Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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[१८९ चक्र को अपने दाहिनी ओर रखकर, जो चक्र दिग्विजय का सूचक होता है, स्वयम्भू ने भरत क्षेत्र का दक्षिणार्द्ध जय कर लिया। विजयश्री के निवासरूप स्वयंभू नवविवाहिता पत्नी की तरह अर्द्धभरत की श्री के साथ क्रीड़ा करते हुए दिग्विजय कर लौटे । मगध पहुंचतेपहुंचते उन्होंने एक स्थान पर पृथ्वी को आच्छादनकारी एक वक्र शिला को एक करोड़ लोगों द्वारा उठाते हुए देखा । सहस्रनाग जिस प्रकार सहज ही पृथ्वी को धारण करता है उसी भाँति उन्होंने उस शिला को बाएँ हाथ में धारण कर ली। तदुपरान्त पुनः उस शिला को यथास्थान रखकर शक्तिशाली देवों को भी विस्मित कर वे कुछ दिनों के मध्य ही द्वारिका लौट आए। वहां रुद्र, भद्र एवं अन्यान्य राजाओं ने उन्हें अर्द्धचक्री के रूप में अभिषिक्त किया।
(श्लोक १६८-१७३) दो वर्ष तक छद्मस्थ रूप में विचरण करने के पश्चात् विमलनाथ स्वामी ने जिस सहस्राम्रवन उद्यान में दीक्षा ग्रहण की थी उसी उद्यान में लौट आए। जम्बू वृक्ष तले उनके घाती कर्मों के क्षय हो जाने के कारण प्रभु अष्टम गुणस्थान से चतुर्दश गुणस्थान पर चढ़ गए। पौष शुक्ला षष्ठ के दिन चन्द्र जब उत्तर भाद्रपद पर अवस्थित था, दो दिनों के उपवास के पश्चात् उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हआ। देवों द्वारा निर्मित समवसरण में उन्होंने देशना दी। मन्दरादि उनके सत्तावन गणधर हुए। (श्लोक १७४-१७७)
उसी समवसरण में सन्मुख नामक यक्ष उत्पन्न हुए। उनका वर्ण श्वेत था और वाहन था मयूर । उनके दाहिने छह हाथों में फल, चक्र, तीर, तलवार, पाश और अक्षमाला थी एवं बाएं छह हाथों में नकुल, चक्र, धनुष, ढाल और वस्त्र था तथा एक हाथ अभय मुद्रा में था। वे प्रभु के शासन देव हुए। इसी प्रकार विदिता नामक यक्षिणी भी उत्पन्न हुई। उनकी देह का रंग हरिताल वर्ण और वाहन था कमल । उनके दाहिने दोनों हाथों में तीर और पाश था एवं बाएँ हाथ में धनुष और सर्प था। वे भगवान् विमलनाथ स्वामी की शासन देवी बनीं।
(श्लोक १७८-१८१) शासन देव-देवी सहित प्रभु विभिन्न स्थानों में विहार करते हुए द्वारिका आए। शक और अन्यान्य देवों ने सात-सौ बीस धनुष दीर्घ अशोक वृक्ष सहित समवसरण की रचना की। प्रभु ने पूर्व द्वार