Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जन्म, अप्रत्याख्यानी कषाय तिर्यक योनि और अनन्तानुबन्धी कषाय नारक भव प्रदान करता है। (श्लोक २२६-२२८)
'इनमें क्रोध आत्मा को तप्त कर वैर और शत्रुता को जन्म देता है, दुर्गति में खींचकर ले जाता है और समता रूपी सुख में बाधक बनता है। क्रोध उत्पन्न होते ही अग्नि की भांति सर्वप्रथम अपने आश्रय-स्थल को ही जला डालता है दूसरे को तो जलाए या नहीं। क्रोध रूपी अग्नि आठ वर्ष कम एक कोटि पूर्व के संयम और तपस्या के फल को एक मुहूर्त में जलाकर भस्म कर देता है । बहु पुण्य से संचित समता रूपी जल इस क्रोध रूपी विष के सम्पर्क में आकर उसी मुहर्त में अपेय हो जाता है। विचित्र गुणों द्वारा गुन्थी हुई चारित्र रूपी चित्रशाला को क्रोधाग्नि निःसृत धूम मुहूर्त भर में काली कर देता है। वैराग्यरूपी शमी पत्र पर संचित समता रूपी रस क्रोध रूपी छिद्र से मुहर्त भर में निकल जाता है। क्रोध बढ़ने पर ऐसा कौन-सा अकरणीय कार्य है जिसे वह नहीं कर बैठता ? यह भव्य द्वारिका भविष्य में द्वैपायण ऋषि के क्रोध में ईंधन की तरह जलकर राख हो जाएगी। क्रोधी क्रोध के कारण जिस कार्यसिद्धि को देखता है वह क्रोध के कारण नहीं होती बल्कि पूर्व जन्मकृत पुण्य फल के कारण होती है। अतः ऐसे क्रोध को जो इस लोक परलोक में अपना और पराये का स्वार्थ विनष्ट करता है, उसे अपनी देह में स्थान देता हैं, उसे बार-बार धिक्कार है। क्रोधान्ध पुरुष निर्दयतापूर्वक अपने माता पिता गुरु सुहृद मित्र सहोदर स्त्री पूत्र यहां तक कि अपनी भी हत्या कर बैठता है। अतः क्रोध रूपी अग्नि को बुझाने के लिए उत्तम पुरुष संयम रूपी उद्यान में क्षमा रूपी जलधारा सिंचन करते हैं अर्थात् क्रोध को क्षमा द्वारा जीत लेते हैं।
(श्लोक २२९-२३९) 'अपकारकारी व्यक्ति पर उत्पन्न क्रोध को किस प्रकार रोका जा सकता है ? प्रथमतः स्व महत्व द्वारा । द्वितीयतः इस भावना से कि जो मेरा अनिष्ट कर रहा है वह तो अपने दुष्कृत्यों द्वारा अपनी ही आत्मा का अनिष्ट कर रहा है। तब मैं क्यों पागल की तरह उस पर क्रोध करता हूं ? हे आत्मन्, तुम यदि सोचो तो पाओगे जो तुम्हारा अनिष्ट कर रहे हैं वे तुम्हारे वास्तविक अनिष्टकारी नहीं