Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 235
________________ २२६] पुरुषसिंह का ऐसा कठोर वाक्य सुनकर निशुम्भ ने उन्हें मारने के लिए अपनी समस्त शक्ति संहत कर उस चक्र को निक्षेप किया। वह चक्र नाभि द्वारा वासुदेव के वक्ष को स्पर्श कर विंध्य पर्वत पर आघात करने वाले हस्ती की तरह व्यर्थ हो गया। उस आघात से वासुदेव मूच्छित हो गए। बलदेव गोशीर्ष चन्दन के जल से उनके नेत्र मुख को सिंचित करने लगे। संज्ञा लौटते ही वे उठ खड़े हुए और उसी चक्र को हाथ में लेकर निशुम्भ से बोले-'अब खड़े मत रहो, भाग जाओ, भाग जाओ।' निशुम्भ ने प्रत्युत्तर दिया-'निक्षेप करो, निक्षेप करो।' तब पंचम अर्द्धचक्री ने उस चक्र से निशुम्भ का सिर काट डाला। महाबली वासुदेव पर विजयश्री के हास्य की तरह आकाश से पुष्पवर्षित होने लगे। (श्लोक १८४-१८९) विजय पर विजय प्राप्त कर अर्द्ध चक्री ने भरतार्द्ध जय किया। महत् व्यक्ति की अभीप्सा हजारों रूपों में फलदायी होती है। विजय-अभियान से लौटकर पुरुषसिंह मगध गए और वहाँ कोटिशिला को मिट्टी के थाल की तरह एक हाथ से उठा लिया । पृथ्वी को अश्वों से आच्छादित कर वे अश्वपुर को लौट गए। नगर-नारियों ने पद-पद पर उनकी अभ्यर्थना की। बलदेव और अन्य भक्तिमान राजाओं द्वारा वे अर्द्ध चक्री के रूप के अभिषिक्त हुए। (श्लोक १९०-९३) छद्मस्थ रूप में दो वर्षों तक प्रव्रजन करते हुए भगवान धर्मनाथ अपने दीक्षा स्थल वप्रकांचन उद्यान में लौट आए । दो दिनों के उपवास के पश्चात् पौष मास की पूर्णिमा को चन्द्र जब पुष्य नक्षत्र में अवस्थित था उन्होंने दधिपर्ण वक्ष के नीचे शुक्लध्यान की द्वितीय अवस्था अतिक्रम कर केवलज्ञान प्राप्त किया। (श्लोक १९४-९५) देव निर्मित समवसरण में अरिष्ट आदि ४३ गणभूतों के सम्मुख प्रभु ने देशना दी। (श्लोक १९६) __भगवान के तीर्थ में रक्तवर्णीय कर्मवाहन वाले त्रिमुख यक्ष उत्पन्न हुए जिनके दाहिनी ओर के तीनों हाथों में से एक हाथ में नकुल, दूसरे में दण्ड और तीसरा अभय मुद्रा में था। बायीं ओर के तीन हाथों में यथाक्रम से विजोरा, पद्म और अक्षमाला थी। ये भगवान के शासन देव हुए। इसी प्रकार प्रभु के तीर्थ में शुक्लवर्णा

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