Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 271
________________ २६२] सिंहासन पर बैठाया और महेन्द्रसिंह को उनका सेनापति बना दिया । तीर्थंकर धर्मनाथ स्वामी के समवसरण में जाकर अश्वसेन ने वयोज्येष्ठों के सम्मुख दीक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को सार्थक किया । ( श्लोक ३०८-३१०) चौदह महारत्न और चक्रादि सनत्कुमार के राज्य में उत्पन्न हुए । चक्र का अनुसरण कर उन्होंने भरत के छह खण्डों को जीत लिया एवं नैसर्प आदि रत्नों को प्राप्त किया । इस प्रकार दस हजार वर्षों में समस्त भरत क्षेत्र को जय कर वे हस्तीरत्न पर आरूढ़ होकर हस्तिनापुर में प्रविष्ट हुए । जब वे महामना नगर में प्रविष्ट तभी अवधिज्ञान से जानकर सौधर्मेन्द्र ने पूर्व बन्धुत्व के लिए उन्हें अपना प्रतिरूप समझा । जिस हेतु पूर्व जन्म में वे सौधर्मेन्द्र थे अतः वे मेरे भ्राता हैं ऐसे स्नेह के कारण शक्र ने कुबेर को बुलवाया और कहा - 'शत्रों में उत्तम, चक्री, कुरुवंशरूप समुद्र के लिए चन्द्र तुल्य महामना अश्वसेन के पुत्र मेरे भाई के समान हैं। छह खण्ड भरत जय कर आज वे नगर में प्रवेश कर रहे हैं । उनका चक्रवर्ती के रूप में अभिषेक करना है । अतः उसका आयोजन करो। इतना कहकर सौधर्मेन्द्र ने उन्हें हार, अर्द्धहार, छत्र, दो चँवर, मुकुट, युगल कुण्डल, दो देवदूष्य वस्त्र, सिंहासन, पादुका और उज्ज्वल पादपीठ सनत्कुमार को प्रदान करने के लिए दिए। साथ ही साथ उन्होंने तिलोत्तमा, उर्वशी, मेनका, रम्भा, तुम्बुरु और नारद को भी अभिषेक में जाने के लिए कहा । कुबेर तत्काल उन्हें लेकर हस्तिनापुर गए और सनत्कुमार को शक्र का आदेश निवेदित किया । सनत्कुमार की आज्ञा मिलते ही कुबेर ने रोहन पर्वत की उपत्यका - सा एक योजन दीर्घ रत्नखचित मंच का निर्माण करवाया । उस पर दिव्य चन्द्रातप लगवाया और मंच के मध्य रत्नों की वेदी निर्मित कर उस पर रत्न सिंहासन स्थापित किया । कुबेर के आदेश पर जृम्भक देव क्षीरसमुद्र से जल ले आए । समस्त राजन्यवर्ग महार्घ गन्ध-माला आदि ले आए । ( श्लोक ३११-३२४) आयोजन सम्पन्न होने पर कुबेर ने सनत्कुमार को रत्न सिंहासन पर बैठाया और इन्द्र द्वारा प्रदत्त उपहार प्रदान किए । इन्द्र के सामानिक देवों की तरह सनत्कुमार के अनुचरवृन्द, सामन्त और राजन्यवर्ग यथास्थान खड़े रहे । नाभिपुत्र का जिस प्रकार

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