ्जन'। इनके पात्र, पशु-पक्षी न होकर, मात्र मानव ही होते हैं ।
गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' लोककथाओं का प्राचीनतम संग्रह-ग्रन्थ है । 'अपने समय की प्रचलित लोककथाओं को संकलित करके गुणाढ्य ने 'बृहत्कथा' की रचना को' ऐसी कुछ विद्वानों की धारणा है। मूल 'बृहत्कथा' आज उपलब्ध नहीं है । इसलिए, इसके आकार आदि के सम्बन्ध में कोई प्रत्यक्ष प्रमाण अवशिष्ट नहीं रहा । परन्तु, दण्डी,1 सुबन्धु, बाण, धनंजय, त्रिविक्रम भट्ट, और गोवर्धनाचार्य आदि ने इसका उल्लेख अपनी-अपनी रचनाओं में, आदर के साथ किया है। १. काव्यादर्श-१/३८ २. वासवदत्ता (सुबन्धु) ३. हर्षचरित-प्रस्तावना, ४. दश रूपक-१/६८ ५. नलचम्पू-१/१४ ६. आर्यासप्तशती-पृष्ठ-१३
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