Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 275
________________ २६६] तरह अस्थायी हैं । अत: इस नाशवान देह द्वारा सकाम निर्जरा रूप तप करना ही उत्तम है।' (श्लोक ३७२-३७७) ऐसा सोच कर संसार से विरक्त बने सनत्कुमार ने प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा से अपने पुत्र को सिंहासन पर बैठाया। तदुपरान्त उद्यान में जाकर जो कुछ हेय है उसका परित्याग करने के लिए विनयधर मुनि से भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली। महाव्रत ग्रहण व उत्तरगुण पालन करने के लिए सर्वदा समभाव में स्थिर रहते हुए वे जब ग्रामानुग्राम विचरण करने लगे तब हस्तीयूथ जैसे-जैसे यूथपति का अनुसरण करता है उसी प्रकार उनके प्रति अनुरागी सामन्तराजगण उनका अनुसरण करने लगे। छह मास पर्यन्त अनुसरण कर वे लौट आए। कारण सर्वविरत ममत्व और अनुरागहीन निष्परिग्रही उन महात्मा ने उनकी ओर मुड़ कर भी नहीं देखा । (श्लोक ३७८-३८३) दो दिनों के उपवास के पश्चात् एक दिन वे जब पारणा के लिए एक गृहस्थ के घर गए तो वहां छाछ और उबाला हुआ जौ मात्र मिला। उन्होंने वही खाकर पारणा किया। यही क्रम उनका चलता रहा। एक दिन पारणा दो दिन उपवास करने से, दोहद रह जाने पर शरीर में जैसे व्याधियाँ बढ़ जाती है उसी प्रकार उनकी देह में भी रोग बढ़ने लगा। वे महामना खुजली दाद, ज्वर, दमा, मन्दाग्नि, पेट का दर्द और नेत्र रोग इन सात व्याधियों से आक्रांत हो गए। उन्होंने उसी अवस्था में ७०० वर्ष व्यतीत किए। इस भाँति दुःसह परिषह सहन कर व्याधि उपचार से निःस्पृह रहते हुए घोर तप करने के कारण उन्हें विभिन्न लब्धियाँ प्राप्त हो गयीं। उन्होंने अपने थक, कफ, पसीना, शरीर का मेल, विष्ठा व स्पर्श द्वारा रोग निर्मुक्त करने की क्षमता प्राप्त की। (श्लोक ३८३-३८७) __ सनत्कुमार की विशुद्ध तपस्या के प्रति श्रद्धान्वित होकर इन्द्रदेव सभा में बोले-'जलते हए फस की भाँति चक्रवर्ती के विपुल वैभव को परित्याग कर सनत्कुमार कठोर तप में संलग्न हैं । यद्यपि तप के प्रभाव से व्याधिमुक्त होने की क्षमता उन्होंने अजित कर ली है फिर भी देह के प्रति निरासक्त वे महामना स्वयं को रोगमुक्त नहीं कर रहे हैं ? पूर्वोक्त वही विजय और

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