Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 236
________________ [२२७ मयूरवाहना कन्दर्पा नामक देवी उत्पन्न हुई जिसके बाएँ हाथ के प्रथम में नील कमल और द्वितीय में अंकुश था। दायीं ओर के दोनों हाथों में से एक में कमल था और दूसरा अभय मुद्रा में था। ये भगवान की शासन देवी बनीं। वह सर्वदा भगवान के निकट ही रहतीं। (श्लोक १९७-२००) इनके द्वारा सेवित होकर पृथ्वी प्रव्रजन करते हुए प्रभु अश्वपुर आए। शकादि देवों ने वहां ५४० धनुष दीर्घ चैत्यवक्ष सहित समवसरण की रचना की। भगवान ने उस समवसरण में प्रवेश कर चैत्यवृक्ष को नमस्कार किया एवं पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर उपवेशित हुए। तब व्यंतर देवों ने प्रभु की तीन मूर्तियां निर्मित कर अन्य तीनों ओर रत्न-जड़ित सिंहासन पर स्थापित की। संघ उसी समवसरण में प्रविष्ट होकर यथास्थान अवस्थित हो गया। तिर्यक प्राणी मध्य प्राकार में और वाहनादि तृतीय प्राकार में रह गए। (श्लोक २०१-२०५) कर्त्तव्यपरायण अनुचरों ने पुरुषसिंह को प्रभु के आगमन की सूचना दी। उन्होंने सन्देश वाहक को बारह करोड़ रौप्य पुरस्कार में दिया और सुदर्शन सहित समवसरण में प्रवेश कर प्रभु को प्रदक्षिणा देकर वन्दन किया और अग्रज सहित शक्र के पीछे जाकर बैठ गए । प्रभु को पुनः वन्दना कर आपकी सेवा में सर्वदा संलग्न शक्र, पुरुषसिंह और सुदर्शन ने आनन्द भाव से प्रभ की इस प्रकार स्तुति की। (श्लोक २०६-२०८) 'हे पृथ्वी रूप चकोर के लिए चन्द्रतुल्य और मिथ्यात्व रूप अन्धकार का विनाश करने में सूर्य सदृश जगत्पति धर्मनाथ, आपकी जय हो! यद्यपि आपने दीर्घकाल छद्मस्थ रूप में विचरण किया फिर भी प्रमादशून्य थे। अनन्त दर्शन से युक्त आप अन्य मतों को विनष्ट करें। जो आपके दर्शन रूपी जल में स्नान करेंगे उनके कर्म-मल मुहर्त मात्र में धुल जाएँगे। हे भगवन्, आपकी पद-छाया में आते ही जिस प्रकार ताप दूर हो जाता है उस प्रकार मेघ की छाया या पेड़ की छाया से दूर नहीं होता। जो यहां उपस्थित हुए हैं उनके शरीर आपकी दृष्टि आलोक में चित्र की भांति स्थिर हो गए हैं। यद्यपि ये परस्पर वैरभाव सम्पन्न है। फिर दीर्घकाल के पश्चात् त्रिलोक यहां आकर सम्मिलित हुआ

Loading...

Page Navigation
1 ... 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278