Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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अस्थि आदि रखी । तीर्थंकरों का कौन सा अंश पूजनीय नहीं होता ।
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( श्लोक ४०६-४०७ )
प्रथम सर्ग समाप्त
द्वितीय सर्ग
पृथ्वी को आनन्द देने वाले धर्म के नन्दनवन राजा सम्बर के पुत्र जिनेश्वर अभिनन्दन स्वामी की मैं स्तुति करता हूं । तत्त्वज्ञान के अमृत कुम्भ रूप, भव्यजनों की मोह निद्रा को भंग करने वाले दिवालोक तुल्य भगवान् के दिव्य जीवन का अब मैं वर्णन करता हूं । ( श्लोक १-२ )
इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में ऐश्वर्य और सुख के निवास रूप मंगलावती नामक एक देश था । उस देश में पृथ्वी के शिरोमणि रूप, समुद्र की भाँति रत्नों के निवास स्थल, नगरी में रत्न तुल्या, रत्नमंजूषा नामक एक नगरी थी । उस नगरी में कुबेर- से ऐश्वर्यशाली, पवन की तरह शक्तिवान महाबल नाम के एक राजा थे । हिमवत पर्वत जिस प्रकार गंगा, सिन्धु और रोहितास्या नदी
शोभित है वे भी उसी प्रकार राजकीय शक्ति - उत्साह, सन्मंत्रणा ऐश्वर्य और सैन्यदल की समृद्धि से सुशोभित थे । हस्तीशावक दंताघात से जिस प्रकार शत्रु को पराजित करता है वे भी उसी प्रकार चार प्रकार से शत्रु को शासित कर शासन करते थे । ज्ञान के आधार रूप में केवल अर्हत् को ही देव, साधु को गुरु और जिन प्रवचन को धर्म मानते थे । उदारता, चारित्र, तप और भाव रूप धर्म में उन्हें आनन्द था । कारण महत् महत् ही होते हैं । ( श्लोक ३ - ९ )
राग रहित विवेकवान वे राजा संसार-भय से भीत और संसार की असारता को जानकर केवल श्रावक धर्म से ही सन्तुष्ट नहीं रहे विमलसूरि के चरणों में पाले हुए वृष की तरह चारित्र के साथ-साथ पंच महाव्रत भी ग्रहण किया । दुष्ट व्यक्ति यदि उनकी निन्दा करते तो वे दीर्घकाल तक हार्दिक सुख अनुभव करते । सज्जन व्यक्ति यदि उनकी उपासना करते तो वे मन-ही- -मन लज्जित होते । दुष्ट व्यक्तियों द्वारा पीड़ित होने पर भी वे दुःखी नहीं होते, सज्जन व्यक्तियों द्वारा पूजे जाने पर भी गर्वित नहीं होते । मनोरम उद्यान में विचरण कर वे जिस प्रकार उत्फुल्ल नहीं होते उसी प्रकार सिंह