Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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नहीं हुआ मानो उसने वर्म धारण कर रखा हो । पार्वत्य नदी के प्रवाह से उखाड़े वृक्षों द्वारा अवरुद्ध होने पर भी उसने वह नदी राजहंस की तरह सहज ही अतिक्रम कर ली । सूअरों की तरह वन का कर्दम भरा पथ भी मित्र के अन्वेषण में उसने सहज ही पार कर लिया ।
( श्लोक १३३ - १३६ )
सिर पर था चित्रा नक्षत्र ( शरद् काल ) का उत्ताप और पैरों तले थी उत्तप्त धूल मानो वह अग्निगृह में निवास कर रहा हो, किन्तु मन ही मन शीतल जल, कमल, पक्षी, हंस आदि का चिन्तन करते हुए और हे बन्धु, तुम कहाँ हो, तुम कहाँ हो इस प्रकार उसे खोजते हुए सब कुछ सहन किया । मदगन्ध की तरह सप्तपर्ण की गन्ध से उन्मत्त हस्ती यूथ की उसने उपेक्षा की । पद्मगन्ध से आकृष्ट अरण्य में प्रवेश करने वाले हस्ती की तरह उसने गहन अरण्य में प्रवेश किया और शरद्कालीन मेघ की तरह मित्र की खोज में इधर-उधर भटकने लगा ।
( श्लोक १३७-१४०)
हिम पर्वत के सहोदर रूप उत्तरी पवन से जब नदी और जलाशय जम गए, लाल कमल, दिन में प्रस्फुटित श्वेत कमल, रात्रि में प्रस्फुटित श्वेत और नील कमल शीत के प्रभाव से जब म्रियमाण हो गए, दावाग्नि का उत्ताप भी जब उन्हें बचा नहीं सका, किरात भी जब शीत से जर्जर होकर दावाग्नि की कामना करने लगे ऐसे शीतकाल को भी उसने अरण्य में व्यतीत किया । यह निश्चय ही उसके कठिन मनोबल का द्योतक था । ( श्लोक १४१ - १४३ )
जो पथ पत्तों के झरने से घुटनों तक आच्छादित हो गया था जिसमें सर्प, बिच्छु आदि आश्रय लिए थे ऐसी राह पर भी वह निर्भय चलता रहा । कर्ण को अप्रिय ऐसी सिंहादि के गर्जना की भी उसने उपेक्षा की । केवल मात्र अंकुर भक्षण कर उस शीतकाल को व्यतीत किया जबकि मित्र की दुश्चिन्ता में वह शीतल नहीं था । ( श्लोक १४४-१४६ ) इस प्रकार सनत्कुमार को खोजते हुए एक वर्ष व्यतीत हो गया । एक दिन अरण्य में कुछ दूर जाकर जब खड़ा हो गया और ज्योतिर्विद की तरह आकाश में न जाने क्या देख रहा