Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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सनत्कुमार देवलोक में सामानिक देवरूप में उत्पन्न हुए ।
षष्ठ सर्ग सम
( श्लोक ५४ - ५७ )
सप्तम सर्ग
भोगवती, अमरावती और लङ्का से भी अधिक सुवर्ण समृद्ध कांचनपुर नामक एक नगरी थी । विक्रमयश नामक एक विक्रमशाली राजा वहां राज्य करते थे । उनकी समृद्धि की विद्युतज्वाला शत्रुपत्नियों के अनुरूप वारि वर्षण की वृद्धि करती थी । उनके अन्तःपुर में मृगनयनी पांच सौ रानियां थीं । यूथपति हस्ती को जैसे यूथ की हस्तिनियां प्रिय होती हैं वैसे ही वे उन्हें प्रिय थीं । ( श्लोक १-३ ) उस नगर में कुबेर के धनागार से एक महा समृद्धिशाली नागदत्त नामक वणिक रहते थे । विष्णु की श्री-सी अत्यन्त रूप- लावण्यवती उनके विष्णुश्री नामक एक पत्नी थी । उन दोनों के परस्पर का प्रेम नील के दाग की भांति मिटने वाला नहीं था । वे सारस मिथुन की भांति क्रीड़ा करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे । ( श्लोक ४-६ ) एक दिन काकतालीय की तरह विष्णुश्री पर राजा विक्रमयश की दृष्टि पड़ी। उसे देखकर विक्रमयश जिसका विवेक काम द्वारा अपहृत कर लिया गया था सोचने लगा - उसकी आंखें हिरण-सी है, केश सुन्दर मयूरपूच्छ-से हैं, ओष्ठ कोमल व लाल पके विम्बफल की तरह दो भागों में विभक्त है, उसके स्तन पूर्ण और मदन के क्रीड़ाशैल की तरह पीन है, उसके हाथ सरल और लता-से कोमल हैं, कटि अत्यन्त क्षीण है जो कि बज्र के मध्य भाग की तरह मुष्ठि में आ सकती है । उसकी त्रिवली रेखा हंस- पंक्ति-सी है, नाभि नदी के आवर्त्त-सी है, नितम्ब सौन्दर्य रूपी सरिता की वेलाभूमि से है, जंघाएँ कदली वृक्ष -सी हैं, पैर कमल से हैं, उसका सर्वांग किसका मन हरण नहीं करेगा ? श्मशान में इन्द्र स्तम्भ - से वार्द्धक्य के लिए भ्रमवश विधाता ने इसे अपात्र को दान दिया है । इसे अपहरण कर मैं