Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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लिया। सेनापति के द्वारा दोनों द्वार खोल देने पर वे नौका से जिस प्रकार सहज रूप से समुद्र का अतिक्रम किया जाता है वैसे ही सहज रूप में वैताढय पर्वत को अतिक्रम कर गए।
(श्लोक ३९-४२) गंगा-मुख पर अवस्थित नैसर्प आदि नव-निधियों ने सानन्द उनकी अधीनता स्वीकार कर ली। उनके सेनापति ने गंगा का पूर्व भाग जीत लिया। इस प्रकार उन्होंने छः खण्ड भरतक्षेत्र को जीत कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया।
(श्लोक ४३.४४) चक्रवर्ती के समस्त वैभव सह मधवा इन्द्र जैसे अमरावती को लौटते हैं वैसे ही श्रावस्ती को लौट आए। वहां देवों और राजाओं ने उन्हें चक्रवर्ती रूप में अभिषिक्त किया। ३२ हजार मुकुटधारी राजाओं से परिवृत्त १६ हजार देवों द्वारा सेवित इच्छा मात्र से नवनिधि जिनकी इच्छा पूर्ण करने के लिए उपस्थित रहती है ऐसे चक्रवर्ती ६४ हजार अन्तःपुरिकाओं ने नेत्र रूपी नील कमल द्वारा चित और देवोपम समस्त प्रकार की भोग-सामग्रियों के रहने पर भी वे भोग-लब्ध न बनकर वंश परम्परागत श्रावक धर्म का पालन करने में प्रवृत्त हुए। उन्होंने बहुविध चैत्य और मन्दिरादि का जीर्णोद्धार व निर्माण करवाया। जिनमें स्वर्ण और रत्नों की जिन प्रतिमाएँ स्थापित करवायी। वे ऐसी लगती थीं मानो देव निर्मित हों। वे जिस प्रकार पृथ्वी के एक मात्र अधिपति थे उसी प्रकार अर्हत् (देव), उत्तम साधु (गुरु) और अनुकम्पा (धर्म) के वे एकमात्र उपासक थे। वे संयमी चक्रवर्ती राजाओं द्वारा पूजित होकर भी अर्हत् पूजा से कभी निवृत नहीं
___ (श्लोक ४५-५३) इस भांति श्रावक अविरत जीवन यापन कर मृत्यु के पूर्व श्रमण का विरति रूप धर्म ग्रहण किया। वे २५००० वर्षों तक कुमारावस्था में, २५००० वर्षों तक माण्डलिक राजा के रूप में, १०००० वर्षों तक दिग्विजय में, ३,९०,००० वर्षों तक चक्रवर्ती रूप में और ५०००० वर्षों तक संयम साधना में रहे। इस प्रकार कुल ५००००० वर्षों की पूर्णायु भोग कर वे पवित्रमना चक्रवर्ती पंच परमेष्ठि का स्मरण करते हुए मृत्यु प्राप्त कर