Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 274
________________ [२६५ से राजसभा को अलंकृत किया। उन दोनों ब्राह्मणों को वहाँ लाया गया जिससे वे उनका सौन्दर्य देख सकें; किन्तु उन्हें देखते ही वे विषण्ण होकर सोचने लगे-इतनी-सी देर में ही इनका वह रूप-लावण्य, कान्ति कहाँ चली गयी ? सचमुच ही मृत्यु लोक में मनुष्य का सब कुछ ही नश्वर है। (श्लोक ३६२-३६४) सनत्कुमार ने विस्मित होकर उनसे पूछा-'इसके पूर्व जब आप लोगों ने मुझे देखा तो हर्षोत्फुल्ल हो उठे थे; किन्तु अभी सहसा दुःखी और विषण्णमना क्यों हो गए हैं ?' तब वे मधुर स्वर में सनत्कुमार से बोले, 'राजन्, हम दोनों सौधर्म देवलोक के देव हैं। सौधर्म देवलोक में इन्द्र ने आपके रूप की प्रशंसा की। हमें विश्वास नहीं हुआ। अतः मानव देह में आपका वह रूप देखने यहाँ आए। उस समय इन्द्र ने जैसा कहा था वैसे ही आपका रूप देखा; किन्तु अब आपका वह रूप बदल चुका है। निःश्वास जैसे दर्पण को अन्ध कर देती है उसी प्रकार रूप का अपहरण करने वाली व्याधि द्वारा आपकी देह ग्रस्त हो गयी है ?' (श्लोक ३६५-३६९) इस सत्य को प्रकाशित कर वे देव तत्क्षण अन्तर्धान हो गए। सनत्कुमार ने स्वयं भी अपनी देह को हिमग्रस्त वृक्ष की भाँति प्रभाहीन देखा। तब वे सोचने लगे-'हाय ! यह देह सर्वदा ही रोग का आकर है । अल्पबुद्धि मूर्ख ही व्यर्थ इसका गर्व करते हैं। (श्लोक ३७०-३७१) _ 'दीमक जैसे भीतर ही भीतर वृक्ष को नष्ट कर देता है उसी भांति देह को भी देह में उत्पन्न व्याधि भीतर ही भीतर नष्ट कर देती है। यद्यपि कभी-कभी यह देह बाहर से देखने में सुन्दर लगती है, फिर भी यह भीतर से वटवृक्ष के फल की तरह कीट पूर्ण हैं। जलकुम्भी जैसे सुन्दर जलाशय को नष्ट कर देता है उसी प्रकार व्याधि भी शारीरिक सौन्दर्य को क्षणभर में नष्ट कर देती है। शरीर शिथिल हो जाता है, किन्तु कामना नहीं जाती। रूप नष्ट हो जाता है; किन्तु भोग-लिप्सा रह जाती है। वृद्धावस्था आ जाती है; किन्तु ज्ञान का उदय नहीं होता। धिक्कार है मनुष्य की इस देह को! रूप-लावण्य, कान्ति, वैभव, शरीर और सम्पत्ति इस संसार में कुशाग्रस्थित जलबिन्दु की

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