Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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दीर्घकाल तक संयम का पालन कर मृत्यु के पश्चात् 'मध्य ग्रैवेयक' में अहमिन्द्र रूप में वे उत्पन्न हुए । ( श्लोक ७-९ ) जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में श्रावस्ती नामक एक नगरी थी । उस नगरी में समुद्रविजय नामक एक राजा राज्य करते थे । रत्नाकर जिस प्रकार विविध रत्नों का आकर है उसी प्रकार वे विविध गुणों के आकर थे । वे शत्रु-मित्र दोनों के ही हृदय में विराजते थे कारण वे जैसे मित्रों को सदा आनन्द देते थे उसी प्रकार शत्रुओं के लिए भी सदैव भय का कारण रहते थे । वे पराक्रमी राजा जब युद्धरत रहते तो सदैव उन्मुक्त तलवार में केवल स्वयं को ही प्रतिफलित देखते। उन्होंने दशों दिशाओं को इस प्रकार अधीन कर लिया था मानों यश रूप अलङ्कार देकर उन्हें वशीभूत कर लिया हो गोपालक जैसे गाय की रक्षा करता है उसी प्रकार वे पृथ्वी की रक्षा करते और किसी को भी कष्ट न देकर कर आदि दुग्ध की तरह यथासमय प्रयोजन के अनुसार ग्रहण करते थे । ( श्लोक १०-१५ )
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उनकी पत्नी का नाम भद्रा था । वह जितनी सुन्दर थी उतनी ही शीलवती और सौभाग्य का आकर थी न करते हुए समुद्र विजय ने उसके साथ दीर्घ भोग किया 1
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धर्म का लंघन दिनों तक सुख
(श्लोक १६-१७)
अमरपति का जीवन अपनी ग्रैवेयक की आयु पूर्ण कर वहां से च्युत होकर भद्रा के गर्भ में प्रविष्ट हुआ । सुख- शय्या में सोयी भद्रा ने चक्रवर्ती के जन्म-सूचक चौदह स्वप्नों को अपने मुख में प्रवेश करते देखा । यथासमय उसने सर्व सुलक्षणों से युक्त एक पुत्र को जन्म दिया । जातक स्वर्ण वर्ण का था और साढ़े बयालीस धनुष दीर्घ था । पृथ्वी पर यह मघवा - सा होगा ऐसा कह कर राजा ने उसका नाम रखा मघवा । ( श्लोक १८-२१) सूर्य के पश्चात् जैसे चन्द्र आकाश को अलंकृत करता है उसी प्रकार समर्थ और विजयी मधवा ने पिता के पश्चात् पृथ्वी को अलंकृत किया । एक दिन विद्युत की भाँति प्रभा विकीर्ण करने वाला चक्ररत्न उनकी आयुधशाला में उत्पन्न हुआ । यथाक्रम से पुरोहित रत्नादि अन्य रत्न भी यथास्थान उत्पन्न हुए । चक्ररत्न का अनुसरण कर दिग्विजय की अभिलाषा से